धीत्येदमर्थशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।
धर्मोपदेश विख्यातं कार्याकार्य शुभाशुभम्।।
अध्याय एक-श्लोक दो
धर्म की व्याख्या करते हुए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि समझदार व्यक्ति इस नीतिशास्त्र को पढ़कर ही अपने कार्यबोध यानी धर्म के प्रति जागरूक हो जाता है। उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान हो जाता है। वह जान जाता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। धर्म का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है, ऐसा होने पर ही वह नीतिगत चल सकता है। सामान्यतः देखें तो कुछ सामान्य बातें धर्म विरुद्ध हो जाती हैं जबकि वे धर्म-सम्मत मानी गयी हैं। विशेषतः ऐसा कार्य जिसके करने से श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इस बात को इस रूप में समझा जा सकता है कि यदि एक अतिपीड़ित व रोगी पशु को गोली मार दी जाये तो वह उचित होगा क्योंकि उसकी तड़पन से उसकी मौत भली।
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
येन विज्ञातमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते।।
अध्याय एक-श्लोक तीन
चाणक्य ने राजनीति के गहन रहस्यों का उल्लेख करते हुए कहा है कि इन रहस्यों की गूढ़ता तक पहुँचने वाला तो श्रेष्ठ ही है, इसे जानने भर वाला सर्वज्ञ हो जाता है। उनका स्पष्ट मत है कि यदि राजनीति के सूक्ष्म रहस्य जान लिए जायें तो व्यक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
उन्होंने स्पष्ट किया है कि उनका यह ग्रन्थ अपने आप में राजनीति का मुख्य पथ-प्रदर्शक है। जिस प्रकार सन्तरे की महक से ही कुछ लोग पेट भर लेते हैं, उसी प्रकार राजनीति के सूक्ष्म ज्ञान से कुछ लोग काफी कुछ अर्जित कर लेते हैं।
वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्।
रूपशीलां न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले।।
अध्याय एक-श्लोक चौदह
आचार्य चाणक्य का यह कथन आज के युग में बहुत ही सटीक व यथार्थवादी लगता है। वह कहते हैं कि बुद्धिमान व्यक्तिं विवाह के लिए कुलीन घराने की युवती का ही चयन करते हैं। वे नीच कुल की रूपसी के पीछे नहीं दौड़ते और जो इसके विपरीत जाते हैं, वे न तो बुद्धिमान कहलाते हैं और न ही सुख के भागी होते हैं। आचार्य चाणक्य गुण की प्रधानता को महत्त्व देते हुए कहते हैं कि यदि उच्च कुल की युवती रूप के दृष्टिकोण से सामान्य भी है तब भी वह नीच कुल की रूपसी से श्रेष्ठ है, क्योकि स्त्री का रूप और सौन्दर्य तो उसके गुण हैं।
वह स्पष्ट करते हैं कि अति रूपसी पत्नी पति के लिए शत्रु से कम नहीं होती, क्योंकि कोई भी उससे डाह कर सकता है, और उसका परिणाम घातक हो सकता है, अतः गुणी युवती से विवाह करना ही बुद्धिमान लोगों का काम है।
कान्तावियोगः स्वजनापमानो ऋणस्य शेषः कुनृपस्य सेवा।
दरिद्रभावो विषमा सभा च विनाऽग्निनैते प्रदहन्ति कायम् ।।
अध्याय दो-श्लोक चौदह
आचार्य चाणक्य ने जीवन के उन दुःखों का उल्लेख इस श्लोक में किया है जो उसे भोगने पड़े हैं। वह कहते हैं कि जिस व्यक्ति की पत्नी से वियोग हो जाता है वह दुःखी रहता है, वह व्यक्ति भी दुःखी रहता है, जो अपने परिजनों से अपमानित हो जाता है। वह कहते हैं कि कर्ज से उऋण न होने वाला व्यक्ति भी कष्ट ही भोगता है। आचार्य चाणक्य के अनुसार जिस व्यक्ति का मालिक दुष्ट प्रवृत्ति का होता है, वह भी कष्ट में होता है। साथ ही दरिद्र व्यक्ति मूर्खो के समाज में रहकर भी दुःख ही भोगता है। अतः व्यक्ति को इन परिस्थितियों से जहाँ तक सम्भव हो सके, बचना चाहिए।
