प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।
सागराः भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः।।
अध्याय तीन-श्लोक छह
मर्यादा पालन के लिए सागर आदर्श माना जाता है। वर्षाकाल में उफनती असंख्य नदियों को अपने में समेटते हुए भी सागर अपनी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता, परन्तु प्रलय आने पर सागर का जल तटबन्धों को तोड़कर समस्त धरती को जलमग्न कर देता है। इससे यह सिद्ध होता है कि सागर भी प्रलय काल में अपनी मर्यादा में नहीं रह पाता, परन्तु सद्पुरुष सागर से भी महान् होते हैं। जो प्राणों का संकट या भयंकर विपत्ति के समय भी अपनी सज्जनता (मर्यादा) का त्याग नहीं करते, स्वार्थ पूर्ति के लिये मनमाना व्यवहार नहीं करते । इसीलिए सद्पुरुष (साधु) समुद्र से भी अधिक विशाल हृदय व गम्भीर होने के कारण महान् कहे जाते हैं।
मूर्खस्तु परिहर्त्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः।
भिद्यते वाक्यशल्येन तादृशं कण्टकं यथा।।
अध्याय तीन-श्लोक सात
मन्द बुद्धि (मूर्ख) व्यक्ति दो पैरों वाला होते हुए भी वास्तविक जीवन में पशु समान है। जिस तरह से पशु बुद्धिहीन होता है अर्थात् उसे उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं होता, उसी तरह मूर्ख को भी करने-कहने योग्य उचित बात का ज्ञान नहीं होता । उदाहरणार्थ जिस तरह पैर के अन्दर धंसा कांटा दिखायी न देने पर भी पीड़ा पहुँचाता रहता है, उसी तरह मूर्ख व्यक्ति भी अपनी गन्दी आदतों से सम्पर्क में आने वाले लोगों को दुःखी और परेशान ही करता है। इसलिए किसी भी मन्दबुद्धि का साथ न करके उसका परित्याग करना ही अच्छा है।
अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेण रावणः।
अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्।।
अध्याय तीन-श्लोक बारह
प्रत्येक अच्छी-बुरी वस्तु अपनी सीमा में ही शोभा देती है। जहाँ अति हो जाती है, वहाँ उसे दुर्गति का शिकार होना पड़ता है। आचार्य चाणक्य का कथन है कि अति का तो सभी – स्थानों पर परित्याग कर देना चाहिए। अच्छी बातें, अच्छे गुण भी विपत्ति का कारण बन जाते हैं, यदि उनमें अति हो जाये ।अत्याधिक दानशीलता के कारण राजा बलि को बन्ध में बन्धना पड़ा और अत्यधिक अहंकार के कारण ही रावण का वध हुआ।
अभिप्राय यह है कि किसी भी कार्य या वस्तु में अत्याधिकता न करें। अन्यथा हानि उठानी पड़ सकती है।
आयु कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।
पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः॥
अध्याय चार-श्लोक एक
आचार्य चाणक्य मानव जीवन में आने वाले सच से आगाह करते हुए लिखते हैं कि मानव जीवन में सब कुछ पूर्व निर्धारित होता है इसीलिए मनुष्य को अनावश्यक भटकना व परेशान होना निरर्थक ही है, क्योंकि इससे कोई समस्या हल नहीं होती। वह बताते हैं कि मनुष्य को माँ के गर्भ में आना ही सब कुछ निर्धारण के साथ होता है। उसका जीवन, मरण, समय प्रकार, सुख-दुःख, अच्छा-बुरा एवं यश-अपयश सब कुछ ईश्वर द्वारा ही पूर्व निर्धारित होता है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मानव को अनावश्यक चिन्तित नहीं होना चाहिए। अर्थात् उसे फल कामना से रहित कर्म पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि कर्म करने पर ईश्वर द्वारा फल मिलना तो तप है।
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्।।
अध्याय चार-श्लोक पन्द्रह
स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन जिस प्रकार बदहजमी की अवस्था में लाभ के स्थान पर हानि ही पहुँचाता है और विष का काम करता है। इस अवस्था का किया गया सुस्वादु भोजन व्यक्ति के लिए प्राणलेवा भी हो सकता है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास न रखने से शास्त्रज्ञान भी मनुष्य के लिए घातक विष के समान हो सकता है। वैसे तो वह पण्डित होता है, किन्तु अभ्यास के अभाव में वह शास्त्र का भली प्रकार विश्लेषण व विवेचन कर पाने में अक्षम होता है और इस अवस्था में उसको उपहास का पात्र यदि बनना पड़े तो स्वाभाविक होगा, यह भी सत्य है कि सम्मानित व्यक्ति को अपना अपमान मृत्यु से भी अधिक कष्टकारी होता है।
निर्धन व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार की सभायें विष के समान हैं। गोष्ठियों में तो धनवान व्यक्ति ही जा सकते हैं। यदि कोई निर्धन व्यक्ति ऐसे सभा स्थलों में भूल से भी चला जाये अथवा वह सभाओं में जाने की धृष्टता करता है तो यह उसकी मूर्खता ही होगी, क्योंकि उसे ऐसी सभाओं से सदैव अपमानित होकर ही निकलना पड़ता है, अतः दरिद्र व्यक्ति के लिए सभाओं, गोष्ठियों, खेलों व मेले-ठेलों में जाना विष के प्रभाव के समान ही होता है। वृद्ध पुरुष यदि किसी युवा कन्या से विवाह कर लेता है, तो उसका जीवन मरण के समान हो जाता है। कहा जाता है कि स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा आठ गुना अधिक काम-वासना होती है। जब वृद्ध पति से पत्नी की संतुष्टि नहीं होती है तो वह गुप्त रूप से किसी युवक से प्रेम करने लगती है। यदि स्त्री गलत मार्ग पर चल पड़े तो अपनी यौन तृप्ति के लिए वह कुछ भी कर सकती है और किसी भी हद तक जा सकती है, इसीलिए वृद्ध पुरुष को तरुणी से विवाह करके अपने जीवन को नरकमय नहीं बनाना चाहिए। अतः आचार्य चाणक्य का संदेश है कि ऐसा करने पर वृद्धावस्था में अपमान के साथ-साथ अन्य बहुत से कष्टों का सामना करना पड़ सकता है। आचार्य चाणक्य का कथन अभिप्राय यही है कि विवेचना का अभ्यास न होने पर शास्त्र की चर्चा नहीं करनी चाहिए, अजीर्ण अथवा अपच की अवस्था में भोजन नहीं करना चाहिए, दरिद्र व्यक्ति को सभाओं एवं पार्टियों में नहीं जाना चाहिए, तथा वृद्धों को युवा स्त्रियों से विवाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे उनका शरीर ही क्षीण होगा।
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णाना ब्राह्मणो गुरुः।
पतिदेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ।।
अध्याय पांच-श्लोक एक
द्विजातियों ब्राह्मण और क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों का गुरु अर्थात् पूजनीय इष्टदेव अग्नि है। ब्राह्मण सभी वर्णों -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का गुरु है, किन्तु स्त्रियों का गुरु अर्थात् पथ-प्रदर्शक उनका पति होता है। स्त्रियों के लिए अपने पति को छोड़कर किसी साधू-बाबा अथवा महात्मा को गुरु बनाना नितान्त निषेध है। यही सत्य है कि अतिथि भी सभी का पूजनीय होता है।
आलस्योपगता विद्या परहस्तगतं धनम्।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम्।।
अध्याये पांच-श्लोक सात
आलस्य मनुष्य स्वभाव का बहुत बड़ा दुर्गुण है। आलस्य के कारण प्राप्त की गई विद्या भी अभ्यास के अभाव में नष्ट हो जाती है। दूसरे के हाथ में गया हुआ धन कभी वापस नहीं आता। बीज अच्छा न हो तो फसल भी अच्छी नहीं होती और थोड़ा बीज डालने से तो खेत भी उजड़ जाते हैं। सेनापति कुशल न हो तो सेना भी नष्ट हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि विद्या के लिये परिश्रम वाञ्छनीय है। धन वही है, जो अपने अधिकार में है। फसल तब ही अच्छी होगी जब खेत में बीज उत्तम व उचित मात्रा में डाला जायेगा। और सेना वही जीतती है जिसका सञ्चालन कुशल सेनापति करता है।
अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते।।
अभ्यास पाच-श्लोक आठ
शील के संरक्षण से कुल (परिवार) का नाम उज्ज्वल होता है। लगातार अभ्यास करते रहने से विद्या की रक्षा होती है। गुणों के धारण करने से श्रेष्ठता का प्रचार होता है तथा नेत्रों से क्रोध की जानकारी मिल जाती है। अतः विध और अभ्यास का, कुल और शील का, गुण और श्रेष्ठता का तथा कोप और दृष्टि का, चोली-दामन का साथ है। यानी दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। .
अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्राचारमन्यथा।
अन्यथा वदतः शान्तान् लोका क्लिश्यन्ति चाऽन्यथा।।
अध्याय पांच-श्लोक दस
वेद के ज्ञान की गहराई न समझकर वेद की निन्दा करने वाले वेद की महानता को कम नहीं कर सकते। शास्त्र निहित आचार-व्यवहार को व्यर्थ बताने वाले अल्पज्ञ लोग शास्त्रों की उपयोगिता को नष्ट नहीं कर सकते। शान्त, सज्जन व्यक्ति को दुर्बल कहने वाले दुर्जनों का प्रयत्न भी निरर्थक हो जाता है। किसी की झूठी निन्दा करने से निन्दा करने वाले का अपना ही नाश होता है। – अभिप्राय यह है कि वेदों के तत्त्वज्ञान पर, शास्त्रों के विधान पर और सद्पुरुषों के उत्तम आचरण पर श्रद्धा और = सम्मान का भाव रखना चाहिए, इसी से मानव जन्म सार्थक होता है।
नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः।
नास्ति कोपसमो वह्विर्नास्ति ज्ञानात्परं सुखम् ।।
अध्याय पांच-श्लोक बारह
काम वासना से रहित व्यक्ति रोग रहित नहीं रह सकता, कामान्धता स्वयं एक रोग है। अधिक मोह भी मनुष्य को कमजोर बना देता है। ममता अच्छा गुण है। मगर मोह उससे अलग है। बुद्धिपूर्वक प्रेम करना अच्छा है। मोह तो अज्ञानतावश होता है। क्रोध की आग में क्रोधी व्यक्ति ही भस्म होता है। आत्मज्ञान से बढ़कर इस संसार में कोई दूसरा सुख नहीं। सत्यज्ञान द्वारा ही मनुष्य अज्ञानता द्वारा उत्पन्न द:खों को दूर करने का उपाय कर सकता है।
अतः काम एक असाध्य रोग है, मोह अजेय शत्रु है – क्रोध अग्नि के समान दाहक है तथा आत्मज्ञान परम सुख है।
जन्ममृत्यू हि यात्येको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम्।
नरकेषु पतत्येकः एको याति परां गतिम।।
अध्याय पांच-श्लोक तेरह
संगठन में शक्ति निहित है, किन्तु सभी कार्य संगठन से ही पूरे नहीं होते, अपने व्यक्तिगत गुणों का विकास मनुष्य को अपने ही बल पर करना होता है। मनुष्य जन्म भी अकेला ही लेता है। मृत्यु का वरण भी अकेला ही करता है। अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल भी स्वयं ही भोगता है। नारकीय कष्टों को भी अपने कर्मफलानुसार अकेला ही भोगता है और मोक्ष की प्राप्ति भी अपने सत्कर्मों के अनुसार अकेला ही पाता है। इन कार्यों में उसके बन्धु-बान्धव व साथी भागीदार नहीं बनते।
यहाँ आचार्य चाणक्य ने यह भाव व्यक्त किया है कि जैसे कर्म मनुष्य करता है वैसे ही फल कर्मानुसार अकेला प्राप्त करता है। अतः सत्कर्म ही करना हितकर है।
तृण ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम्।
जिताशस्य तृणं नारी नि:स्पृहस्य तृणं जगत्।।
अध्याय पांच-श्लोक चौदह
ब्रह्मज्ञानी के लिए स्वर्ग तुच्छ है, शूरवीर के लिए जीवन नगण्य है। इन्द्रियों को वश में रखने वाले के लिए नारी महत्त्वहीन है। उसे सुन्दरी का रूप लावण्य न तो मोहित करता है ना ही लालायित । जितेन्द्रिय के लिये खुबसूरत नारी के तथाकथित रूप-लावण्य से भरपूर अंग माँसपिण्ड के अलावा कुछ नहीं, इसीलिए उसको स्त्री भी अन्य साधारण वस्तुओं के समान उपेक्षित है। योगी किसी भी पदार्थ की लालसा न रखने वाले के लिये अनन्त सुन्दर निधियों से भरा यह संसार तिनके के समान तुच्छ है, क्योंकि योगी को इस संसार का कोई पदार्थ न तो मोहित कर सकता है और न ही वह किसी भी पदार्थ को महत्त्व ही देता है। अतः ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग, शूरवीर के लिये जीवन, इन्द्रियों को वश में रखने वाले के लिए नारी, जितेन्द्रिय के लिए खूबसूरत रमणी का सुन्दर शरीर, योगी के लिए यह संसार तुच्छ (महत्त्वहीन) है।
नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम्।
नास्ति चक्षु:समं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम्।।
अध्याय पांच-श्लोक सत्तरह
बादलों से बरसे जल के समान गुणकारी जल, मनुष्यकृत प्रयत्नों से प्राप्त जल नहीं हो सकता। आत्मबल अन्य शारीरिक शक्ति से अधिक बलशाली होता है। अपनी आँखों की ज्योति सब ज्योतियों से अधिक सुखप्रद होती है। अन्न के समान कोई दूसरा भोजन नहीं होता। अन्य किसी भी खाद्य पदार्थ से वह पोषण व शक्ति नहीं मिल सकती जो अन्न द्वारा बने भोजन में होती है।
सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वाति वायुश्च सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ।।
अध्याय पांच-श्लोक उन्नीस
सत्य ही सब चराचर जगत् का आधार है। नित्य सत्य नियमों पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। पृथ्वी के सब कार्य कलाप सूर्य का उदय होना, अस्त होना, वायु का नियम पूर्वक चलना प्राणियों को सांस लेने का आधार देना आदि सभी प्राकृति कार्य शाश्वत सत्य नियमों के अनुसार स्वयं चल रहे हैं। स्ट में ही सबकी प्रतिष्ठा है। सत्य ही ईश्वर है। अतः यदि मनुष्य सत्य की रक्षा नहीं करेगा तो उसका कल्याण नहीं हो पायेगा।
श्रुत्वा धर्म विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्।।
अध्याय छह-श्लोक एक
मनुष्य के समस्त ज्ञान का आधार श्रवण (सुनना) है। वेदादि शास्त्रों का श्रवण करके ही साधक अपने कर्तव्य का निश्चय करता है। विद्वानों के प्रवचन सुनकर ही मनुष्य अपने मूर्खतापूर्ण व्यवहार का त्याग करता है। गुरुजन से श्रवण करके ही साधक शिष्य संसार के जाल-जंजाल से मुक्त होने का उपाय जानता है। यानी मोक्ष प्राप्ति का साधन करता है।
यहाँ चाणक्य कहते हैं कि शास्त्रों के श्रवण का मानव जीवन में सुबुद्धि लाने के लिये विशिष्ट महत्त्व एवं उपयोग है। अतः मनुष्य को शास्त्रों के श्रवण के लिए उत्सुकतापूर्वक प्रवृत्त होना चाहिए।
तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः।
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता।।
अध्याय छह-श्लोक छह
अपने कर्मों का फल भोगते हुए मनुष्य को भाग्यानुसार जो प्राप्त होता है, उसी के अनुसार उसकी बुद्धि बन जाती है। उसके सहायक भी वैसी ही सलाह देते हैं। सभी परिस्थितियां निर्धारित भविष्य के अनुकूल बन जाती हैं। जो भाग्य में लिखा है, वही होकर रहता है, लेकिन भाग्य भी पुरुषार्थ बदलता रहता है। अतः पुरुषार्थ करना ही हितकर है।
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः, सुप्तेषु जागर्ति कालो दुरतिक्रमः॥
अध्याय छह-श्लोक सात
इस संसार में काल सबसे अधिक बलवान् (शक्तिशाली) है, उसका कोई भी व्यक्ति अतिक्रमण नहीं कर सकता। काल ही समस्त प्राणियों को क्षीण, दुर्बल और जीर्ण करता है। काल ही जीवों का संहार करता है। सबके निद्रामग्न हो जाने के बाद भी काल जागता रहता है, अर्थात् कालचक्र दिन-रात चलता ही रहता है। क्रान्तदर्शी कवि उसके सञ्चालक बनकर सिद्धि प्राप्त करते हैं।
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।
स्वयं ब्रमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते।।
अध्याय छह-श्लोक नौ
हर प्राणी की आत्मा, जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है-प्राणी स्वयं ही करता है, और उसका फल भोगता है। स्वयं सब योनियों में भटकता है और यदि सौभाग्य से उसके ज्ञान चक्षु खुल जायें तो अपने ही पुरुषार्थ से अपने पागलपन के दौर से उबरकर विवेक के पथ पर आ जाता है, मगर यह भी वह स्वयं की त्याग तपस्या से कर सकता है।
जीव कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र होते हुए भी फल भोगने में परतन्त्र है, जीव चाहे तो अशुभ कर्मों को करके स्वयं को संसार के बन्धन में बांधे और चाहे तो शुद्ध पवित्र आचरण करके मुक्त कर ले। इस प्रकार कर्मानुसार जीव की उन्नति-अवनति में उसका अपना ही हाथ होता है।
यत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसा-स्तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।
न हंसतुल्यैर्हि नरैर्भाव्यम्, पुनस्त्यजन्तः पुनराश्रयन्ते।।
अध्याय सात-श्लोक तेरह
जलाशय में जल भरा होने पर ही हंस वहाँ निवास करते हैं। जल सूख जाने पर वे उस जलाशय को छोड़कर अन्यत्र किसी जलाशय पर चले जाते हैं। फिर वर्षा काल में जल भर जाने पर उसी जलाशय पर लौट आते हैं। इस प्रकार वे जलाशय को छोड़ते व पुनः उसका आश्रय ग्रहण करते रहते हैं।
यहाँ आचार्य चाणक्य का यही कहना है कि मनुष्य को हंसों के समान इतना स्वार्थी नहीं होना चाहिए कि वह केवल स्वार्थ-सिद्ध होने पर ही उस स्थान पर निवास करें, बाद में छोड़ दें। यदि एक बार किसी स्थान को छोड़ भी दिया तो कभी वहाँ नहीं लौटना चाहिए। अपने आश्रयदाता को छोड़ना व छोड़कर फिर अपनाना मानवता के लक्षण नहीं।
वाचा शौचं च मनसः शौचमिन्द्रयनिग्रहः। सर्वभूतदयाशौचमेतच्छौचं परार्थिनाम्॥
