सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन-काल 325 ई० पूर्व माना जाता है। चन्द्रगुप्त को राजगद्दी पर बैठाने का पूरा श्रेय चाणक्य को जाता है। नन्द वंश का नवां नंद राजा महानन्द शक्तिशाली और विशाल राज्य का स्वामी होने के साथ-साथ घोर विलासी, सुरा-सुन्दरियों में घिरा रहने वाला, अहंकारी और कानों का कच्चा, प्रजा के हितों की रक्षा न करके उन पर अत्याचार ढाने वाला राजा था। पूरा मगध राज्य महानन्द के अधीन था। उस समय महानन्द जैसे बड़े राजा के सुरा-सुन्दरी में लिप्त व विलासी हो जाने के कारण अन्य छोटे-छोटे राज्य टुकड़ों में बंटने शुरू हो गये थे। वे आपस में भी युद्धरत रहकर अपनी शक्ति क्षीण करने लगे थे, जिसका लाभ उठाकर यूनानी नरेश सिकन्दर अपनी अपराजेय सेना लेकर भारत और विश्व विजय का सपना लेकर यूनान से चल पड़ा था। वह अपनी विशाल सेना के बल पर ईरान के रास्ते बढ़ता हुआ, छोटे-छोटे राज्यों को जीतता, उन्हें आधीन बनाता भारत की ओर बढ़ा आ रहा था-भारत की राजनैतिक सत्ता बिखरी हुई और जर्जर थी। ऐसे समय में भारत भाग्यविधाता अकेला चाणक्य ही वह महान् व्यक्ति था, जो अपनी विद्वता को सम्पूर्ण बल मानकर यूनानी नरेश का मुंह फेर देने, संगठित और व्यवस्थित भारत की कल्पना कर, उसे अखण्ड साम्राज्य के रूप में ढालने के लिए उठ खड़ा हुआ था।
चाणक्य ने तक्षशिला विश्वविद्यालय से राजनीति में स्नातक की शिक्षा प्राप्त की थी। उसी समय संयोग से मगध नरेश महानन्द का सेनापति शकटार, अपने राजा के पिता के भोज के लिए ब्राह्मणों को खोज लाने के कार्य पर निकला हुआ था। उसने काले-कलूटे, कुरूप ब्राह्मण को कुशाओं की जड़ खोद-खोदकर उसमें मट्टा भरते हुए देखा तो कुतूहल में भरकर उसके पास गया। जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ कि कुशा ने उसके पैर में गड़कर पीड़ा पहुंचायी है अतः वह मार्ग की सारी कुशाओं की जड़ खोदकर, उसमें मट्टा भर कर उसका बीजनाश कर रहा है।
परिचय के आदान-प्रदान पर उसे आचार्य चाणक्य के रूप में जानकर उसने यथोचित सम्मान दर्शाया। शकटार को महानन्द ने व्यर्थ ही वर्षों तक सपरिवार कारागार में डाल रखा था। उस पर दोष यह लगा था कि ‘मुरा’ नामक महानन्द की रखैल पर वह बुरी नजर रख रहा था। मुरा को भी गर्भवती अवस्था में महलों से निकालकर वनवासी बना दिया गया था। बरसों बाद शकटार को अपना खोया पद मिल पाया था। उसके मन में महानन्द के प्रति बैर भाव था। मन ही मन विचार किया कि अगर इस महाविद्वान जिद्दी ब्राह्मण को राजा के भोज निमंत्रण में ले जाकर, उसकी कुरूपता को लेकर महानन्द से उसे अपमानित करवा दे तो, जो इन्सान कुशा के पैर में पड़ने पर उसका जड़मूल नाश कर रहा है, वह महानन्द से अपमानित होने पर उसका भी वंशमूल मिटाकर दम लेगा।
उसने बेहद दीनता के साथ महानन्द के भोज में चलने को, चाणक्य को आमंत्रित किया। चाणक्य स्वयं चाहता था कि उसे किसी तरह महानन्द के पास जाकर, इस बात को समझाने का अवसर मिले कि वह यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर से भारत भूमि की रक्षा के लिए अपनी विलासिता छोड़, छोटे राज्यों को एक कर उससे मुकाबला करने और पछाड़ने के लिए उठ खड़ा हो। वह भोज में गया और जैसा कि शकटार महानन्द के दम्भी स्वभाव से परिचित था, महविद्वान परन्तु काले-कलूटे, कुरूप व्यक्ति को अग्रिम पंक्ति में बैठा देख भड़क उठा। उसे वहां से तुरन्त निकल जाने का आदेश दिया। शकटार