प्रणम्य शिरसा देवं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम्।
नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीति समुच्चयम्।।
अध्याय एक-श्लोक एक
मैं तीनों लोकों के स्वामी भगवान के चरणों को शीश नवाकर प्रणाम करता हूँ, तदोपरान्त मैं राजनीति के 37 सिद्धान्तों का उल्लेख जन-कल्याण के लिए करता हूँ, इनका एकत्रीकरण विभिन्न शास्त्रों से किया गया है। किसी भी शुभ कार्य को आरम्भ करने से पूर्व इष्ट देव की स्मरण-परम्परा का निर्वाह करते हुए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु हैं और कार्य साधक हैं, उनको प्रणाम!
स्व्हस्तग्रथिता माला स्वहस्तधृष्टं चन्दनम्।
स्वहस्तलिखितं स्तोत्रं शक्रस्याऽपि श्रियं हरेत्।।
अध्याय नौ-श्ल के बारह
किसी भी कार्य को करने से पहले देख लेना चाहिये कि उसका प्रतिफल क्या मिलेगा। यदि प्राप्त लाभ से बहुत अधिक परिश्रम करना पड़े तो ऐसे परिश्रम को न करना ही अच्छा है। माला गूंथने से, चंदन घिसने से या ईश्वर की स्तुति का स्वयं गान करने से ही किसी भी मनुष्य का कल्याण नहीं हो जाता है, वे कार्य तो हर कोई कर सकता है, वैसे जिनका यह व्यवसाय है उन्हें ही वैसा करना शोभा देता है।
अभिप्राय यह है कि मनुष्य को वही कार्य करना चाहिए। जो उसके लिए उचित व कम परिश्रम से अति फलदायक हो।
माता च कमलादेवी पिता देवो जनार्दनः।
बान्धवाः विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्।।
अध्याय दस-लोक चौदह
जिस व्यक्ति पर परमपिता भगवान विष्णु की कृपादृष्टि हो जाती है उसके लिए तीनों लोक अपने ही घर के समान हैं। जिस पर प्रभु का स्नेह रहता है उसके सभी कार्य स्वयं सिद्ध (सम्पन्न) हो जाते हैं। अतः लक्ष्मी जिसके लिए मातृ स्वरूप और ईश्वर के भक्त बन्धु-बान्धव हैं, उसके लिए तीनों लोक ही निवास स्थान हो जाते हैं।
का चिन्ता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते,
नो चेदर्भकजीवनाय जननीस्तन्यं कथं नि:स्सरेत्।
इत्यालोच्य मुहुर्मुर्त्यदुपते लक्ष्मीपते केवलं,
त्वत्पादाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते।।
अध्याय दस-श्लोक सतरह
जब परमपिता परमेश्वर भगवान विष्णु ही इस समस्त संसार रूपी सृष्टि का पालन-पोषण करने वाला है तो मुझे अपने जीवन में किस बात की चिन्ता है! यदि परमेश्वर जगत का पालनहार न होता तो शिशु के जन्म लेते ही माँ के स्तनों में दूध कैसे आ जाता! हे यदुपते! हे लक्ष्मीपतेः- त्रिभुवन के स्वामी आपके सृष्टि पोषक होने पर विश्वास करते हुए मैं आपके चरण कमलों की सेवा में अपना सर्वस्व जीवन समर्पित करता हूँ। मैं आपकी सेवा में सारा समय व्यतीत करता हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मेरा भी यथोचित पालन-पोषण अवश्य करेंगे।
कलेः दशसहस्राणि हरिस्त्यजति मेदिनीम्।
तदर्द्ध जाह्नवी तोयम तदर्थ ग्रामदेवताः ।।।
अध्याय ग्यारह-श्लोक चार
कलियुग में दस हजार वर्ष व्यतीत होने पर भगवान विष्णु पृथ्वी को त्याग देते हैं, पाँच हजार वर्ष व्यतीत होने पर गंगाजल पृथ्वी को छोड़ देता है, और ढाई हजार वर्ष व्यतीत होने पर ग्राम देवता ग्राम-या पृथ्वी का त्याग कर देते हैं।
येषां श्री मद्यशोदासुत-पद-कमले नास्ति भक्तिर्नराणाम्,
येषामाभीरकन्या-प्रियगुण-कथने नाऽनुरक्ता रसज्ञा।
येषां श्रीकृष्णलीला ललितरसकथा सादरौ नैव कणों,
धिक्ताधिक्ता धिगेतान्कथयति सततं कीर्तनस्थो मृदंगः ।।
अध्याय बारह–श्लोक पाँच