अध्याय सात-श्लोक उन्नीस
पवित्रता अनेक प्रकार की होती है। सामान्यतया जल से शरीर और वस्त्रों की पवित्रता को ही पवित्रता का प्रयोजन माना जाता है, किन्तु परमार्थ में लगे सन्तों, सद्पुरुषों की पवित्रता मन एवं वाणी की पवित्रता भी होती है। संयम से इन्द्रियों की पवित्रता होती है। सब प्राणियों के प्रति दया भाव रखने से आत्मा पवित्र होती है। त्याग व तपस्या से मन पवित्र होता है।
यहाँ आचार्य चाणक्य का भाव यह है कि किसी भी पवित्रता का मानव जीवन में तब तक कोई महत्त्व नहीं है, जब तक वह जीव मात्र के प्रति दया (अहिंसा) की भावना को नहीं अपनाता। परोपकार ही सच्ची पवित्रता है। परोपकार की भावना को अपनाये बिना मन, वाणी और इन्द्रियां पवित्र हो ही नहीं सकतीं।
पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठे अग्निः पयसि घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मानं विवेकतः।।
अध्याय सात-श्लोक बीस
किसी भी मनुष्य को शरीर के बाह्य सौन्दर्य को ही जानना और उसे पवित्र रखना ही मनुष्य का पहला धर्म है। जैसे फूल में सुगन्ध, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, दूध में घी, ईख में गुड़ रहता है, वैसे ही आत्मा मनुष्य के हृदय में वास करती है। उसे जानकर ही अपने स्वरूप को जाना जा सकता है।
यहाँ आचार्य जी का कहना है कि जिस प्रकार पुष्प में गन्ध, तिल में तेल, लकड़ी में आग, दूध में घी और गन्ने मैं गुड़ दिखाई न देने पर भी विद्यमान है, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में अदृश्य आत्मा का निवास है। इस रहस्य को मनुष्य स्वविवेक से ही समझ सकता है।
इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम्।
भक्षयित्वाऽपि कर्तव्याः स्नानदानादिकाः क्रियाः॥
अध्याय आठ-श्लोक इक्कीस
गन्ना और गन्ने का रस, पानी, दूध, जड़ी-बूटी, पान, फल तथा औषध का सेवन करने के उपरान्त सन्ध्या -पूजन, दान-तर्पणादि नित्यकर्म कर लेने चाहिएं, अर्थात् इनके सेवन करने से किसी व्यक्ति का मुंह जूठा नहीं हो जाता। और उसे शुद्ध कर्मों के अनुष्ठान के लिए स्नान आदि से अपने को शुद्ध पवित्र नहीं करना पड़ता।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि कोई रोगी-बेचैन, तृषा पीड़ित या क्षुधाग्रस्त है तो उसे स्नान, सन्ध्योपासन से पूर्व औषध, दुग्ध, जल तथा फल आदि के सेवन करने की मनाही नहीं है। इनके सेवन के उपरान्त भी यदि वह स्नानादि नहीं करता है तो वह पापकर्म का भागी नहीं। हमारे शास्त्र भी दुःखी प्राणी को इस प्रकार सन्ध्योपासना की सुविधा प्रदान करते हैं।
शान्तितुल्यं तपो नास्ति ने सन्तोषात् परम. सुखम्।
न तृष्णायाः परा व्याधिर्न च धर्मो दयया परः।।
अध्याय आठ-श्लोक तेरह
मन का संयम अर्थात् शान्ति और स्थिर भाव के समान कोई दूसरा तप नहीं, सन्तोष जैसा कोई सुख नहीं, तृष्णा जैसा दुःख देने वाला और कोई भयंकर रोग नहीं तथा दया जैसा स्वच्छ और अच्छा दूसरा कोई धर्म नहीं। अतः सुख के इच्छुक व्यक्ति को तृष्णा से बचना चाहिए तथा सफलतम् जीवन में शान्ति, सन्तोष और दया को अपनाना चाहिए। इसी में महानता है।
मुक्तिमिच्छसि चेतात ! विषयान् विषवत् त्यज।
क्षमार्जवदयाशौचं सत्यं पीयूषवत् पिब ।।
अध्याय नौ-श्लोक एक
यदि जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना चाहते हो तो सर्वप्रथम काम-क्रोधादि विषयों को विष समान घातक और हानिकारक समझकर तत्काल छोड़ दो तथा दूसरे के दोषों – की उपेक्षा और उनके द्वारा किये गये अपकार को सहन करते हुए सरलता, छल, कपट को छोड़कर मन, वचन तथा कर्म से एकरूप होना, दया-दूसरों के दुःखों को दूर करने की चेष्टा करना तथा पवित्रता-किसी का भी अहित-चिन्तन न करना आदि गुणों को अमृत के समान उपयोगी मानकर इन्हें गृहण करो। अर्थात् विषयों के त्याग और सहिष्णुता, सरलता, दयालुता तथा पवित्रता आदि गुणों को अपनाने से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मानव को दुर्गुणों का परित्याग – करके गुणों, सहनशीलता, दया, क्षमा व शुद्धि आदि को अपनाना चाहिए।
गन्धः – सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे, नाकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य।
विद्वान् धनाढ्यश्च नृपश्चिरायुः, धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत्।।
अध्याय नौ-श्लोक तीन
ईश्वर ने सोने में सुगन्ध नहीं डाली, गन्ने के फल नहीं लगाये, चन्दन के वृक्ष को फूलों से नहीं सजाया, ब्राह्मण को धन-सम्पत्ति नहीं दी, राजा को दीर्घायु नहीं बनाया। उसके इस कार्य में छुपा रहस्य यह है कि इन सब चीजों के अभाव में भी ये पदार्थ या ये मनुष्य पर्याप्त यशस्वी और उपयोगी होते हैं। इससे अधिक गुणकारी होते तो उनका अभिमान बहुत बढ़ जाता और उनका’ अभिमान ही उनके पतन का कारण होता। इसीलिए उनके विनयशील बने रहने के लिए यह अभाव अत्यावश्यक था।
सर्वोषधीनाममृता प्रधाना, सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्।
सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधान, सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम।।
अध्याय नौ-श्लोक चार
सभी औषधियों में रसायन गिलोय सबसे अच्छा है सुखों में सबसे श्रेष्ठ सुख भोजन पाना है, ज्ञानेन्द्रियों में आँख प्रधान है, शरीर के सभी अंगों में सिर सर्वश्रेष्ठ होता। शिरोभाग में ही समस्त ज्ञानेन्द्रिय होती हैं।
आयुर्वेद में गिलोय रसायन सभी रोगों को जड़ से समाप्त करने वाली औषधि होने से सर्वश्रेष्ठ माना गया है। वह अमृततुल्य होती है। भोजन के बिना मनुष्य का पेट नहीं भरता और जीवन नहीं चलता। इसीलिए भोजन ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। आँखों के बिना संसार अन्धकारपूर्ण है और दूसरी सभी इन्द्रियां निष्फल हैं, इसी प्रकार चिन्तन का कार्य करने वाला और दूसरे अंगों को यथोचित करने का निर्देश देने वाला सिर शरीर के दूसरे सभी अंगों से सर्वश्रेष्ठ होता है।
दूतो न सञ्चरति खे न चलेच्च वार्ता, पूर्व न जल्पितमिदं न च सङ्गमोऽस्ति।
व्योनि स्थितं रविशशिग्रहण प्रशस्त, जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान्।।
अध्याय नौ-श्लोक पाच
आकाश में बातचीत भी सुविधापूर्वक नहीं हो सकती, वहा सन्देशवाहक का आना-जाना भी असम्भव बात है, जिससे कि बातचीत करके वहाँ के रहस्य को जाना जा सके। अन्तरिक्ष के कार्य-कलाप के विषय में ज्ञान पाना साधारण मनुष्य के लिए कठिन ही है, फिर भी कुछ विद्वानों (खगोलशास्त्री ने सूर्य ग्रह व चन्द्र ग्रहण के कारण का ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
ऐसे विद्वान ही प्रतिभाशाली होते हैं। उन्हें दिव्य दृष्टि वाले विद्वान भला कैसे न माना जाये। पृथ्वी पर रहते हुए आकाश के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करना यानी वहाँ के रहस्यों (गृह-नक्षत्रों) की जानकारी विद्वता का ही सबूत है।
अर्थाधीतांश्च यैर्वेव्त्य ये शूद्रान्नभोजिनः।
ते द्विजः किं करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः ।।
अध्याय नौ-श्लोक आठ
जिस प्रकार विषहीन सर्प किसी को डसकर हानि नहीं पहुँचा सकता, उसी प्रकार जिस किसी ब्राह्मण ने अर्थोपार्जन के लिए वेदाध्ययन किया है, वह कोई भी उपयोगी कार्य नहीं कर सकता। उसका वेदों का किया गया अध्ययन व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि वेदाध्ययन का सम्बन्ध अर्थोपार्जन से नहीं है, और जो विद्वान ब्राह्मण वृत्ति के लोग असंस्कारी, अनपढ़, शूद्र जाति के साथ भोजन करते हैं, उन्हें भी समाज में यश नहीं मिल पाता है। न ही उनमें ब्रह्मतेज रहता है और न ही उनके शाप-वरदान में शक्ति रह पाती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि अपनी विद्वता को बनाये रखने के लिए किसी भी ब्राह्मण को न तो अपना ज्ञान बेचना चाहिए, और न ही किसी शुद्र जाति के हाथ का भोजन ग्रहण करना चाहिये।
प्रातर्धूतप्रसङ्गेन पध्याह्ने स्त्रीप्रसङ्गतः।
रात्रौ चौरप्रसङ्गेन कालो गच्छति धीमताम्।।
अध्याय नौ-श्लोक ग्यारह
हर कार्य जो भी हो, यथा समय करने से ही मर्यादा की रक्षा हो सकती है, लेकिने यथासमय करने के लिए बुद्धि और संयम चाहिये। ऐसे मूर्ख व्यक्ति की बुद्धि पर दया आती है जो प्रातःकाल से ही जुआ खेलने लगे, दोपहर को सहवास के लिये लालायित हो, ऐसे मूर्ख व्यक्ति की रातें चोरी करते ही व्यतीत होती हैं। बुद्धिमान प्राणी प्रातःकाल महाभारत, मध्याह रामायण और रात्रि में श्रीमद्भागवत पुराण के अध्ययन-श्रवण से अपने समय को सार्थक करते हैं। महाभारत का मुख्य प्रसंग धूत है। रामायण का सीताहरण तथा श्रीमद्भागवत पुराण का मुख्य प्रसंग बाल और किशोर भगवान् श्रीकृष्ण की माखन चोरी और गोपियों के वस्त्र चुराने के प्रसंग हैं। अतः धूत से महाभारत, स्त्री प्रसंग से रामायण और चोर प्रसंग से श्रीमद्भागवत् का अर्थ लिया गया है।
