विद्या - Knowledge

विद्या

रूप-यौवन-सम्पन्नाः विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीनाः न शोभन्ते निर्गन्धा इव किशुकाः।।

अध्याय तीन–श्लोक आठ

किंशुक के रक्तवर्ण के पुष्प देखने में तो खूबसूरत लगते हैं, परन्तु उनमें गन्ध नहीं होती इसलिए अच्छे व आकर्षक रंग को लिये रहने पर भी गन्ध रहित होने के कारण उपेक्षित होते हैं। लोगों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट नहीं होता तथा देवताओं के ऊपर चढ़ने से भी वंचित रहते हैं। इसी तरह उच्च कुल में जन्म लेने के पश्चात् रूपवान युवक भी विद्याहीन होने पर समाज में उचित आदर-सम्मान प्राप्त नहीं कर पाते। विद्या के अभाव में उनका ऊँचा वंश, रूप-सौन्दर्य, यौवन सबके सब उपेक्षित हो जाते हैं। अभिप्राय यह है कि उच्च वंश, सुन्दर रूप और सशक्त यौवन की शोभा विद्या से ही होती है। विद्या के अभाव में ये सब गुण किंशुक के पुष्पों के समान निरर्थक हो जाते हैं।

कामधेनुगुणा विद्या ह्यकाले फलदायिनी।
प्रवासे मातृसदृशा विद्या गुप्त धनं स्मृतम् ।।

अध्याय चार-श्लोक पाँच

आचार्य चाणक्य के मुताबिक विद्या समस्त फल देने वाली कामधेनु गाय के समान होती है, कामधेनु के बारे में चर्चित ही है कि वह सभी इच्छाएं पूर्ण करने वाली व सभी फलों की दाता थी। आज के युग में विद्या ही कामधेनु के समान है।

आचार्य चाणक्य विद्या को गुप्त धन बताते हैं, जो न, दिखाई पड़ती है, न ही उसका कोई विभाजन कर सकता है। और उसका हरण भी सम्भव नहीं है। प्रवास के समय यही विद्या व्यक्ति की सहायक होती है, जो कि माँ के समान होती है। वह कहते हैं कि विद्या-सा आभूषण इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर और कोई-सा नहीं हो सकता, इसीलिए व्यक्ति को सर्वप्रथम विद्यार्जन पर ही बल देना चाहिए।

 

किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्री न गर्भिणी।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान् न भक्तिमान्।।

अध्याय चार-श्लोक नौ

जिस प्रकार दूध न देने वाली, गर्भ न धारण करने वाली गाय सर्वथा निरर्थक है, उसी प्रकार विद्याहीन और माता-पिता की सेवा न करने वाला पुत्र भी सर्वथा अवाञ्छनीय है। ऐसे पुत्र से किसी को कोई लाभ नहीं हो सकता।।

यहाँ आचार्य चाणक्य का कथन है कि गाय वही उत्तम होती है जो दूध देने वाली और गर्भ धारण करने वाली हो, ठीक उसी तरह पुत्र भी वही वाञ्छनीय है जो विद्वान और माता-पिता का आज्ञाकारी हो।

 

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मों मित्रं मृतस्य च।।

अध्याय पाँच

श्लोक पन्द्रह विद्या धन ही ऐसा धन है जो अनजाने देश (विदेश) में भी विद्वान को सच्चा सहारा देता है, मित्र बनता है। नारी का सतीत्व ही घर में उसके आदर का कारण बना रहता है। रोगी का सच्चा मित्र उसकी औषध (औषधि) होती है और मृत्यु के बाद आत्मा को सद्गति देने वाला मनुष्य का सच्चा मित्र केवल धर्म है। जीवन में धर्माचरण करने वाला व्यक्ति ही मृत्यु के बाद शान्ति और मोक्ष की प्राप्ति करता है।

 

शुनः पुच्छमिव व्यर्थ जीवितं विद्यया विना।
न गुह्यगोपने शतं न
च दंशनिवारणे।।

अध्याय सात-श्लोक अट्ठारह

विद्याध्ययन बिना मनुष्य का जीवन उस कुत्ते की पूंछ जैसा होता है जो अपने शरीर के ऊपर से मक्खी को नहीं हटा सकता और न ही अपने गुप्त अंगों को ढंक सकता है।

अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कुत्ते की पूंछ न तो उसके गुदा को ढंक सकती है और न ही मच्छरों के डंक से उसका बचाव कर सकती है, इसीलिए वह निरर्थक है। ठीक उसी प्रकार विद्या से रहित मनुष्य का जीवन भी व्यर्थ है, क्योंकि वह मूर्ख होने के कारण न तो अपनी रक्षा करने में और न ही परिवार के गुप्त रहस्यों को छिपाने में समर्थ होता है और न ही अपने शत्रुओं के प्रहार को रोक पाता है। इसलिए विद्याहीन व्यक्ति का जीवन सर्वथा निरर्थक है।

 

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी। विद्या कामद्धा थेनुः सन्तोषो नन्दनंवनम्।

अध्याय आठ-श्लोक चौदह

क्रोध से मनुष्य का विनाश होता है। इसलिए क्रोध को साक्षात् यमराज कहा गया है। तृष्णा को वैतरणी नहीं कहा जाता है क्योंकि तृष्णा का मिटना उतना ही कठिन है जितना वैतरणी को पार करना। विद्या सब प्रकार का फल देती है, इसलिये वह वंदनीय है, किन्तु सन्तोष का स्थान निर्बाध आनन्द देने वाला होने के कारण सबसे ऊपर है। साथ ही सन्तोष इन्द्र के विहार-स्थल नन्दन वन के समान मोहक और असीम सुखद भी होता है।

 

गुणो भूषयते – रूपम् शीलं भूषयते कुलम् । सिद्धिर्भूषयते विद्यांभोगो भूषयते धनम्।।

अध्याय आठ-श्लोक पन्द्रह

किसी भी व्यक्ति का सुन्दर होना अच्छा है किन्तु यदि वह सुन्दर के साथ-साथ गुणवान् भी है तो उसकी सुन्दरता दो गुणी बढ़ जाती है। उसकी हर तरफ सराहना होगी। कुल (वंश) अच्छा होने के साथ यदि वह स्वभाव से शीलवान् व व्यवहार कुशल हो तो कुलीन होने का फल कई गुना ज्यादा हो जायेगा। ज्ञानी के साथ-साथ सिद्धिवान भी हो तो अति फलदायक है। धन की तो सार्थकता ही उपयोग करने में है। यदि मनुष्य अपने द्वारा संचित धन का उपयोग न करके उस पर सांप की तरह बैठ जाता है तो उसका धन संचित करना निरर्थक हो जाता है।
अतः सुन्दरता के साथ सद्गुण, उच्च कुल के साथ शील स्वभाव, ज्ञान के साथ सिद्धि व संचित धन का सदुपयोग, इन चारों से सम्पन्न व्यक्ति का जीवन बहुत ही प्रशंसनीय होता है। ऐसे सद्पुरुषों की ख्याति चारों ओर फैल जाती है।

 

किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्। दुष्कुलं चापि विदुषो देवैरपि स पूज्यते।।

अध्याय आठ श्लोक-उन्नीस

उच्च कुल व धनी घराने में पैदा होकर भी विद्याहीन व्यक्ति से किसी को क्या लाभ हो सकता है। सत्य तो यह है कि छोटे कुल में उत्पन्न व्यक्ति यदि विद्वान है तो वह अपनी विद्वता द्वारा अन्य व्यक्तियों को लाभ पहुँचाते हुए देवताओं द्वारा भी पूजित हो सकता है। इसका अर्थ यह है कि महत्व विद्या का है वंश का नहीं। विद्या सम्पन्न व्यक्ति ही वाञ्छित है।

 

विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् सर्वत्र पूज्यते। विद्यया लभते सर्वम् विद्या सर्वत्र पूज्यते।।