ने महानन्द को बताया कि वे तक्षशिला विश्वविद्यालय के आचार्य, महापण्डित चाणक्य हैं, पर दम्भी महानन्द को अकारण चढ़ा क्रोध शान्त न पड़ा। उसने समस्त ब्राह्मणों के सामने चाणक्य को और भी अपमानित किया। चाणक्य ने भरे दरबार में अपनी शिखा खोल प्रतिज्ञा की-“जब तक नन्द वंश के वंशमूल का नाश न कर लेगा, अपनी शिखा ने बांधेगा।” और सिंह जैसी चाल से चलता अपमानित महापण्डित बाहर निकल गया। संयोग ने उसे रास्ते में राज्य से निकाली, जंगल में झोपड़ी बनाकर रहने और पंखे बनाकर गुजारा करने वाली ‘मुरा सुन्दरी’ से मिलाया; वह जो गर्भ लेकर महल से निकाली गई थी। अब तक उसका पुत्र उत्पन्न हो, युवा हो रहा था। उसका नाम चन्द्रगुप्त था।
चाणक्य उससे मिला। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की भुजा शक्ति परखी। अपने पिता महानन्द के प्रति उसमें प्रतिशोध की धधकती ज्वाला को परखा। उसके हाथों नन्द वंश का नाश करवाने और उसे मगध नरेश बनाने का संकल्प साधा। अपने साथ ले गया।
पीछे से महानन्द का सेनापति शकटार भी आ मिला। आचार्य चाणक्य ने राजनीति की शिक्षा और शकटार ने युद्ध कला की दीक्षा देकर चन्द्रगुप्त को कुछ ही दिनों में कुशल योद्धा बना, महानन्द की सेना में भर्ती करवा दिया।
चन्द्रगुप्त अपने गुरु चाणक्य के संकेत पर महानन्द से ऊबी हुई सेना को बागी बना, अपने नेतृत्व में लेकर, सिकन्दर का सामना करने के लिए चल पड़ा। सिकन्दर की सेना राजा पुरू की हाथी सेना के आगे अपनी काफी तबाही को प्राप्त हो चुकी थी। चाणक्य ने अपने प्रयासों से छोटे-छोटे राज्यों को एक कर, उनकी शक्ति संगठित कर, उनकी सहायता चन्द्रगुप्त को दिला दी। संयुक्त हमलों से, विश्व विजेता का सपना सजाकर यूनान से चलने वाला सिकन्दर शरीर पर इतने जख्म खाकर भारत की धरती से भागा कि यूनान की धरती पर पहुंचने से पूर्व ही वह रास्ते में मौत के मुंह में समा गया।
चन्द्रगुप्त की शक्ति इतनी बढ़ चुकी थी कि मगध पर आक्रमण कर, महानन्द को हरा उसे बन्दी बना लेना कठिन कार्य न रहा। जंजीरों में जकड़ा महानन्द उसी काले-कलूटे, कुरूप ब्राह्मण के सामने लाकर कदमों पर डाला गया तो चन्द्रगुप्त ने तनिक भी दया न खाते हुए उसका सिर उड़ा देने का आदेश दे दिया। इस तरह मगध की गद्दी पर चन्द्रगुप्त को बिठा, नन्द वंश को मिटाने का संकल्प पूरा कर चाणक्य ने अपनी खोल रखी शिखा बांधी।
वह प्रधानमंत्री बनकर चन्द्रगुप्त को राज्य संचालन में सहायता देने लगा। उसके लिए विशाल साम्राज्य की व्यवस्था करते हुए ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ की रचना करके बताया कि राजा को कैसा होना चाहिए तथा राज्य कैसे चलाना चाहिए।
चाणक्य के बारे में चीनी यात्री फाह्यान के ये शब्द चाणक्य के व्यक्तित्व की सम्पूर्ण झलक और उस समय की राज्य-व्यवस्था का पूरा दर्पण हमारे सामने प्रस्तुत कर देते हैं-“जहां का प्रधानमंत्री साधारण कुटिया में रहता है, वहां के निवासी भव्य भवनों में निवास करते हैं, और जिस देश का प्रधानमंत्री राज प्रासादों में रहता है वहां की सामान्य जनता झोंपड़ियों में रहती है।”
आचार्य चाणक्य, विशाल राज्य के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वन में कुटिया बनाकर रहते थे। ऐसे महान् व्यक्तित्व की यह रचना आपके सामने प्रस्तुत करते हुए भारतीय साहित्य की इस अनमोल धरोहर के प्रति मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है।