रङ्कं करोति राजानं राजानं रङ्कमेव च।
धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिने विधिः॥
अध्याय दस-श्लोक पांच
मनुष्य का भाग्य क्षण भर में पूर्णतः अभावग्रस्त व्यक्ति को राजा, राजा को गरीब, दाने-दाने को मोहताज, अर्थात् धनी को निर्धन व निर्धन को धनी बना देता है। भाग्य का कुछ भरोसा नहीं कि वह पल भर में हमारे साथ क्या खिलवाड़ करे। उसकी लीला अपरम्पार है।
एकाहारेण सन्तुष्टः षट्कर्मनिरतः सदा ।
ऋतुकालाभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते।।
अध्याय ग्यारह-श्लोक बारह
एक समय के भोजन से सन्तुष्ट रहकर छह कर्तव्य कर्मो -प्रतिदिन यज्ञ करना-करवाना, वेदों का अध्ययन और अध्यापन करना तथा दान देना और लेना का नियमित पालन करने वाला तथा केवल ऋतुकाल में स्त्री से विषय भोंग करने वाला, अर्थात्-विषय वासना से प्रेरित होकर नहीं, अपितु केवल सन्तान को जन्म देने के लिए ही रति-भोग में ही प्रवृत्त होने वाला ब्राह्मण द्विज (गृहस्थ ब्राह्मण) कहलाता है।
लौकिके कर्मणि रतः पशूनां परिपालकः।
वाणिज्यकृषिकर्मा यः सः विप्रो वैश्य उच्यते।।
अध्याय ग्यारह-श्लोक तेरह
जो ब्राह्मण सांसारिक कर्मों में लीन रहकर पशु पालता हो, व्यापार और खेती करता हो वह वैश्य कहलाता है।
कहने का अर्थ यह है कि निरन्तर लौकिक कार्यों में व्यस्त रहने वाला, पशुओं का पालन व व्यापार तथा कृषि कार्य से अपनी तथा अपने परिवार की आजीविका चलाने वाला ब्राह्मण, ब्राह्मण न रहकर वैश्य’ (व्यापारी) ही कहलाता है।
लाक्षादि-तैल-नीलीनां कौसुम्भ-मधु-सर्पिषाम्।
विक्रेता मद्यमांसानां सः विप्रः शूद्र उच्यते।।
अध्याय चार-श्लोक चौदह
लाख आदि पदार्थ के तेल का, नील का, कुंकुम का, मधु का, घी का, मदिरा और माँस का, कपड़ों को रंगने वाले नील का व्यापार करने वाला ब्राह्मण भी ब्राह्मण न कहलवाकर शूद्र ही कहलाता है।
परकार्यनिहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदुः क्रूरों विप्रो मार्जार उच्यते ।।
अध्याय ग्यारह – श्लोक पन्द्रह
दूसरों के कार्यों को बिगाड़ने वाला, ढोंगी, अपने ही कर्य साधने में तत्पर, छली, द्वेषी, ऊपर से नर्म और अन्दर से क्रूर ब्राह्मण को ‘विलार’ (बिलाऊ) कहते हैं। यानी दूसरों के कार्य बिगाड़ना, असत्य भाषण कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करना, अकारण ही दूसरों से शत्रुता करना कायरता अर्थात् सिद्धान्तों का दृढ़ता से पालन न करना और हृदयहीन ब्राह्मण, ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी नहीं होता। उसे ब्राह्मण के स्थान पर बिलार कहना ही उचित है।
वापीकूपतडागारामानाम् च सुरवेश्मनाम्।
उच्छेदने निराशङ्कः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते॥
अध्याय ग्यारह-श्लोक सोलह
जो व्यक्ति ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर बावड़ी, कुओं, तालाब, बाग-बगीचे, देवों अथवा देव-मन्दिरों के लिए दी गयी भूमि, कोष, रत्न, आभूषण आदि को तथा गुरु की सम्पत्ति का हड़प जाने वाला, दूसरों के छल-कपट, दूसरों की स्त्रियों से व्यभिचार करने वाला, धोखा और मिथ्या भाषण करके अपने जीवन को व्यतीत करता है, वह ब्राह्मण, ब्राह्मण न कहलाकर चाण्डाल, मलेच्छ कहलाता है।
देवद्रव्य गुरुद्रव्यं परदारभिमर्शनम्।
निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते।।
अध्याय ग्यारह-लोक सत्तरह
देव-मन्दिरों (देवस्थल) के लिए निर्धारित भूमि,रत्नकोश यानी रुपया पैसा व गुरुओं की भूमि, धन-सम्पत्ति, आभूषण, रत्न आदि को जो ब्राह्मण धोखे से या अपने कपटी व्यवहार के कारण हड़प लेता है, वह ब्राह्मण न होकर चाण्डाल ही कहलाता है।
इसी प्रकार जो ब्राह्मण परस्त्री के सम्पर्क में जाता है अथवा दूसरों की स्त्री पर बुरी तरह नजर रखता है, वह ब्राह्मण होकर भी चाण्डाल के समान ही है।
अतः ब्राह्मण को देवस्थल व अपने गुरुओं के लिए निर्धारित भूमि, धन-दौलत, आभूषण, रत्न आदि से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। ऐसे ही दूसरों की स्त्री पर बुरी नजर नहीं रखनी चाहिए। जो ब्राह्मण ऐसा करता है, वह ब्राह्मण कहलाने के योग्य नहीं रहता। उसे चाण्डाल ही कहा जा सकता है।
पत्रं नैव यदा करीलविटपे दोषो वसन्तस्य किम्, नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्।
वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्, यत्पूर्व विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितु कः क्षमः॥
अध्याय बारह-श्लोक छह
परमपिता परमात्मा के लिखे को कोई नहीं काट सकता, विधाता के विधान को कोई नहीं बदल सकता, जिस प्रकार बसन्त ऋतु के आने पर सभी वृक्षों पर हरियाली आ जाती है, यदि उस ऋतु में भी करील के वृक्ष पर पत्ते नहीं उगते तो इसमें बसन्त का क्या दोष ? उल्लू को दिन में दिखाई न देने की प्रक्रिया में सूरज का क्या दोष ? पानी-पानी रटने वाले पपीहे के मुंह में बारिश की बूंदें नहीं गिरतीं तो इसमें बादलों का क्या दोष ? यह सब तो विधाता द्वारा रचा गया विधान है। इसमें कोई भी दोषी नहीं। कहने का अर्थ यह है कि भाग्य ही प्रबल है और हमें या प्रत्येक जड़-चेतन को भाग्य का लिखा ही मिलता है। उसमें कोई भी घटा-बढ़ा नहीं सकता।
न विप्र-पादोदक-कर्दमानि, न वेदशास्त्र-ध्वनि-गर्जितानि।
स्वाहा-स्वधाकार विवर्जितानि, श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।
अध्याय बारह-श्लोक दस
अपना जीवन शान्तिपूर्वक बिताने के लिए हर मनुष्य को धर्म-कर्म का अनुष्ठान करते रहना चाहिए। वह घर मुर्दाघर के समान है जहाँ धर्म-कर्म नहीं होता। जिस घर में ब्राह्मण के पैर नहीं धुलवाये जाते, जहाँ वेद-शास्त्रों का उच्चारण नहीं होता, जहाँ यज्ञादि-हवन द्वारा देवताओं का पूजन नहीं होता, ऐसे घर, घर न रहकर श्मशान के समान हो जाते हैं। कहने का अर्थ यह है कि हर मनुष्य को अपने घर में, ब्राह्मणों को भोजन, हवन-यज्ञ, कथा (वेद-शास्त्रों का पाठ) आदि कराते रहने से ही कल्याण सम्भव है। धर्म कार्य से रहित घर श्मशानतुल्य ही माना जाता है।
सत्यं माता पिता ज्ञान धर्मो भ्राता दया सखा।
शान्ति पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः ।।
अध्याय बारह-श्लोक ग्यारह
किसी गृहस्थ मनुष्य ने एक आनन्दमग्र योगी से पूछा-“महात्मन, आप अत्यन्त प्रसन्नचित्त दिखायी दे रहे हैं, ऐसा महसूस होता है कि आपको उत्तम परिवार मिला होगा, कृपया आप अपने परिवार के विषय में बतायें।”
योगी ने जवाब दिया-“मेरे मानव जीवन की हर गतिविधि सत्य पर आधारित है, सत्य–मेरी माँ के समान है, यथार्थज्ञान पालन-पोषण के रूप में मेरा पिता है, धर्म-मेरा भाई है, दया करने की प्रवृत्ति-मेरी बहन है, शान्ति- मेरी पत्नी है,और क्षमा-मेरा पुत्र है। ये छह ही इस संसार में मेरे स्वजन हैं जिन्हें पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया है। मुझे सांसारिक सम्बन्धौ से कुछ भी लेना देना नहीं है। इसीलिए मैं इतना प्रसन्नचित्त दिखायी देता हूँ।”
विनयं राजपुत्रेभ्यः पण्डितेभ्यः सुभाषितम्।
अनृतं द्यूतकारेभ्यः स्त्रीभ्यः शिक्षेत् कैतवम्।।
अध्याय बारह-श्लोक सत्तरह
हर मनुष्य को सभी विद्याओं में निपुण होना चाहिए। आचार्य चाणक्य के कथनानुसार उसे राजपुत्रों से शालीनता और नम्रता की शिक्षा लेनी चाहिए। विद्वानों (सद्पुरुष) से श्रेष्ठ और मधुर ढंग से बातचीत करना सीखना चाहिए। जुआरिओं से, असत्य भाषण (झूठ बोलना) विभिन्न तरीकों से और स्त्रियों से छल-कपट करने की शिक्षा लेनी चाहिए।
अभिप्राय यह है कि आज के युग में जीने के लिए व्यक्ति के अन्दर उपरोक्त सभी गुण होने चाहिएं।
मूहूर्तमपि जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा।
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना।।
अध्याय तेरह-श्लोक एक
मनुष्य को ऐसे कर्म करने चाहिएं जिनसे उसकी कीर्ति हमेशा फैलती रहे। विद्या, दान, तपस्या, सत्य भाषण, धनोपार्जन आदि के क्षेत्र में उसकी कीर्ति दसों दिशाओं में फैलनी चाहिए। ऐसे सद्कर्म करने के लिए हजारों वर्षों के जीवन की अपेक्षा यदि अल्प समय के लिए भी जीवन मिले तो वह अच्छा है।