अध्याय आठ-श्लोक बीस

इस संसार में विद्वान का आदर सर्वत्र होता है। विद्वान की ही चहुँ ओर पूजा होती है। संसार में यश भी चारों ओर से प्राप्त होता है। अतः विद्या द्वारा ज्ञान प्राप्त करने में व्यक्ति को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। वस्तुतः विद्यां से संसार की सभी वस्तुएं (सुख, वैभव, ऐश्वर्य, वैभवशाली जीवन) प्राप्त हो सकता है। अंतः विद्या ही वाञ्छनीय है।

 

मांसभक्ष्यैः सुरापानैः पशुभिः पुरुषाकारैर्भाराक्रान्ता
मूर्खश्चाक्षरवर्जितैः।
हि मेदिनी।।

अध्याय आठ-श्लोक इक्कीस

माँस खाने वाले की प्रवृत्ति हिंसात्मक होती है। उससे पृथ्वी लोक के निवासी भयभीत हो जाते हैं। शराब पीने वालों से व अशिक्षित लोगों से भी हमारे समाज के सद्पुरुष दूर ही रहना पसन्द करते हैं। ऐसे मनुष्य शक्ल-सूरत से ही मनुष्य दीखते हैं। अन्यथा उनकी गणना हिंसक प्रवृत्ति के पशुओं में ही होती है।

अभिप्राय यह है कि भाँस खाने वाले, शराब पीने वाले व निरक्षर (काला अक्षर भैंस बराबर) मूर्ख व्यक्ति पृथ्वी पर भार समान ही होते हैं। ऐसे मानवीय गुणों से रहित यदि उपरोक्त तीनों गुण किसी व्यक्ति में एक साथ हों तो उसका जीवन भी मृत्यु के समान है।

 

धनहीनो ने हीनश्च धनिकः सः सुनिश्चयः। विद्यारलेन हीनो यः सः हीनः सर्ववस्तुषु ।।

अध्याय दस-श्लोक एक

जिस किसी के पास विद्या रूपी धन है तो उसे सभी धन प्राप्त होते हैं, सभी धनों में विद्या रूपी धन ही सबसे बड़ा धन है। यदि धनवान होते हुए भी किसी के पास विद्यारूपी धन नहीं है तो उसे दीन समझना चाहिए। जो मनुष्य धन से तो दरिद्र है, लेकिन विद्या उसके पास है तो उसे दीन नहीं समझना चाहिए।

अभिप्राय यह है कि तुच्छता और दरिद्रता का आधार धनहीनता न होकर विद्याहीनता है। अतः हर मनुष्य को धन की अपेक्षा विद्या प्राप्ति के लिए ही प्रयत्नशील होना चाहिए, क्योंकि विद्याहीन व्यक्ति धन को भी खो बैठता है। जबकि विद्वान अपनी विद्या की शक्ति से पर्याप्त धन एकत्रित कर लेता है।

 

सुखार्थी चेत् त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेत् सुखम् । सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतः सुखम् ।।

अध्याय दस-श्लोक तीन

विज्ञान के इस युग में यह इच्छा लगभग हर प्राणी की होती है कि वह सुखपूर्वक (आनन्दमय) जीवन बिताये। लेकिन विद्योपार्जन व सुख-प्राप्ति, यह दोनों चीजें ऐसी हैं जो साथ-साथ नहीं चल सकतीं।

अतः चाणक्य का कथन है कि जिस व्यक्ति को सुख की इच्छा हो वह विद्या प्राप्ति की इच्छा न करे, और इसी तरह जिसे विद्या प्राप्ति की कामना हो तो उसे सुख की इच्छा का त्याग कर देना चाहिए। यानी दोनों में से एक ही चीज प्राप्त हो सकती है-विद्या या सुख। यह निश्चित है कि सुख के लिए विद्या-प्राप्ति में प्रयत्नशील होना मूर्खता ही कहलायेगी।

 

येषां न विद्या न तपो न दानम् । न चापि शीलं न गुणो ने धर्मः। ते मृत्युलोके । भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण

मृगाश्चरन्ति।।

अध्याय दस-श्लोक सात

जिन व्यक्तियों के पास विद्या, दान, शील, तप व गुण नहीं हैं वे व्यक्ति पृथ्वी पर भार स्वरूप पशु के समान ही जीवन व्यतीत करते हैं अर्थात् मनुष्य रूप में वे केवल हिरण के समान विचरण करते हैं। जिनमें उक्त गुणों का अभाव है वे पशुतुल्य हैं।

चाणक्य के कहने का अभिप्राय है कि मनुष्य के जीवन की सफलता विद्वान, तपस्वी, दानी, शीलवान्, गुणवान् अथवा धर्मात्मा होने में है। इनमें से किसी भी गुण के अभाव में वह व्यक्ति मनुष्य नहीं पशु तुल्य है।

 

कामक्रोधौ तथा लोभं स्वादु शृङ्गार कौतुके। अतिनिद्रातिसेवे च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत्।।

अध्याय ग्यारह-लोक दस

विद्याध्ययन कर रहे व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे काम (विषय-चिन्ता), क्रोध (गुस्सा करना), लोभ (धन प्राप्ति की इच्छा), स्वाद (जिह्वा को प्रिय लगने वाले पदार्थों का सेवन), श्रृंगार (सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग करने, सजना-धजना), कौतुक (खेल-तमाशे, सिनेमा, टी. वी. आदि देखना), अतिनिद्रा (बहुत अधिक सोना) और अतिसेवा (किसी दूसरे की बहुत अधिक सेवा-चाकरी करना) इन आठों बातों का त्याग कर देना चाहिए।

 

जलबिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः। सः हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।
अध्याय बारह-श्लोक बीस

जिस तरह पानी की एक-एक बूंद से घड़ा भर जाता है, उसी तरह अभ्यास करने से सभी विद्याओं की प्राप्ति हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य को अपने जीवन में थोड़ा-थोड़ा करके धर्म का संचय भी करना चाहिए।

कहने का अर्थ यह है कि एक-एक बूंद पानी गिरने से घड़ा, एक-एक अक्षर प्रतिदिन पढ़ने से विद्वान, एक-एक पैसा जोड़ने से धनवान तथा थोड़ा-थोड़ा धर्मानुष्ठान (धर्म का कार्य) करने से मनुष्य धार्मिक प्रवृत्ति का बन जाता है। अतः किसी चीज को थोड़ा समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

 

पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तगतं धनम्। उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम्।।

अध्याय सोलह-श्लोक बीस

धन-सम्पत्ति पास होकर भी यदि वह दूसरों के पास पड़ी रहे और ऐन वक्त काम न आये तो ऐसे धनवान होने का क्या लाभ? इसी प्रकार पुस्तकों में लिखी विद्या भी किस काम की जब तक उसका सदुपयोग न किया जाये। विद्या और धन का महत्व उसका सदुपयोग करने में है, संचय करने में नहीं।

अभिप्रायः यह है कि पुस्तकों को पढ़कर काम चलाने वाला पंडित और दूसरों के पास अपना धन जमा करके उस पर निर्भर रहने वाले व्यक्ति अपने जीवन में समय पड़ने पर धोखा अवश्य खाते हैं।

 

पुस्तकं प्रत्ययाधीतं नाधीतं गुरुसन्निधौ। सभमामध्ये न शोभन्ते जारगर्भाः इव स्त्रियः ।।

अध्याय सत्तरह-श्लोक एक

गुरु मनुष्य का सच्चा मार्गदर्शक होता है, बिना गुरु के कोई भी व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। गुरु राह में आने वाले रहस्यों की विवेचना करके उन्हें सुलझा देता है। जो ज्ञान केवल पुस्तकें पढ़कर नहीं हो पाता, उस ज्ञान को व्यावहारिक ढंग से समझाने के लिए गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। गुरु के मार्गदर्शन के अभाव में केवल किताबी ज्ञान प्राप्त करना ठीक वैसा ही होता है जैसा समाज में व्यभिचारिणी स्त्री का रहना। अर्थ यह है कि गुरु के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने से ज्ञान में जो गहराई और निखार आता है वह स्वयं पुस्तकें पढ़ने से नहीं आता।

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