सुकुले योजयेत्कन्यां पुत्रं विद्यासु योजयेत्।
व्यसने योजयेच्छत्रु मित्रं धर्मे नियोजयेत्।।
अध्याय तीन-श्लोक तीन
बुद्धिमान माता-पिता को अपनी पुत्री का विवाह सदैव श्रेष्ठ परिवार में ही करने की चेष्टा करनी चाहिए। पुत्र को उत्तम विद्या ज्ञान प्राप्त करने में प्रवृत्त करने के प्रति सतर्क करना चाहिए। शत्रु को किसी न किसी संकट में उलझाये रखने का प्रयास करना चाहिए तथा मित्र को परोपकार या धर्म कार्य करने की प्रेरणा देते रहना चाहिए।
अभिप्राय है कि उपरोक्त सभी बातों पर नियमपूर्वक अटल रहने वाले मनुष्य का जीवन हमेशा सुखमय रहता है।
उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति तापकम्।
मौनेन कलहो. नास्ति, नास्ति जागरिते भयम्।।
अध्याय तीन-श्लोक ग्यारह
निरन्तर परिश्रम ही गरीबी हटाने का अचूक उपाय है। परिश्रमी कभी निर्धन नहीं रह सकता । उद्यम करने वाले को प्रारब्ध में लिखा मिलता है, सोते सिंह के मुख में पशु अपने आप नहीं चले। जाते, परिश्रम के बिना तो सिंह को भी भूखा मरना पड़ता है। नाम का जाप करने वाले के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। शास्त्रों में पापों के प्रायश्चित के रूप में तप की ही महत्ता है, जो व्यक्ति निरन्तर जप करता रहता है, उसके पाप तो रह ही नहीं सकते।
उत्तर का प्रत्युत्तर देना अर्थात् ईंट का जवाब पत्थर से देना ही झगड़े का मूल होता है, किसी ने यदि अपशब्द कहे हैं और बदले में दूसरे ने भी ऐसा ही किया है तो समझो कि झगड़े की शुरुआत हो गयी, क्योंकि प्रत्युत्तर सदैव उग्र होता है और उग्रता झगड़ा बढ़ाने वाली होती है, झगड़े का निराकरण तो मात्र मौन ही है। यदि किसी को गाली का उत्तर नहीं दिया जायेगा तो उसका क्रोध शान्त हो जायेगा, इसीलिए मौन को सबसे बड़ा वरदान और सुख माना गया है। जागरूक तथा सावधान व्यक्ति को किसी प्रकार के भय की आशंका नहीं रहती। प्रायः रोग, शत्रु तथा चोर-डाकू आदि असावधान और सोते व्यक्ति पर ही आघात करते हैं, जागते को देखकर तो सभी भाग जाते हैं। अतः स्पष्ट है कि उद्योग-समृद्धि का, तप-पाप-नाश का, मौन-शान्ति का तथा सावधानी-भय से बचने के लिए निश्चित माध्यम है।
को हि भारः समर्थानां कि दूर व्यवसायिनाम्।
को विदेशः संविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम्।।
अध्याय तीन-श्लोक तेरह
समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति के लिए कोई काम करना कठिन नहीं होता, वे जो चाहते हैं कर गुजरते हैं। व्यापारी के लिए कोई भी दूरी उसके व्यापार कार्य में बाधक नहीं बनती, बड़े उत्साह के साथ वह हर दूरी को तय कर लेता है। विद्वान व्यक्ति के लिए कोई देश पराया नहीं होता। मधुर वचन बोलने वाले व्यक्ति का कोई भी शत्रु नहीं होता। उसके लिए सभी के द्वार हमेशा खुले रहते हैं। वे अपनी मधुर वाणी से सभी को अपना मित्र बना लेते हैं।
अभिप्राय यह है कि शक्ति- कार्य सिद्धि का, व्यापारी- दूर-समीप के अन्तर को मिटाने का, विद्या-देश-विदेश को एक समान रूप देने का तथा मधुर वचन-शत्रुता मिटाने व मित्रता बढ़ाने का साधन है।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