लोक-परलोक में निषिद्ध कर्मों को करने वाले मनुष्य का जीवन अल्प समय का भी व्यर्थ है। उसे चाहिए कि सत्कर्मो के जरिये वह अपना लोक-परलोक सुधारे। सत्कर्म करते हुए जीवित रहने वाले मनुष्य की तो सद्पुरुष प्रशंसा करते हैं।
गते शोको न कर्त्तव्यं भविष्यं नैव चिन्तयेत ।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षण, ।।
अध्याय तेरह-श्लोक दो
सुन्दर भविष्य पर विश्वास न करें, भूतकाल की भी चिन्ता न करें। जो कुछ भी करना है उसे परमपिता परमेश्वर व स्वयं. पर विश्वास करते हुए वर्तमान काल में ही करना चाहिए। जो बीत गया उसे स्मरण करके शोक न करें, शोक मनुष्य के धैर्य को नष्ट कर देता है, शोक के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है। अभिप्राय यह है कि किसी भी मनुष्य को भविष्य में क्या होगा, इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि होनी को नहीं टाला जा सकता, जो विधाता ने हमारे भाग्य में लिखा है वो तो होना निश्चित है। इसीलिए बुद्धिमान एवं ज्ञानी पुरुष केवल वर्तमान को सिद्ध करने के कार्य में ही लगे रहते हैं। वे भविष्य के विषय में सोचकर अपना समय व्यर्थ नहीं करते।
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्।
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत् सुखम् ।।
अध्याय तेरह-श्लोक पांच
मनुष्य के जीवन में सब दुःखों का मूल कारण स्नेह (प्रीति) है। जिस मनुष्य को अपने जिस आत्मीय के प्रति प्रेम होता है, उसे उसी के दुःख-सुख की और उसी के रुष्ट-तुष्ट होने की चिन्ता और भय बना रहता है। प्रीति ही दुःखों की आधारशिला है। प्रीति के कारण ही तेल में दीपक की बाती भी जल जाती है। पतंगा दीपक की लौ में जलकर भस्म हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री, पत्नी और बन्धु-बान्धवों की आसक्ति के कारण इस संसार के चक्र में पिसता रहता है। अभिप्राय यह है कि यदि किसी व्यक्ति विशेष से आपको लगावे न हो तो उसके सुख-दुःख से क्या लेना-देना ? स्पष्ट है कि दुःखों का मूल स्नेह ही है। इसीलिए ज्ञानवान मनुष्य को चाहिए कि वह स्नेह का सर्वथा त्याग कर दे जिससे कि वह निश्चित होकर सुखपूर्वक जीवन जी सके।
दह्यमानाः सुतीद्रेण नीचाः परयशोऽग्निना।
अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते।।
अध्याय तेरह-श्लोक दस
इस संसार में दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों का स्वभाव होता है कि वे सद्पुरुषों के फैलते यश को देखकर ईर्ष्या से जलने लगते हैं। जब वे स्वयं उस स्थान को प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं तब उस सद्पुरुष, गुणी महान् व्यक्ति की बुराई करने लगते हैं। ‘अंगूर खट्टे हैं की नीति के अनुसार उनके प्रशंसनीय कार्यों को ही तुच्छ बताने लग जाते हैं। अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को दूसरों के यश से ईष्र्या न करके स्वयं भी ऊंचा उठाने की उत्कंठा बनानी चाहिए, ताकि उनका यश भी सद्पुरुषों की तरह फैल सके।
बन्धाय विषयासङ्गो मुक्तये निर्विषयं मनः।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।।
अध्याय तेरह-श्लोक ग्यारह
हर मनुष्य का मन ही सुख-दुःख और भलाई-बुराई का मूल तथ्य है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया वही सुखी है। हर मनुष्य के बन्धन और मोक्ष प्राप्ति का कारण केवल उसका मन ही है। विषय-वासनाओं में फंसा हुआ मन मनुष्य के बंधनों का कारण होता है। जिस मनुष्य का मन विषय-वासनाओं से अछूता है, वह मोक्ष का भागी बनता है।
अभिप्राय यह है कि हर मनुष्य को अपने प्रबल पुरुषार्थ से पहले अपने मन पर अंकुश लगाना चाहिए। यानी मोक्ष प्राप्ति के लिए अपने मन को विकार रहित बनाने का प्रयत्न करना। चाहिए। इसी में मुक्ति है।
देहाभिमाने गलिते ज्ञानेन परमात्पनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ।।
अध्याय तेरह-श्लोक बारह
मनुष्य का शरीर मिट्टी के कच्चे घड़े के समान क्षणमात्र में नष्ट हो जाने वाला है। यदि कच्चे घड़े को भी यत्नपूर्वक इस्तेमाल किया जाये तो वह बहुत समय तक चल सकता है। परन्तु शरीर को मनुष्य चाहे जितने यत्न से सम्भालकर रखे तो भी यह नष्ट हो जाता है। शरीर के इस क्षणमात्र में नष्ट होने का ज्ञान होने पर मनुष्य का मन जहाँ कहीं भी जाता है, वहीं उसके लिए समाधि बन जाती है। अर्थात् जागृत अवस्था ने होने पर भी समाधि की स्थिति में आ जाता है।
अभिप्राय यह है कि यह शरीर क्षणभंगुर है, यह ज्ञान होते ही हर मनुष्य का देहाभिमान नष्ट हो जाता है।
ईप्सितं मनसः सर्व कस्य सम्पद्यते सुखम् ।
दैवायत्तं यतः सर्व तस्मात् सन्तोषमाश्रयेत् ।।
अध्याय तेरह-श्लोक तेरह
संसार में किसी भी मनुष्य को मनचाहा सुख प्राप्त नहीं होता। सामान्यतः सुख-दुःख की प्राप्ति मनुष्य के हाथ में न होकर ईश्वर के अधीन है। इसलिए जो मिल रहा है उसी पर सन्तोष करके अपने ऊपर संयम करना चाहिए। क्योंकि सन्तोष सुख का मूल और असन्तोष दुःख का कारण है। अधिक सुख की चाह से मनुष्य को स्वयं को दुखी नहीं करना चाहिए। अभिप्राय यह है कि सभी मनोरथ किसी भी व्यक्ति के सिद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि सभी कुछ भाग्याधीन है। जो हमारे भाग्य में लिखा है वह अवश्यम्भावी है। इसलिए अधिक की चाह निरर्थक है।
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्।
तथावद्धि कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।।
अध्याय तेरह-श्लोक चौदह
जिस तरह से बछड़ा हजारों पशुओं के बीच खड़ी अपनी माता को तलाशकर, तकाल उसी के पास पहुँचकर उसके स्तनों से दुग्धपान करने लगता है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य का कर्म भी फल के लिए कर्ता को तलाश लेता है। अभिप्राय यह है कि कोई भी मनुष्य अपने द्वारा किये गये फल भोगने से बच नहीं सकता। जो जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगना ही नियति है।
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरु नाभिवन्दते।
श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते।।
अध्याय तेरह-श्लोक अट्ठारह
इस संसार में सच्चे तत्त्वज्ञान का उपदेश देने वाले गुरु की जो शिष्य वन्दना नहीं करता, उसके प्रति सम्मान भाव प्रदर्शित नहीं करता, ऐसा कृतघ्न व्यक्ति सौ बार कुत्ते की योनि में जन्म लेने के पश्चात चाण्डाल की योनि में उत्पन्न होता है। अभिप्राय यह है कि जिस किसी से जितना भी ज्ञान मिले उसे प्राप्त कर लेना चाहिए और बदले में आभार प्रकट करना चाहिए। ज्ञानदाता गुरु की निन्दा सुननी भी नहीं चाहिए। ज्ञान देने वाले का अपमान करने वाला मानव कभी भी सुखी जीवन नहीं जी सकता। उसका परलोक भी कष्टदायक होता है।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
अध्याय चौदह-श्लोक एक
इस पृथ्वी पर जल, अन्न और मधुर वाणी नामक तीन पदार्थ ही मूल्यवान कहलाने के अधिकारी हैं। सामान्यतया इस जगत् में मनुष्य पत्थर के टुकड़ों (हीरा, पन्ना, मोती, माणिक) को ही अमूल्य रत्न कहते हैं। यह उनकी अज्ञानता का लक्षण है।
कहने का अभिप्राय यह है कि बहुमूल्य रत्न कहे जाने वाले पत्थर के टुकड़ों की अपेक्षा अन्न और मधुर वाणी की उपयोगिता अधिक होती है।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
दारिद्रयदुःखरोगाणि बन्धन-व्यसनानि च।।
अध्याय चौदह-श्लोक दो
हर मनुष्य अपने पूर्वजन्म के पापों के फलस्वरूप ही दरिद्रता, मानसिक कष्ट, दुःख रोग, बन्धन (जेल, हथकड़ी) तथा आपत्ति (स्त्री, पुत्रादि की मृत्यु, धन का नाश, मुकदमा, सार्वजनिक अपमान आदि) व अन्य व्यसनों के जंजाल में फंसता है। ये कष्ट उसे अकारण नहीं उठाने पड़ते। वस्तुतः ये सब उसके किए गये अधर्म रूपी वृक्ष के ही फल होते हैं। कहने का अभिप्रायः यह है कि मनुष्य द्वारा किये गये बुरे कर्मों का फल तो बुरा ही होता है। अच्छे फल अर्थात् सुख, आनन्द, वैभव व यश की प्राप्ति के लिए सभी मनुष्यों को अच्छे कर्म करने चाहिये।
पुनर्वितं पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही।
एतत्सर्व पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः॥
अध्याय चौदह-श्लोक तीन
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मानव जन्म दुर्लभ है, अपने पूर्वजन्म के संचित पुण्य कर्मों के फलस्वरूप ही आत्मा को मानव जन्म प्राप्त होता है। धन, मित्र, भू-सम्पत्ति तो उसे बार-बार मिल जाते हैं, लेकिन मानव जन्म बार-बार नहीं मिल पाता। इसका सदुपयोग करना चाहिए।
कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य को यह मानकर जीवन व्यतीत करना चाहिए कि धन, मित्र, स्त्री, भू-सम्पत्ति आदि मनुष्य के लिए ईश्वर द्वारा प्रदत्त स्वादिष्ट फल हैं, मनुष्य को इनके लिए नहीं, इस मानव जीवन को सफल बनाने के लिए सद्कर्म करने चाहिएं।
बहूनां चैव सत्त्वानां समवायो रिपुञ्जयः।
वर्षाधाराधरो मेघस्तृणैरपि निवार्यते।।
अध्याय चौदह-श्लोक चार
यहाँ पर आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अनेक शुद्र प्राणियों का समूह मिलकर बड़े-बड़े शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है, अकेला व्यक्ति बलशाली होने पर भी कुछ नहीं कर पाता-जिस तरह से क्षुद्र तृण भी समूह रूप में मिल जाने पर अर्थात छप्पर का रूप ले लेने पर अखण्ड जलधारा को बरसाने वाले बादल के वेग को रोकने में समर्थ हो जाता है।
कहने का अभिप्रायः यह है कि संगठन में ही शक्ति है। तरह-तरह के व्यक्तियों को वश में करने के उपाय भी अलग-अलग हैं। बलशाली सज्जन शत्रुओं को अनुकूल व्यवहार करके ही वश में करना चाहिए, नीच प्रवृत्ति के शत्रु को वश में करने के लिए उनके प्रतिकूल व्यवहार करना चाहिए। जो शत्रु अपने समान बलशाली है उसे परिस्थिति देखकर नम्रता से भी झुकाया जा सकता है।
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः।
यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः।।
अध्याय चौदह-श्लोक नौ
जिसके प्रति लगाव, अर्थात् सच्चा प्रेम है, वह उससे दूर रहता हुआ भी समीप होता है। इसके विपरीत जिसके प्रति लगाव नहीं है, वह प्राणी समीप होते हुए भी दूर होता है। वस्तुतः मन का लगाव न होने पर आत्मीयता बन ही नहीं पाती, किसी प्रकार का सम्बन्ध जुड़ ही नहीं पाता।
कहने का अभिप्रायः यह है कि हमारे मन में बसा स्नेही दूर देश का निवासी होते हुए भी दूर नहीं, और जो पड़ोस में रहता हुआ भी वैमनस्य रखता है वह दूर हो जाता है। दूरी मन की होती है, स्थान की नहीं होती।
यस्माच्च प्रियमिच्छेत्तु तस्य ब्रूयात् सदा प्रियम् ।
व्याधो मृगवधं कर्तुम् गीतं गायति सुस्वरम्।।
अध्याय चौदह-लोक दस
जिस किसी प्राणी से मनुष्य को किसी भी प्रकार के लाभ मिलने की आशा है, उससे सदैव मधुर और प्रिय व्यवहार करना चाहिए। उदाहरण स्वरूप मृग का शिकार करने की इच्छा रखने वाला चालाक शिकारी भी उसे मोहित करने के लिए उसके आस-पास बने रहकर मधुर स्वर में गीत गाता है।
यदीच्छसि वशीकर्तु जगदेकेन वर्त्मना।
परापवादशस्येभ्यो गां चरन्ती निवारय।।
अध्याय चौदह-श्लोक चौदह
समाज में लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए, सबसे पहले दूसरों की निन्दा में लगी हुई वाणी पर रोक लगाओ। परनिन्दा में रस लेना दुष्ट मनुष्यों की प्रवृत्ति है। वाणी का संयम तपस्या है। निन्दा न करके दूसरों की प्रशंसा करने वाला ही लोकप्रिय होता है। । कहने का अभिप्राय यह है कि किसी की बुराई न करके दूसरों के गुणों की व्याख्या करने वाला मनुष्य सुखी जीवन व्यतीत करते हुए समाज में मान प्राप्त कर सकता है। अर्थात् लोकप्रिय हो सकता है।
प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम्।
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति सः पण्डितः।।
अध्याय चौदह-श्लोक पन्द्रह
विद्वान व्यक्ति वही है जो अपने व्यक्तित्व के अनुकूल ऐसी बात करता हो, जो प्रसंग के भी अनुकूल हो। अच्छी से अच्छी बात अप्रासंगिक होकर प्रभावहीन हो जाती है। यदि वह बात अप्रिय हो, और उसमें क्रोध की अभिव्यक्ति हो तो भी वह क्रोध उतना ही प्रदर्शित होना चाहिए कि जितना निभाने की शक्ति हो। अभिप्राय यह है कि अवसरानुकूल बात करने की योग्यता रखने वाला, अपनी सामर्थ्य के अनुसार साहस करने वाला तथा अपनी शक्ति के अनुरूप क्रोधी ही विद्वान कहलाता है।
बिना अवसर की बात, सामथ्र्य से बढ़कर साहस अत्यधिक क्रोध करने से हानि ही होती है लाभ नहीं।
एक एव पदार्थस्तु त्रिधा भवति वीक्षितः।
कुणपः कामिनी मांसो योगिभिः कामिभिः श्वभिः।।
अध्याय चौदह-श्लोक सोलह
एक ही पदार्थ देखने वालों के दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण तीन व्यक्ति अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उसे अलग – अलग रूपों में देखते हैं। उदाहरण स्वरूप सौन्दर्यमयी नारी का शरीर एक योगी की दृष्टि में अतिकुरूप शव रूप (मरे हुए के समान) होता है, कामी पुरुष उसे सौन्दर्य के भण्डार के रूप में देखता है और कुत्तों के लिए वह माँस पिण्ड है। जिस प्रकार कुरूपता अर्थात् किसी भी पदार्थ में भिन्नता देखने वालों की दृष्टि में रहती है, पदार्थ में नहीं, उसी प्रकार किसी नारी का सौन्दर्य अथवा असौन्दर्य का प्रतीक रूप भी देखने वालों की दृष्टि में ही होता है।
यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु ।
तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनैः।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक एक
जिस मनुष्य का मन प्राणियों को संकटावस्था में देखकर द्रवित हो जाता है उस मनुष्य को जटाएं बढ़ाने, भस्म लगाने, ज्ञान प्राप्त करने तथा मोक्ष के प्रति प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती ।दया धर्म सभी धर्मों से बढ़कर है और दयालु प्रवृत्ति का मनुष्य ही सच्चे अर्थों में ज्ञानवान, भक्त, योगी मुक्तजीव है।
एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत्।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद् दत्वा चानृणी भवेत्।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक दो
जो गुरु शिष्य को मिथ्या मोया-मोह से हटकर ईश्वर का साक्षात्कार कराता है, इस संसार में उसके पश्चात् किसी चीज की आवश्यकता नहीं रहती। ऐसे गुरु के उपकार भार से मुक्त होने के लिए शिष्य पृथ्वी के समस्त वैभव को अर्पित करके भी कर्जमुक्त नहीं हो सकता।
कहने का अभिप्रायः यह है, कि अध्यात्म के तत्त्वज्ञान का उपदेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण व मूल्यवान् है। इसके सामने संसार के सभी पदार्थ तुच्छ एवं नगण्य हैं।
खलानां कणटकानाञ्चैव द्विविधैव प्रतिक्रिया।
उपानन्मुखभङ्गोवा दूरतो वा विसर्जनम्।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक तीन
दुर्जन पुरुष और काँटों से छुटकारा पाने के केवल दो मार्ग हैं-प्रथम, जूतों से उनका मुँह तोड़ देना। द्वितीय, यदि यह सम्भव न हो तो फिर दूर से ही उनका त्याग कर देना।
यदि व्यक्ति स्वयं में समर्थ हो तो उसे दुर्जनों को दण्डित करना चाहिए और यदि समर्थ न हो, तो उनसे किनारा करना चाहिए।
त्यजन्ति मित्राणिधनैर्विहीनम्, दाराश्च भृत्याश्च सुहृज्जनाश्च।
तं चार्थवन्तं पुनराश्रयन्ते, ह्यर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक पांच
अर्थाभाव में मित्र, स्त्री, नौकर, स्नेहीजन भी व्यक्ति का आदर नहीं करते। यदि वही व्यक्ति पुनः सम्पन्न हो जाये तो अनादर करने वाले फिर आदर करने में संकोच नहीं करते साथ लगे रहते हैं।
कहने का अभिप्रायः यह है कि धन ही मनुष्य का सच्चा बन्धु है, जिसके होने पर संसार में सभी प्राणी सम्मान करने हैं, न होने पर सभी सहसा आँखें फेर लेते हैं। आज के मानव को इस संसार में सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए धन-सम्पन्न होना जरूरी है।
अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक छह
अन्याय, धूर्तता, बेईमानी आदि गलत ढंग से कमाकर सञ्चित किये गये धन से सम्पन्न व्यक्ति अधिक से अधिक दस वर्षों तक सम्पन्न रहता है। ग्यारहवें वर्ष में मूल के साथ-साथ सञ्चित धन जो गलत तरीकों से कमाया गया था, नष्ट हो जाता है।
अर्थ यह है कि अन्याय व अनुचित साधनों से किसी भी मनुष्य को धनोपार्जन नहीं करना चाहिए। व्यापार या मेहनत द्वारा सञ्चित किया गया धन ही जीवन भर साथ देता है।
मणिर्लुण्ठति पादाग्रे काचः शिरसि धार्यते।
क्रयविक्रयवेलाया. काचः काचो मणिमणिः ।।
अध्याय पन्दह-श्लोक नौ
कोई राजवंश का व्यक्ति मणि रूपी रत्न को पैर की उंगलियों में धारण करे और काँच को सिर पर मुकुट में जड़वाकर धारण करे तो भी मणि का मूल्य कम नहीं हो जाता। बाजार में खरीद-फरोख्त के समय मणि बेशकीमती मूल्य की होती है, और काँच मामूली कीमत में आ जाता है।
अभिप्रायः यह है कि किसी अयोग्य व्यक्ति को उच्च पद पर और योग्य व्यक्ति को निम्न पद पर आसीन कर देने से उनकी योग्यता में परिवर्तन नहीं आ जाता।
पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः।
आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक बारह