चाणक्य कहते हैं मनुष्य योनि में जन्म लेने के पश्चात् भी जिसका भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनुराग नहीं, जिसको श्री राधाजी और श्रीकृष्ण व गोपियों के गुणगान में आनन्द नहीं आता, भगवान श्रीकृष्ण की कथा का श्रवण करने के लिए जिसके कान सदा उत्सुक नहीं रहते, कीर्तन में बजाया जाने वाला मृदंग (तबला) भी उन्हें फटकारता रहता है। जड़ वस्तु रूपी मृदंग भी उन्हें धिक्कार है-धिक्कार है, इस प्रकार (धिक्तान-धिक्तान) फटकारता है, क्योंकि वह भी जीवन की वास्तविक उपयोगिता को भली प्रकार समझता है।
निमन्त्रणोत्सवा विप्रा गावो नवतृणोत्सवाः।
पत्युत्सवयुताः भार्या अहं कृष्णचरणोत्सवः ।।
अध्याय बारह-श्लोक तेरह
ब्राह्मण के लिए सम्पन्न व श्रद्धालु से निमन्त्रण पाना ही उत्सव अर्थात प्रसन्नता का विषय और उनके लिए शुभ अवसर होता है। ताजी हरी घास को अच्छी मात्रा में मिल जाना गाय के लिये शुभ अवसर है। अपने पति की प्रसन्नता ही गृहणी के लिए उत्सव अर्थात् सौभाग्य है। परन्तु सच्चे सन्त के लिए तो श्रीकृष्ण भगवान के चरणों में अनराग (प्रेम) ही उत्सव होता है।
मातृवत् परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पण्डितः॥
अध्याय बारह-श्लोक चौदह
जो व्यक्ति परम पिता परमात्मा में ही जड़-चेतन, सुख-दुःख और लाभ हानि का दर्शन करते हैं, ऐसा दिव्य दृष्टि प्राप्त व्यक्ति दूसरों की स्त्रियों को माता के समान, किसी अन्य के धन को मिट्टी के समान और हर प्राणी को अपने समान देखते व समझते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि सच्चे अर्थों में ऐसे व्यक्ति ही महान् कहलाते हैं।
धर्म तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता,
मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽतिगम्भीरता।
आचारे शुचिता गणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञानता,
रूपे सुन्दरता शिवे भजनता त्वय्यस्ति भो राघव।।
अध्याय बारह-श्लोक पन्द्रह
राम भक्त के विचारानुसार भगवान श्रीरामचन्द्र को गुरुदेव महर्षि वशिष्ठ के शब्दों में पुरुषोत्तम इसलिये कहा गया है कि निम्नोक्त सभी दिव्य गुण अपने समग्र और उत्कृष्ट रूप से एकमात्र उनके अन्दर ही मिलते हैं। इसी कारण से उन्हें पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भी कहा गया है। वे दिव्य गुण हैं:
धर्म परायणता, मधुर वाणी, दानशीलता, निकटतम मित्रों के प्रति उदार हृदय, गुरु के प्रति पूज्य भाव, अन्तःकरण में समुद्र की सी गम्भीरता, आचार-व्यवहार में पवित्रता, गुणों के प्रति आग्रह (अर्थात् गुणी व्यक्ति का यथोचित आदर और गुण ग्रहण में रुचि), शास्त्रों में निपुणता (पूर्व ज्ञान, शास्त्र ज्ञान), रूप में मोहकता (सुन्दरता), और भगवान शिव में निष्ठापूर्ण (विश्वास रखने वाला) भक्तिभाव रखने वाला।
कहने का अर्थ यह है कि उपरोक्त गुणों से शोभित होने के कारण ही राजा दशरथ के पुत्र राम-मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहलाये।
काष्ठं कल्पतरुः सुमेरुरचलचिन्तामणिः प्रस्तरः,
सूर्यस्तीव्रकरः शशी क्षयकरः क्षारो हि वारानिधिः।
कामो नष्टतनबलिर्दितिसुतो नित्यं पशुः कामगौः,
नैवांस्ते तुलयामि भो रघुपते! कस्योपमा दीयते ।।
अध्याय बारह-श्लोक सोलह
परमपिता परमात्मा सर्वगुण सम्पन्न, सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञाता हैं, उनकी तुलना किससे कि जा सकती है। हे राघवेन्द्र इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जिससे आपकी तुलना की जा सके। इस कारण आप सर्वथा अनुपम और अद्वितीय हैं।
उदाहरणार्थ-कल्पवृक्ष लकड़ी का है, सुमेरु पर्वत है, चिंतामणि पत्थर है, सूर्य की किरणें बहुत अधिक तीखी व जलाने वाली हैं, चन्द्रमा क्षीण होने वाला है, समुद्र खारे जल वाला है, कामदेव का शरीर ही नहीं है। बलि दैत्य वंश से सम्बद्ध है और कामधेनु पशु रूप है, तब आपकी तुलना किससे की जाये। आपके समान तो कोई भी नहीं।
