गुरु जी ने सही राग में चार लाचां की रचना की। इनका आंतरिक भाव, भगत रूपी स्त्री काः:प्रभुः पति के संग मेल अथवा संयोग है। Read more about लावां का पाठ – Lesson of Lavaan (Guru Ram Das Ji) …
गुरु जी ने सही राग में चार लाचां की रचना की। इनका आंतरिक भाव, भगत रूपी स्त्री काः:प्रभुः पति के संग मेल अथवा संयोग है। Read more about लावां का पाठ – Lesson of Lavaan (Guru Ram Das Ji) …
दष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशय: ।।
चाणक्य ने कहा है कि अज्ञानी व्यक्ति को कोई भी बात समझायी जा सकती है क्योंकि उसे किसी बात का ज्ञान तो है नहीं। अतः उसे जो कुछ समझाया जायेगा वह समझ सकता है। ज्ञानी को तो कोई बात बिल्कुल सही तौर पर समझायी ही जा सकती है। किन्तु अल्पज्ञानी को कोई भी बात नहीं समझायी जा सकती, क्योंकि उसमें अल्पज्ञान के रूप में अधकचरे ज्ञान का समावेश होता है जो कि किसी भी बात को उसके मस्तिष्क तक पहुँचने ही नहीं देता। इस बात को इस रूप में जानें कि जिस गृहस्थ की पत्नी दुष्ट होती है, उसका जीवन मरण के बराबर हो जाता है और जिसका मित्र नीच स्वभाव का हो उसका भी अन्त निकट ही समझा जाना चाहिए। ठीक इसी प्रकार जिसके नौकर-चाकर मालिक के सामने बोलते हों तो उसके लिए भी जीवन का कोई अर्थ नहीं होता है। Read more about समाज …
प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।
सागराः भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः।।
मर्यादा पालन के लिए सागर आदर्श माना जाता है। वर्षाकाल में उफनती असंख्य नदियों को अपने में समेटते हुए भी सागर अपनी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता, परन्तु प्रलय आने पर सागर का जल तटबन्धों को तोड़कर समस्त धरती को जलमग्न कर देता है। इससे यह सिद्ध होता है कि सागर भी प्रलय काल में अपनी मर्यादा में नहीं रह पाता, परन्तु सद्पुरुष सागर से भी महान् होते हैं। जो प्राणों का संकट या भयंकर विपत्ति के समय भी अपनी सज्जनता (मर्यादा) का त्याग नहीं करते, स्वार्थ पूर्ति के लिये मनमाना व्यवहार नहीं करते । इसीलिए सद्पुरुष (साधु) समुद्र से भी अधिक विशाल हृदय व गम्भीर होने के कारण महान् कहे जाते हैं। Read more about ज्ञान …
दर्शन-ध्यान-संस्पर्शैर्मत्सी कूर्मी च पक्षिणी।
शिशु पालयते नित्यं तथा सज्जन सङ्गतिः।।
जिस प्रकार मछली देख-देखकर सन्तान का पालन करती है, कछुई केवल ध्यान द्वारा ही सन्तान का पालन करती है, और मादा पक्षी अपने अण्डों को सेकर या छूकर अपनी सन्तान का पालन करती है, उसी प्रकार सज्जन की संगति अपने सम्पर्क में आने वालों को भगवान के दर्शन, ध्यान और चरण-स्पर्श आदि का आभास कराकर उनका कल्याण करती है। Read more about सत्संग …
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि।।
आज के युग में अर्थ की प्रधानता है और धन सञ्चय प्रमुख आधार है। धन सञ्चय मानव के लिए आवश्यक है, क्योंकि न जाने जरूरत कब पड़ जाये और ऐन जरूरत पर धन ही काम आता है। Read more about आचरण …
धीत्येदमर्थशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः। धर्मोपदेश विख्यातं कार्याकार्य शुभाशुभम्।। अध्याय एक-श्लोक दो धर्म की व्याख्या करते हुए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि समझदार व्यक्ति इस नीतिशास्त्र को पढ़कर ही अपने कार्यबोध यानी धर्म के प्रति जागरूक हो जाता है। उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान हो जाता है। वह जान जाता है कि उसे क्या करना चाहिए और […]
मनसा चिन्तितं कार्य वाचा नैव प्रकाशयेत्।
मन्त्रैव रक्षयेद् गूढ़ कार्ये चापि नियोजयेत्।।
आचार्य चाणक्य व्यक्ति की सफलता के लिए एक गुप्त मंत्र देते हुए कहते हैं कि यदि आप सफलता अर्जित करना चाहते हैं तो गोपनीयता सीखें। यदि आप किसी कार्य सिद्धि के लिए योजना बना रहे हैं तो उसके क्रियान्वयन व फलीभूत होने तक उसे गुप्त रखने का मंत्र आपको आना चाहिए। ऐसा न करने की अवस्था में आपकी योजना विफल भी हो सकती है। Read more about आत्म-मंथन …
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति।।
मूर्ख शिष्य को शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं क्योंकि वह तो उस शिक्षा को उल्टा ही समझेगा और उसका उपभोग नहीं कर पायेगा। इसी प्रकार दुष्ट और कुलटा स्त्री का पालन करने से भी व्यक्ति कष्ट ही भोगता है। आचार्य चाणक्य ने अपनी बात को स्पष्ट किया है कि वह यानी कुलटा स्त्री सदैव धर्म विरुद्ध ही आचरण करेगी। उसे सदाचार से कोई लेना-देना नहीं, इसका तात्पर्य यह हुआ कि इस प्रकार की स्त्री से कोई लाभ नहीं जो विदुषी तो हो ही नहीं, साथ ही धर्म परायण भी न हो। दुःखी व्यक्ति का साथ सदैव कष्टकारी ही होता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दुःखी व्यक्ति अपने ही दुःख या स्वार्थ में निहित रहता है। अतः उसमें विवेक का अभाव होता है, तब वह दूसरे का हित सोच ही नहीं। सकता। Read more about गृह …
त्यजेद् धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्|
त्यजेत क्रोधमुर्खी भार्या नि:स्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत्।।
जिस धर्म में दया नहीं, वह धर्म, धर्म नहीं। ऐसे धर्म को अपनाये रखने से कोई लाभ नहीं। जिस गुरु के पास ज्ञान नहीं, उसकी सेवा करने से अर्थात् शिष्य बने रहने से कोई लाभ नहीं। निरन्तर झगड़ा करने वाली पत्नी को घर में रखने से कोई लाभ नहीं, उसे छोड़ देना ही श्रेयष्कर है। बन्धु-बान्धवों के मन में स्नेह न हो तो उनका परित्याग करना ही अच्छा होगा। अभिप्राय यह है कि सच्चा धर्म वही है जिसमें दया, करुणा का भाव हो, विद्या निपुण व्यक्ति ही गुरु बनने के योग्य है। शान्त और सहनशील पत्नी ही पत्नी बनने के योग्य होती है। और दुःख में द्रवित होने वाले बन्धु-बान्धव से ही सम्बन्ध रखने चाहिए। यही वाञ्छनीय है। Read more about श्रद्धा …
दारिद्रयनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी।।
दान से दरिद्रता का, सदाचार से दुर्गति का, उत्तम बुद्धि से अज्ञान का तथा सद्भभावना से भय का नाश होता है। Read more about दान …