आजकल के पण्डित चारों वेदों और धर्मशास्त्रों को पढ़ तो लेते हैं लेकिन उन्हें पढ़ने में पारंगत होने के बाद भी उनके ‘आत्मतत्त्व’ के ज्ञान से शून्य रहते हैं। उन विद्वानों (पण्डितों) का जीवन वैसे ही कोरा है जैसे कलछी का रहता है जो सब स्वादिष्ट पकवानों में से गुजर कर भी उनके स्वाद को नहीं जानती।
कहने का अभिप्रायः यह है कि जिस प्रकार कलछी की धातु बेजान होने से स्वादहीन होती है, उसी प्रकार आजकल के पण्डितों को ‘आत्मतत्त्व’ का ज्ञान न होने से उनका वेद-शास्त्रों का अध्ययन निरर्थक हो जाता है।
धन्या द्विजमयी नौका विपरीता भवार्णवे।
तरन्त्यधोगताः सर्वे उपरिष्ठाः पतन्त्यधः।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक तेरह
इस संसार में ब्राह्मणों की बड़ी विचित्र और विपरीत स्थिति है। यहाँ इस संसार रूपी सागर के नीचे गये हुए तो तर जाते हैं, परन्तु जो ऊपर बैठे रहते हैं, वे नीचे डूब जाते हैं।
यहाँ आचार्य चाणक्य कहते हैं कि, संसार में जो व्यक्ति ब्राह्मणों के प्रति विनम्र रहते हैं और उनकी सेवा-सुश्रूषा करते रहते हैं, उनका तो उद्धार हो जाता है, लेकिन जो ब्राह्मणों के सामने अपने अहंकार का निरर्थक प्रदर्शन करते हैं, उनसे अकड़कर बैठे रह जाते हैं, उनका जीवन में उद्धार नहीं होता।
अयममृतनिधानं नायकोऽप्योषधीनाम्, कमलासहजातः कान्तियुक्तोऽपिच द्र:।
भवति विगतरश्मिर्मण्डलं प्राप्य भानोः, परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक चौदह
चन्द्रमा अमृत का भण्डार है, औषधियों में रस डालने वाला है, लक्ष्मी के साथ समुद्र से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी का भाई है और अत्यन्त शीतल व चमकीला, शोभायुक्त है, परन्तु सूर्य के मण्डल में पहुँचते ही एकदम फीका (निस्तेज) हो जाता है। चन्द्रमा की यह दशा इस तथ्य को साबित करती है कि दूसरे के घर जाने से मनुष्य का बड़प्पन बना नहीं रहता, वस्तुतः किसी प्रयोजन विशेष से ही किसी दूसरे के घर जाता है। जब कोई किसी के यहाँ बिना किसी प्रयोजन के जाता है तो वह उसके सामने छोटा हो जाता है।
कहने का अभिप्रायः यह है कि किसी बन्धु-बान्धव के यहाँ भी मनुष्य को बिना विशेष प्रयोजन के नहीं जाना चाहिए। उसके बिना किसी प्रयोजन के जाने से मान-सम्मान में निस्तेजता आ जाती है।
अलिरयं नलिनीदलमध्यगः, कमलिनी मकरन्दमदालसः।
विधिवशात् परदेशमुसत्य पागतः कुटजपुष्परसं बहु मन्यते।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक पन्द्रह
अपने देश (स्थान) में रहते हुए भौंरा कमलिनी के पराग के रस को पीकर मदमस्त रहता था। कुछ समय पश्चात् वह परदेश (दूसरे स्थान) चला गया। वहाँ केवल करील के फूल ही पैदा होते थे, जिनमें न रस होता है न गन्ध। उसे परदेश में रहते हुए उन्हीं पर सन्तोष करना पड़ा, वह मजबूरीवश उन्हीं का रस पीकर उन्हें ही गौरव देने लगा। क्योंकि न मिलने से तो, कुछ मिलना ही अच्छा है।
कहने का अभिप्रायः यह है कि अपना देश छोड़कर ज्यादा के लोभ में परदेश जाना अच्छा नहीं है, परदेश में गया व्यक्ति दुःख ही उठाता है। भाग्य को कोई नहीं बदल सकता, स्वयं को ही बदलना पड़ता है।
बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि, प्रेमरज्जुकृत बन्धनमन्यत्।
दारुभेद निपुणोऽपि षड़ङ्घ्रिनिष्क्रियो भवति पंकजकोशे।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक सत्तरह
संसार में अनेक प्रकार के बन्धन हैं, किन्तु उनमें प्रेमरूपी बन्धन का अपना अलग ही महत्त्व है। उदाहरणार्थ-किसी लकड़ी को भी फाड़ने में सक्षम भौंरा कमल के कोश को तोड़ने में असमर्थ हो जाता है, आखिर क्यों ? केवल प्रेम-बन्धन के कारण ही वह कमल कोश को नहीं तोड़ पाता।
अभिप्रायः यह है कि प्रेम का बन्धन उस कच्चे धागे का सुदृढ़ बन्धन है, जिसकी डोर से बंधे प्रेमी अनायास ही खिंचे चले आते हैं। किसी की भी चिन्ता नहीं करते।
यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
सः तस्याः वशगो भूत्वा नृत्येत् क्रीडाशकुन्तवत्।।
अध्याय सोलह-श्लोक तीन
जो विवेकहीन पुरुष अपनी अज्ञानता तथा अन्ध-मोह के कारण यह समझता है, कि अमुक सुन्दरी एकमात्र उसमें अनुरक्त है, वह अपनी मूर्खता के कारण उसके अधीन होकर मनोरंजन के लिये पाले गये कुत्ते के समान उसके सकेतों पर नाचने के लिए बाध्य होता है।
आचार्य चाणक्य के अनुसार सुन्दर नारी पर अन्धा विश्वास नहीं करना चाहिए, अन्यथा जीवन में दुःखों का सामना करना पड़ता है।
कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तंगता: ।
स्त्रीभिःकस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राजप्रियः।।
कः कालस्य न गोचरत्वमगमत् कोऽर्थी गतो गौरवम्।
को वा दुर्जन दुर्गमेषु पतितः क्षेमेण यातः पथिः।।
अध्याय सोलह-श्लोक चार
धन प्राप्ति के उपरान्त सभी को अहंकार हो जाता है, ऐसा कोई व्यक्ति इस संसार में नहीं हुआ, जिसे प्रचुर सम्पदा को पाकर भी अहंकार न हुआ हो। विषयों में आसक्त सभी प्राणियों को पग-पग पर अनेक विपत्तियाँ झेलनी पड़ती हैं, किसी भी व्यक्ति का जीवन संकट से रहित नहीं रहा। खूबसूरत स्त्रियाँ अपने हाव-भाव से सभी के मन को अपने वश में कर लेती हैं। इस संसार में शायद ही ऐसा कोई हुआ हो जिसका मन खूबसूरत युवतियों ने न जीता हो। कोई भी व्यक्ति कभी भी राजा का प्यारा नहीं रह जाता। राजा लोग किसी व्यक्ति विशेष से नहीं, उससे सिद्ध होने वाले कार्य से प्रेम करते हैं। संसार के सभी प्राणी काल के ग्रास हैं। काल से कोई नहीं बच पाया। किसी भी याचक को सम्मान नहीं मिलता और दुर्जन के जाल में फंसकर कोई भी सज्जन व्यक्ति अपने लक्ष्य पर कुशलतापूर्वक नहीं पहुँच पाता। अभिप्रायः यह है कि धनी के अहंकारी, विषयों के संकटग्रस्त, स्त्रियों का संग करने वाले के विकारग्रस्त, राजाओं का प्यारा कहलाने वाले को उनसे अपेक्षित, सभी व्यक्तियों को काल का ग्रास बनने में, याचक के अपमानित तथा गलत संगति से पथभ्रष्ट होने में आश्चर्य व्यक्त नहीं करना चाहिए।
न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा, न श्रूयते हेममयी कुरंगी।
तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य, विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥
अध्याय सोलह-श्लोक पांच
इस संसार में अब तक न तो किसी ने सोने का मृग बनाया है, न पहले से बना हुआ सुना है, और न ही किसी ने उसे देखा है, फिर भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम उसे पाने के लिए उद्यत हो उठे और उसके पीछे भाग पड़े।
कहने का अभिप्रायः यह है कि ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि-विनाश के समय बुद्धि भी साथ छोड़ देती है अर्थात् संकट के समय मनुष्य की सोचने-समझने की शक्ति भी जाती रहती है।
गुणैरुत्तमतां यान्ति नोच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते।।
अध्याय सोलह-श्लोक छह
अपने गुणों से ही कोई मनुष्य ऊंचा होता है, अर्थात् मान-सम्मान, प्रतिष्ठा की प्राप्ति करता है, केवल ऊचे स्थान पर बैठ जाने से ऊंचा नहीं होता। उदाहरणार्थ-किसी भवन की ऊंची चोटी पर बैठने से कौवा गरुड़ नहीं बन जाता। सत्य तो यह है कि गुणों से ही स्थान की प्रतिष्ठा होती है। स्थान से किसी गुणी व्यक्ति की कोई प्रतिष्ठा नहीं होती।
गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पदः ।
पूर्णेन्दुः किं तथा वन्द्यो निष्कलङ्को यथा कृशः।।
अध्याय सोलह-श्लोक सात
इस संसार में गुणी व्यक्ति हर जगह मान-सम्मान पाता है। भले ही वह अर्थाभाव से पीड़ित हो, गुणी होने पर उसे हर जगह सम्मान मिलता है। असीम वैभव सम्पत्ति वाले किन्तु गुणहीन व्यक्ति का सम्मान नहीं होता। ठीक उसी तरह, जिस तरह अत्यन्त प्रकाशयुक्त द्वितीया का चन्द्रमा सर्वत्र पूज्य होता है, किन्तु पूरा चन्द्रमा उतना प्रकाशमान होते हुए भी पूज्य नहीं होता, क्योंकि वह निष्कलंक नहीं होता। अर्थ यह है कि जिसमें कलंक हो, उसमें गुण नहीं हो सकता। चन्द्र के पूर्ण होने पर उसका कलंक भी सबको दिखाई देता है, जबकि दूज के चन्द्रमा में कलंक नहीं दिखाई देता इसलिये वह पूज्य होता है।
परैरुक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः।।
अध्याय सोलह-श्लोक आठ
हर व्यक्ति को अपने जीवन में सद्गुणों को विकसित करना चाहिये। सद्गुणों की सुगन्धि से मनुष्य का जीवन रूपी पुष्प स्वयं ही महक उठता है। जिस व्यक्ति के गुणों की प्रशंसा दूसरे करें वह व्यक्ति गुणहीन होने पर भी गुणी हो जाता है। अपितु आत्म-प्रशंसा करने से इन्द्र भी गुणी नहीं बन जाता, साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है ?
