दान - Donation

दान

दारिद्रयनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी।।

अध्याय पाँच-श्लोक ग्यारह

दान से दरिद्रता का, सदाचार से दुर्गति का, उत्तम बुद्धि से अज्ञान का तथा सद्भभावना से भय का नाश होता है।सम्पन्न व्यक्ति द्वारा किये गये दान की अपेक्षा अभावग्रस्त व्यक्ति द्वारा स्वयंअभावों को झेलते हुए दूसरों के सुख के लिए दान। करना अधिक महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति स्वयं कष्ट सहन करके दूसरों के कष्टों को दूर करने में संलग्न रहता है, उसका त्याग वास्तव में ही उल्लेखनीय होता है। ऐसे उदार दरिद्र के प्रति भगवान सहज ही द्रवित होकर उसका दारिद्रय यथाशीघ्र दूर करते हैं। सदाचार का परीक्षाकाल संकट होता है, संकट के उपस्थित होने पर अपने सदाचार की सुरक्षा में तत्पर व्यक्ति दूसरों की दृष्टि में निश्चित रूप से ही बहुत ऊंचा उठ जाता है। उसका महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है, लोग उसका विशेष आदर करनेलगते हैं और उसे इष्ट मित्रों का सहयोग सुलभ हो जाता है, इससे उसका संकट अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रह पाता।

जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकार एक साथ नहीं रह सकते उसी प्रकार से ज्ञान एवं अज्ञान का भी एक साथ रहना असम्भव है। यदि कोई बुद्धिमान अज्ञानी-सा व्यवहार करे तो वह बुद्धिमान नहीं रह जाता, तात्पर्य यह हुआ कि श्रेष्ठ बुद्धिजीवी का दायित्व अज्ञान का विनाश करना है, किन्तु यदि ऐसा नहीं हो पाता तो बुद्धिजीवी की सात्त्विकता संदिग्ध हो जाती है।

निःसन्देह किसी भी प्राणी में भय की आशंका का मूल अविश्वास और संदेह ही होता है, यदि परस्पर विश्वास की भावना जागृत है तो भय के लिये कोई स्थान ही शेष नहीं रहता। उदाहरण स्वरूप देखें तो सिंह आदि वन्य प्राणी भी सद्भाव के वशीभूत स्वामी-भक्त व्यवहार करते देखे गये हैं।

 

वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च ।।

अध्याय पाँच-श्लोक सोलह

जिस प्रकार समुद्र के ऊपर वर्षा व्यर्थ है, उसी प्रकार तृप्त (पेट भरे हुए) पुरुषों से भोजन का अनुरोध करना भी व्यर्थ है। जिस तरह वर्षा की उपयुक्तता मैदानों में होती है उसी तरह भूखों को ही भोजन की जरूरत होती है। जिस प्रकार दिन में, सूर्य के प्रकाश में दीपक जलाना निरर्थक है, ठीक उसी प्रकार धनसम्पन्न व्यक्ति को दान देना भी निरर्थक है। दान का महत्व अभाव पीड़ित दरिद्रों को देने में ही है।

अतः समुद्र के ऊपर वर्षा का होना, तृप्त मनुष्यों को भोजन कराना, सूर्य के प्रकाश में दीपक जलाना, और धन सम्पन्न व्यक्ति को दान देना निरर्थक है। जबकि मैदानी भाग में वर्षा का होना, भूखों को भोजन कराना, रात्रि के अन्धकार में दीपक जलाना, अभाव पीड़ितों को दान देना सर्वथा वाञ्छनीय है।

 

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् ।
तड़ागोदर-संस्थानां परिस्राव इवाम्भसाम्।।

अध्याय सात – श्लोक चौदह

जिस प्रकार पानी से भरे तालाब को बदबू और कीचड़ से बचाने के लिए उसका पानी निकालना ही एकमात्र मानव मन का ध्येय होता है, ठीक उसी प्रकार उपार्जित संचित धन को दान दे देना ही उसका सही उपयोग एवं बचाव है। लक्ष्मी चंचल है। वह कभी स्थिर नहीं रह सकती, उपार्जित धन को नष्ट होना है, यह तो निश्चित ही है। अतः नष्ट होने से पूर्व उसे दान में देकर मनुष्य को अपना लोक व परलोक सुधार लेना चाहिए।

 

वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नान्यत्र देहि क्वचित्, प्राप्तं वारिनिधेर्जलं , घनमुखे माधुर्ययुक्तं सदा।
जीवान् स्थावर जङ्गमांश्च सकलान् संजीव्य भूमण्डलम्, भूयः पश्य तदेव कोटिगुणितं गच्छन्नम्भोनिधिम् ।।