जन्म-जन्मानि लोकेषु मरणं तस्यं केवलम् ॥
अध्याय तीन-श्लोक बीस
मानव देह बड़े भाग्य से मिलती है। मानव देह मिलने के पश्चात् भी जो व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न न करे उसका जन्म निरर्थक है। वह तो इस संसार में बार-बार मरने के लिए जन्म लेता है और जन्म लेने के लिए ही मरता है।
अभिप्राय यह है कि मनुष्य के जन्म की सार्थकता धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष में से किसी एक की प्राप्ति है, जो अपनी बुद्धि से एक की प्राप्ति भी नहीं कर पाता उसका जन्म लेना तो मृत्युतुल्य ही है।
यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करष्यिति।।
अध्याय चार-श्लोक चार
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जीवन में समय का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि जीवन अपने में महत्त्वपूर्ण होता है। वह कहते हैं कि जब तक व्यक्ति नीरोगी है, तब तक मृत्यु करीब नहीं आती, तभी तक वह कर्म कर सकता है। कर्म भी आत्मकल्याण अथवा मोक्ष प्राप्ति सम्बन्धी । दान, परोपकार, तीर्थ सेवा, व्रत-सत्संग एवं पूजा आदि से मनुष्य को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, क्योंकि पता नहीं कब मृत्यु का वरण करना पड़े। अतः यह आवश्यक है कि व्यक्ति को सत्कर्मों में लिप्त रहना चाहिए। इसी से पुण्य की प्राप्ति होती है।
कुग्रामवासः कुलहीनसेवा कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या।
पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या विनाऽग्निना षट् प्रदहन्ति कायम्।।
अध्याय चार-श्लोक आठ
- जहाँ आजीविका सुलभ नहीं तथा लोगों में सामाजिकता नहीं उस गाँव में निवास करना,
- किसी नीच (शूद्र) पुरुष की नौकरी करना,
- सड़ा-गला, बासी तथा अरुचिकर भोजन करना,
- धर्मपत्नी का झगड़ालू होना,
- पुत्र का अशिक्षित तथा मूर्ख होना,
- लड़की का विधवा हो जाना।
उक्त छओं तत्त्व मनुष्यों को बिना आग के ही हर समय जलाते रहते हैं। इन छह में से प्रत्येक तत्त्व पुरुष को निरन्तर बहुत अधिक दुःख और पीड़ित करते हैं। मन की सुख-शान्ति जाती रहती है। न वह कभी चैन से खा पाता है, न चैन से सो पाता है। न ही सुख से बैठ पाता है। उसका चित्त हर समय दुःखी और अशान्त-सा रहता है।
कः कालः कानि पित्राणि को देश: को व्ययागमौ: ।
कश्चाहं का च मे शक्तिरिती चिन्त्यं मुहुर्मुहु: ।।
अध्यय्र चार – श्लोक अट्ठारह
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि, वह बार बार यह सोचता रहे कि उसके मित्र कितने हैं, उसका समय केसा हैं, उसका निवास कैसा है, उसकी आय कितनी है, और व्यय कितना है, वह कौन है, आत्मा है अथवा शरीर, स्वाधीन है अथवा प्रराधीन तथा उसकी शक्ति कितनी है। इन प्रश्नों पर विचार करते हुए मनुष्य को अपना जीवन बिताना चाहिए, अन्यथा वह प्रथा पत्थर के समान निर्जीव हो जाता है।
तावद् भयेषु भेतव्यं यावद भयमनागतम्।
आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रहर्तव्यमशंकया।।
अध्याय पांच-श्लोक तीन