अभिप्रायः यह है कि जिसकी प्रशंसा अन्य करें वह गुणी है। जब तक दूसरे लोग किसी के गुण को मान्यता नहीं देते तब तक उसकी आत्म-प्रशंसा करना भी निरर्थक है।
विवेकिनमनुप्राप्ताः गुणाः यान्ति मनोज्ञताम्।
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम्।।
अध्याय सोलह-श्लोक नौ
ऐसे विवेकी पुरुष को पाकर गुण स्वतः ही विकसित हो जाते हैं, जिसे सच-झूठ, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध होता है। इसी में गुणों को अपनी सार्थकता प्रतीत होती है। उदाहरण स्वरूप सोने में जड़ा गया रत्न ही अत्यन्त शोभायमान होता है।
जिस तरह से फूलों की सुगन्ध स्वयं फैलती है, सोने में जड़ा रत्न चमचमाता है, उसी तरह से विचारवान् व्यक्ति के गुणों में भी स्वतः ही निखार आता है।
गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।
अनर्थ्यमपि माणिक्य हेमाश्रयमपेक्षते ।।
अध्याय सोलह-श्लोक दस
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह समाज में रहना पसन्द करता है, अकेला जीवन वह जी नहीं सकता, जीवन के हर पड़ाव में उसे किसी न किसी के सहारे की जरूरत पड़ती रहती है। गुणों में परमात्मा के समान होने पर भी मनुष्य अकेला दुःख उठाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे अत्यन्त मूल्यवान हीरा ‘सोने के आभूषणों में जड़े जाने की आकांक्षा करता है।
आचार्य चाणक्य के कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी व्यक्ति अकेले अपने दम पर कोई भी कार्य नहीं कर सकता अथात् उसे प्रत्येक कार्य में समाज के किसी न किसी व्यक्ति के सहयोग की आवश्यकता अवश्य ही होगी।
किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवला।
या तु वेश्येव सामान्या पथिकैरपि भुज्यते।।
अध्याय सोलह-श्लोक बारह
उस धन-सम्पत्ति का कोई लाभ नहीं है, जो कुलवधु के समान केवल स्वामी के अपने ही उपभोग में आती है। लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) तो वही उत्तम है, जो नगरवधु (वेश्या) के समान न केवल सभी नगरवासियों के उपभोग में आये, अपितु राहगीरों का भी हित करे, अर्थात् धन-सम्पत्ति, वैभव की दूसरों के काम आने में ही सार्थकता है। अर्थ यह है कि वैभवशाली व्यक्ति को हर किसी की सहायता करते हुये अपने धन-सम्पत्ति की सार्थकता बनाये रखनी चाहिए।
धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु । अतृप्तः प्राणिनः सर्वेयाताः यास्यन्ति यान्ति च ।।
अध्याय सोलह-श्लोक तेरह
खाने-पीने की स्वादिष्ट चीजों, धन-सम्पत्ति, जीवन और सौन्दर्यमयी नारी से न तो आज तक कोई तृप्त हुआ है, न होगा और न ही हो रहा है। भूतकाल में भी सभी प्राणी इन विषयों-भोगों से अतृप्त होकर गये हैं और वर्तमान में भी अतृप्त दिखायी देते हैं तो भविष्य में भी यही स्थिति बनी रहेगी।
कहने का अभिप्रायः यह है कि आज तक किसी ने भी प्राप्त धन से, सौन्दर्यपूर्ण नारी के उपभोग से और स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों से कभी भी सन्तोष नहीं किया। इस विषय में मनुष्य अधिक-और अधिक की तृष्णा से ही पीड़ित रहा है। और रहेगा-यह एक कटु सत्य है।
तृणं लघु तृणात्तूलं तुलादपि च याचकः।
वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं याचयिष्यति।।
अध्याय सोलह-श्लोक पन्द्रह
किसी से कुछ माँगना सबसे नीच कार्य है। संसार में तिनका सबसे हल्का होता है, तिनके से भी रूई अधिक हल्की होती है और रूई से भी हल्का होता है माँगने वाला याचक। अब सवाल यह उठता है कि यदि याचक हल्का होता है तो हवा उसे उड़ाकर क्यों नहीं ले जाती ? उत्तर यह है कि वायु भी यह सोचती है, कि यदि मैं इसे उड़ाकर ले गई तो कहीं यह मुझसे ही न कुछ माँग बैठे।
अभिप्राय यह है कि माँगने वाले याचक को सभी हेय दृष्टि से देखते हैं व उससे बचना चाहते हैं, इसलिए माँगना निकृष्ट कर्म है।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तरमात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।
अध्याय सोलह-श्लोक सत्तरह
किसी को मीठी वाणी में बात करते देखकर सभी व्यक्ति प्रसन्न होते हैं। अतः हर व्यक्ति को सबसे मीठी वाणी में ही बोलना चाहिए, मीठा बोलने में कंजूसी करने से क्या लाभ ? इसमें तो कुछ खर्च भी नहीं होता। जब बिना कुछ दिये बहुत कुछ प्राप्त हो रहा है तो फिर वैसा न करना मूर्खता ही कहलाती है।
अतः मधुर वचन बोलने में ही मनुष्य का लाभ है।
कृते प्रतिकृति कर्यादधिंसने प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दष्टे दुष्टं समाचरेत् ।।
अध्याय सत्तरह – श्लोक दो
इस युग में मनुष्य को जन-साधारण तथा राजाओं की भांति व्यवहार करना चाहिए, संन्यासियों की तरह नहीं। उसे व्यवहार कुशल होना चाहिए, उसके प्रति जो जैसा व्यवहार करे उसे भी उसी प्रकार व्यवहार करना चाहिए। जो भलाई करता है उसके साथ भलाई करनी चाहिए किन्तु जो हिंसा का व्यवहार करे। उसके साथ हिंसा करने में तनिक भी दोष नहीं होता।
पिता रत्नाकरो यस्य लक्ष्मीर्यस्य सहोदरा।
शुङ्गो भिक्षाटनं कुर्यान्न दत्तमुपतिष्ठते।।
अध्याय सत्तरह-श्लोक पांच
जिस शंख का पिता समुद्र है, लक्ष्मी जिसकी सगी बहन है, वह शंख भी घर-घर जाकर भीख माँगता है। इसका कारण यह है कि शंख ने कभी कुछ दान नहीं दिया, इसी से उसे कुछ भी विशेष प्राप्त नहीं हुआ, इतने उच्च परिवार का होते हुए भी भिक्षुकों का सहायक ही रहा। शंख समुद्र से उत्पन्न होता है, लक्ष्मी का जन्म समुद्र से हुआ माना जाता है। साधु लोग गृहस्थों के घर से भिक्षा लेने के लिए शंख बजाकर अपने आगमन की सूचना देते हैं। इसीलिये-श्लोक में उक्त बातें कही गई हैं। इसलिए हर मनुष्य को दानशील होना चाहिए, दानशील मनुष्यों को दुःखों का सामना नहीं करना पड़ता। दुःख आने पर उनकी दानशीलता कवच बन जाती है। सम्पन्न होते हुए भी दानशील न होने पर अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
परोपकरणं येषां जागर्ति हुदये सताम्।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे।।
अध्यय सत्तरह -श्लोक पन्द्रह
जिन सद्पुरुषों के हृदय सागर में सदा परोपकार (परहित) की भावना जागृत रहती है, उनके सभी संकट (दुःख) नष्ट हो जाते हैं और उन्हें हर पग पर नाना प्रकार की सम्पत्तियाँ, सुख-वैभव सुलभ होते हैं।
परोपकार की महिमा और शक्ति अद्भुत है, परोपकारी मनुष्य के दुःख नष्ट होते हैं और वैभव की प्राप्ति होती है।
अतः मनुष्य को परोपकार की प्रवृत्ति अपनानी चाहिए, परोपकारहीन व्यक्ति का जीवन निरर्थक होता है।
व्यालाश्रयाऽपि विफलापि सकण्टकाऽपि, वक्राऽपि पङ्किलभवाऽपि दुरासराऽपि।
गन्धेन बन्धुरसि केतकि। सर्वजन्तोरेको गुणः खलु निहन्ति समस्त दोषान् ।।
अध्याय सत्तरह-श्लोक इक्कीस
विद्वान और गुणी व्यक्ति का आदर हर जगह होता है। एक भी गुण होने पर मनुष्य की ख्याति फैल सकती है। वह इकलौता गुण उसके अवगुणों व दोषों को दूर कर देता है। ठीक उसी तरह जैसे केतकि जो हर समय सांपों से घिरी रहती है और फल भी नहीं लगते, उसमें काँटे भी बहत होते हैं और सीधी भी नहीं होती। कीचड़ में पैदा होती है और आसानी से नहीं मिलती। इस प्रकार इतने सारे अवगुण रखने वाली केतकि में सभी प्राणियों को मोह लेने वाली गन्ध के रूप में एक ऐसा गुण होता है कि सभी उसके दोषों की उपेक्षा करके उसे पाने के लिए लालायित रहते हैं। आचार्य चाणक्य के कथनानुसार यह सिद्धान्त इस बात की पुष्टि करता है कि एक प्रखर गुण अनेक अवगुणों की उपेक्षा करने में समर्थ होता है।