कहने का अर्थ यह है कि आपको कल्पवृक्ष के समान दानी, पर्वत के समान विशाल, चिन्तामणि के समान कान्तिमान, सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान दर्शनीय, समुद्र के समान गम्भीर, कामदेव के समान सुन्दर, बलि के समान दानवीर, कामधेनु के समान अभीष्ट पूरा करने वाला नहीं कहा जा सकता। भला काट, पत्थर, खारेपन, आग और पशु आदि से आपकी तुलना किस प्रकार की जा सकती है। आप तो इन सबसे महान् हैं।
त्यज दुर्जनसंसर्गम् भज साधु-समागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनियतः।।
अध्याय चौदह-श्लोक बीस
मनुष्य को दुर्जनों से मित्रता छोड़कर साधु स्वभाव के लोगों का सत्संग करना चाहिए। रात-दिन, शुभ कार्य करते हुए व्यतीत करने चाहिएं और संसार के भोगों (मोह-माया) को क्षणभंगुर मानकर नित्यप्रति आनन्द देने वाले प्रभु का चिन्तन (भजन, उपासना) करना चाहिए।
कहने का अर्थ यह है कि दुर्जनों की संगत दुःखदायी होती है, उसे छोड़कर साधु की संगत करनी चाहिए। मोह-माया त्यागकर सद्कर्म करते हुए ईश्वर-उपासना में लीन रहने वाले व्यक्ति का ही आत्म-कल्याण सम्भव है।
उर्व्या कोऽपि महीधरो लघुतरो दोभ्यां धृतो लीलया,
तेन त्वं दिवि भूतले च सततं गोवर्धन गीयसे।
त्वां त्रैलोक्यधरं वहामि कुचयोरग्रेण तद्गण्यते,
किं वा केशव भाषणेन बहुना पुण्यैर्यशो लभ्यते।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक उन्नीस
गोपी श्रीकृष्ण से कहती है-श्रीकृष्ण! तुमने एक बार गोवर्द्धन पर्वत को क्या उठाया कि इस लोक में ही नहीं, अपितु स्वर्ग लोक में भी तुम गोवर्द्धन गिरधारी के नाम से प्रसिद्ध हो गये, परन्तु तीनों लोकों को धारण करने वाले त्रिलोकधारी! मैं तुम्हें हर समय अपने हृदय में धारण करती हूँ, तुम ही मेरे हृदय में विराजते हो। इस पर भी आश्चर्य है कि तुम्हारे जैसे समर्थ त्रिलोकधारी को धारण करने पर भी हमारी कहीं कोई गणना नहीं करता, हमें कोई भी त्रिलोकधारी जैसी पदवी से अलंकृत नहीं करता।
संसार की इस प्रवृत्ति से खिन्न गोपी अपने मन को समझाने के लिए कहती है-वास्तव में इसमें किसी का कोई दोष नहीं। यश तो भाग्य से ही मिलता है। जब मेरे भाग्य में कुछ लिखा ही नहीं तो मिलेगा कहाँ से।
न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसार-विच्छित्तये,
स्वर्गद्वारकपाटपाटन-पटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः।
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नलिङ्गितम्,
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठाराः वयम्॥
अध्याय सोलह-श्लोक एक
ऐसे पुत्रों को जन्म देना सर्वथा निरर्थक है, जिन्होंने इस संसार में जन्म लेने के बाद भी अपने उद्धार के लिए श्री नारायणदेव के चरणों का आराधन नहीं किया, स्वर्गलोक के पट खोलने में समर्थ धर्म का संग्रह भी नहीं किया और यथार्थ जीवन में तो क्या, स्वप्न में भी किसी रमणी के आलिंगन का सुख नहीं पाया, अर्थात् न तो इस लोक में सुख भोगे और न ही परलोक के लिए कुछ किया, ऐसे लोगों का जन्म तो माँ के जवानी रूपी जंगल को काटने के लिये कुल्हाड़े के समान ही हुआ। ऐसे पुत्रों को जन्म देकर माँ भी अपना यौवन व्यर्थ ही गंवाती है।
कहने का अभिप्रायः यह है कि इस संसार में उत्पन्न व्यक्ति को इस भू-लोक के सुख उठाते हुए अपना परलोक सुधारने के लिए धर्म-कर्म में लिप्त रहना चाहिए। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।