बुद्धिमान पुरुष को तब तक ही भय से डरना चाहिये, जब तक कि भय सामने नहीं आ जाता। अगर एक बार भय सामने आ ही जाये तो उसका मुकाबला करना ही श्रेयष्कर है। भय के सामने आ जाने पर शंकित होना अथवा उसकी शक्ति से डरकर छिपने की कोशिश करना समझदारी का काम नहीं। जब संकट सामने है, तो जो होना है, होगा, देखा जायेगा-ऐसा न सोचकर उस पर पहल करते हुए वार करना चाहिये। वस्तुतः आत्मविश्वास और साहस के द्वारा व्यक्ति बड़े-बड़े संकट पर आसानी से काबू पा लेता है।
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षण-च्छेदन-ताप-ताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते, त्यागेन, शीलेन, गुणेन, कर्मणा।।
अध्याय पांच-श्लोक दो
जिस प्रकार चार विधियों-घिसना, काटना, तपाना तथा पीटने से सोने के खरे-खोटेपन की जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य के ऊंचेपन तथा श्रेष्ठता की जांच भी चार तरीकों उसकी त्यागवृत्ति, शील, गुण तथा सत्कर्मों से होती है।
अर्थनाशं मनस्तापं गृहिणी-चरितानि च।
नीचवाक्यं चापमानं गतिमान्न प्रकाशयेत् ।।
अध्याय सात-श्लोक एक
बुद्धिमान गृहस्थ व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने धन के नष्ट होने की मानसिक संताप (किसी भी पारिवारिक घटना से होने वाली मानसिक व्यथा) की, धर्मपत्नी की दुश्चरित्रता की, किसी नीच प्रवृत्ति के व्यक्ति द्वारा किये गये प्रहार की तथा अपने अपमान की चर्चा किसी से भूलकर भी न करे। इन समस्त बातों को यथासम्भव गुप्त रखना चाहिए। इन्हें प्रकाश में लाने वाला व्यक्ति समाज में हंसी, अपमान, निन्दा का पात्र बनता है। लोग उसे घृणा और हिकारत भरी दृष्टि से देखने लगते हैं। यही बुद्धिमान पुरुष का कर्म है।
सन्तोषस्त्रिषु कर्त्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु च नैव कर्तव्यः अध्ययने जपदानयोः॥
अध्याय सात-श्लोक चार
व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी स्त्री से ही सन्तोष करे, चाहे वह रूपवती हो अथवा साधारण, वह सुशिक्षित हो अथवा निरक्षर। इसी प्रकार व्यक्ति को जो भोजन प्राप्त हो जाये, उसी से सन्तोष करना चाहिए। आजीविका से प्राप्त धन के सम्बन्ध में भी यही विचार है। इसके विपरीत चाणक्य का यह भी कथन है कि शास्त्रों के अध्ययन, प्रभु स्मरण और दान कार्य में कभी भी सन्तोष नहीं करना चाहिए।
स्वर्गस्थितानामिव जीवलोके, चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे।
दान प्रसंगो मधुरा व वाणी, देवार्चनम् ब्राह्मण-तर्पणश्च।।।
अध्याय सात-श्लोक पन्द्रह
पृथ्वी पर स्वर्ग से उतरे अवतारों के जन्म लेने पर उनकी पहचान निम्न चार गुणों से की जा सकती है
- उदारतापूर्वक दान देने की प्रवृत्ति,
- सदैव मीठी वाणी में मधुर वचन कहना,
- देवों की पूजा-अर्चना करना,
- ब्राह्मणों को भोजन-वस्त्र आदि देकर तृप्त रखना।
अभिप्राय यह है कि दानशील, मधुरभाषी, देवपूजक और ब्राह्मणों के प्रति सेवाभाव रखने वाले व्यक्ति को ही पृथ्वी पर स्वर्गलोक से अवतरित दिव्य पुरुष समझना चाहिए। यही अवतारों के गुण होते हैं।
अधमा धनमिच्छन्ति धनमानौ च मध्यमाः।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
अध्याय आठ-श्लोक एक