अध्याय आठ-श्लोक पाँच

यहाँ आचार्य चाणक्य कहते हैं-बुद्धिमान पुरुषों !सदैव गुणी व्यक्ति को ही दान के रूप में धन या अन्य पदार्थ देना चाहिए, गुणहीन व्यक्ति को दान नहीं देना चाहिए। अपने मन्तव्यको उन्होंने एक उदाहरण स्वरूप लिखा है-समुद्र द्वारा गुणी मेघ को दिया गया खारा जल मेघ के मुंह में जाते ही मीठा बन जाता है। और मेघ उस जल की वर्षा करके भूमण्डल के सभी जड़-चेतन को जीवन प्रदान करता है। वर्षा के रूप में मेघ द्वारा बरसाया गया जल, समुद्र द्वारा मेघ को दिये गये जल की अपेक्षा करोड़ों गुणा बढ़कर फिर उसी समुद्र में पहुँच जाता है। स्पष्ट है कि समुद्र ने गुणी मेघ को जल दान करके अपने खारे जल को मीठा बना लिया, जड़-चेतन को जीवन प्रदान करने का पुण्य अर्जित किया तथा दिये गये जल से अधिक मात्रा में पुनः जल प्राप्त कर लिया। अतः गुणी को दिया गया दान अति फलदायक होता है।

 

नाग्निहोत्रं विना वेदा न च दानं विना क्रिया।
न भावेन विना सिद्धिस्तस्माद् भावो हि कारणम्।।

अध्याय आठ-श्लोक दस

वेद-विद्या का अध्ययन भी व्यर्थ हो जाता है बिना अग्निहोत्र के अनुष्ठान की शिक्षा के। धन कमाना, दान-दक्षिणा के बिना निष्प्रयोजन है। कोई भी सिद्धि बिना श्रद्धा के प्राप्त नहीं होती। सिद्धि प्राप्त करने के लिये गुरु और साध्य वस्तु में श्रद्धा होनी अनिवार्य है।

 

दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता।
अभ्यासेन ने लभ्यन्ते चत्वारः सहजाः गुणाः ।।

अध्याय ग्यारह-श्लोक एक

अपने निरन्तर अभ्यास से मनुष्य अनेक गुणों को प्राप्त कर लेता है लेकिन अभ्यास से ही सब गुण प्राप्त नहीं होते। कुछ गुण ऐसे भी होते हैं, जो स्वाभाविक होते हैं, जैसे दानशीलता, मधुर बोलना, शौर्यता तथा पाण्डित्य-ये चार गुण ऐसे होते हैं जिन्हें अभ्यास से प्राप्त नहीं किया जा सकता, -ये किसी-किसी मनुष्य में स्वाभाविक होते हैं।

कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य में दो प्रकार के गुण होते हैं-यत्नज और सहज । जिन्हें मनुष्य अपने प्रयास द्वारा प्राप्त कर लेता है, वे यत्नज होते हैं, और जो ईश्वर द्वारा प्राप्त प्रदत्त होते हैं वे सहज अर्थात् जन्मजात कहलाते हैं। इसी प्रकार उपर्युक्त चार गुण सहज हैं उन्हें प्रयास द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।

 

आर्तेषु विप्रेषु दयान्वितश्च यच्छुद्धया स्वल्पमुपैति दानम्।
अनन्तपारं समुपैति राजन् यद्दीयते तन लभेद् द्विजेभ्य।।

अध्याय बारह – श्लोक दो

जो दयालु व्यक्ति दीन-दुखियों को दान देता है, अभाव पीड़ित ब्राह्मणों पर दया भाव करके उन्हें श्रद्धापूर्वक दान करता है, और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है उसे परमपिता परमात्मा की कृपा से अनन्त गुना अधिक मिलता है। उसके जीवन में कभी भी अर्थाभाव नहीं होता।

कहने का अर्थ यह है कि जो व्यक्ति अभाव पीड़ित ब्राह्मणों का तथा दीन- दुखियों का यथा सम्भव दान देकर सम्मान करते। हैं, ईश्वर उन्हें उससे कई गुना देता है। अतः ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दान देने में ही मनुष्य का लाभ है।

 

क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलिक्रियाः।
न क्षीयते पात्रे दानमभयं सर्वदेहिनाम्।।

अध्याय सोलह-श्लोक चौदह

इस भू-लोक पर सभी प्रकार के दान, यज्ञ, होम तथा बलि-कर्म नष्ट हो जाते हैं, परन्तु सुपात्र को दिया गया दान तथा सभी जीवों को दिया गया अभयदान न कभी व्यर्थ जाता है न नष्ट होता है। अर्थ यह है कि आत्म-कल्याण के आकांक्षी को जीवमात्र को अभय दान देने के लिए तत्पर रहना चाहिए। इसी में कल्याण है।

 

जन्मजन्म यदभ्यस्तं गेदानमध्ययनं तपः
तेनैवाभ्यासयोगेन देही चाभ्यस्यते पुनः ।।

अध्याय सोलह-श्लोक उन्नीस

जन्म-जन्मान्तर में प्राणी ने दान देने तथा शास्त्रों के अध्ययन करने का जो अभ्यास किया होता है, नया शरीर मिलने पर उसी अभ्यास के कारण वह सत्कर्मों के अनुष्ठान का अभ्यास करता है।

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