इस संसार में अधम व्यक्ति धन को ही महत्त्व देते हैं। उन्हें जैसे-तैसे धन मिलना चाहिए, केवल धन प्राप्त करना ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह किसी भी स्तर तक जा सकते हैं और मान-सम्मान उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता है। शरीर बेचकर धन कमाने वाली वेश्या की कोटि में ही ऐसे लोगों को रखा जाना चाहिए। मध्यम स्तर के व्यक्ति धन के साथ ही साथ मान को भी महत्व देते हैं। उन्हें धन तो अवश्य चाहिए, किन्तु सम्मान सहित । इस प्रकार उनके जीवन का लक्ष्य धन और मान दोनों की ही प्राप्ति होता है। इन दोनों से भिन्न उत्तम श्रेणी के पुरुष होते हैं, इनके जीवन का लक्ष्य केवल सम्मान प्राप्त करना ही होता है। अतः उनका आचरण भी उसी प्रकार का होता है।
परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः।
त ‘एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्।।
अध्याय नौ-श्लोक दो
जो नीच प्रवृत्ति के व्यक्ति दूसरों के दिलों को चोट पहुँचाने वाले मर्मवेधी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं, वे अपने विष: भरे वचनों से कभी-कभी स्वयं भी घायल हो जाते हैं। अपने वचनों द्वारा बिछाये हुये जाल में स्वयं भी घिर जाते हैं और उसी तरह से नष्ट हो जाते हैं, जिस तरह से बल्मीक (रेत के टीले) के भीतर बांबी समझकर घुसा सांप बाहर न निकल पाने के कारण उसके अन्दर ही अन्दर दम घुटने से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अतः किसी भी व्यक्ति को किसी को कष्ट पहुँचाने वाले वचनं नहीं बोलने चाहिएं, किसी की बुराई नहीं करनी चाहिए।
गृहासक्तस्य नो ‘विद्या नो दया मांसभोजिनः।
द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रैणस्य न पवित्रता ।।
अध्याय ग्यारह – श्लोक पांच
जिस प्रकार माँसाहारी व्यक्ति में दया, धन के लोभी में सत्य, व्यभिचारी में पवित्रता नहीं हो सकती, ठीक उसी प्रकार घर के प्रति आसक्ति रखने वाले को विद्या प्राप्त नहीं हो सकती। विद्या प्राप्ति के लिए मोह, दया; ममता के भावों को जगाने के लिए मॉस-भक्षण का; सत्य को अपनाने के लिए लाभ और पवित्रता के लिए स्त्रियों में आसक्ति का परित्याग ही एकमात्र उपाय है।
अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा।
द्वावेते सुखमेधेते यद्भविष्यो विनश्यति।।
अध्याय तेरह – श्लोक छः
ऐसा व्यक्ति दूरदृष्टि व महाज्ञानी कहलाता है, जो विपत्ति के समय की पूर्व कल्पना से ही अपने बचाव के सभी उपाय कर लेता है और जिसे संकट या दुःख के आगमन पर आत्म-रक्षा का उपाय यथाशीघ्र सूझ जाता है। ऐसा व्यक्ति हर तरह से अपने जीवन में सुख की वृद्धि कर लेता है, किन्तु जो व्यक्ति भाग्य के सहारे चलता है यानी मानता है कि जो भाग्य में लिखा है वही होगा उसका विनाश अवश्य होता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि भाग्य के सहारे न रहकर आने वाली विपत्ति का पहले से ही निदान करके रखना अथवा दुःख के आते ही उपाय करना ही अच्छा है। हर मनुष्य को संकट से उद्धार के लिए पुरुषार्थ (कर्म) अवश्य करना चाहिए। पुरुषार्थी तो संकट से उबर जाता है लेकिन भाग्य के सहारे रहने वाला मनुष्य डूब जाता है।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनस्यैव तस्य जन्म निरर्थकम् ।।
अध्याय तेरह – श्लोक नौ
मानव जीवन बड़े भाग्य से मिलता है। मानव देह मिलने पर भी जो अपनी बुद्धि का उपयोग करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष (जीवन के लक्ष्य) प्राप्त करने का प्रयत्न न करे, उसके मानव होने का कोई लाभ नहीं। ऐसे व्यक्ति का तो पशु योनि में जन्म लेना भी पर्याप्त है। उसका जन्म बकरे के गले में लटकते स्तन (दुग्धहीन) के समान निरर्थक है।
अभिप्राय यह है कि ऐसे मूर्ख व्यक्ति को परमपिता परमात्मा भी मानव देह देकर दुःखी होता है। अतः मनुष्य योनि में आने के पश्चात् सभी का यह कर्तव्य हो जाता है। कि सद्गुणों एवं सत्कर्मों के द्वारा फिर से मनुष्य योनि में आने के लिए उक्त चार पुरुषार्थों की प्राप्ति करके अपना जीवन सार्थक करें।
कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी।
तथापि सुधियश्चार्याः सुविचार्यैव कुवते।।
अध्याय तेरह-श्लोक सत्तरह
सम्यक् विचार न करना विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली सम्पत्तियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए सुधीजन एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बुद्धि भी कर्मफल से ही प्रेरित होती है। इसे स्वीकार करते हुए ही विद्वान और सज्जन पुरुष विवेकपूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।
युगान्ते प्रचलन्तेमेरुः कल्पान्ते सप्त सागराः।
साधवः प्रतिपन्नार्थाः न चलन्ति कदाचन्।।
अध्याय तेरह – श्लोक सत्तरह
युग के अन्त में सुमेरु पर्वत को चलायमान होना सम्भव है। कल्प के अन्त में सातों समुद्रों का अपनी मर्यादा का त्याग सम्भव है, परन्तु सज्जन महात्मा युग-युगान्तर में भी अपनी संकल्प प्रवृत्ति एवं प्रतिज्ञा से कभी भी विचलित नहीं होते, वे अपने निश्चय पर सदैव अडिग रहते हैं। अतः उनका कथन सदैव विश्वसनीय होता है।
आचार्य चाणक्य का कथन है कि सज्जन पुरुष का आचरण सदैव एक सा रहता है। वह कभी भी परिवर्तनीय नहीं होता है। सज्जन पुरुष की मान्यताएं प्रत्येक ही अवस्था में अपरिवर्तनशील होती हैं। अतः हमें उनके आचरण मान्यता निर्धारण के साथ ही साथ मान्यताओं पर अडिग रहना भी सीखना चाहिए।
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः।।
अध्याय चौदह-श्लोक पांच
जल में तेल, दुष्ट व्यक्ति के पास रहस्य, सुपात्र को दिया गया दान तथा बुद्धिमान को उपदेश के रूप में दिया गया शस्त्र-ज्ञान थोड़ा होने पर भी स्वयं विस्तार का रूप ले लेते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि वस्तु बहुत शीघ्र विस्तार का रूप ले लेती है। जिस प्रकार जल में तेल की कुछ बूंद डालते ही वह सारे पानी में फैल जाता है, दुष्ट व्यक्ति को बताई गयी हर रहस्य की बात अन्यों के सामने प्रकट हो जाती है, बुद्धिमान को दिया गया थोड़ा-सा ज्ञान भी विकसित हो जाता है, सुपात्र को दिया गया दान अधिक फलदायक होता है। इसी प्रकार अपनी सामर्थ्यानुसार प्रत्येक वस्तु विस्तार पाती है।
धर्माख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत् बन्धनात् ।।
अध्याय चौदह-श्लोक छः
धर्म कथा सुनते समय, श्मशान में शवदाह को देखकर तथा रोगग्रस्त रोगी का कष्ट अनुभव करते हुए, मानव हृदय में जो संसार से विरक्ति की भावना पैदा होती है, यदि यह भावना मन में स्थिर हो जाये, क्षणिक न रहे तो मनुष्य संसारी मायाजाल से शीघ्र ही मुक्ति पा ले।
दुःख का विषय तो यही है कि बुद्धि को निर्मल बनाने वाले प्रसंगों से हटते ही मनुष्य पुनः संसारी बनकर मोह-माया में लिप्त हो जाता है।
उत्पन्न-पश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी।
तादृशी यदि पूर्व स्यात् कस्य न स्यान्महोदयः।।
अध्याय चौदह-श्लोक सात
पाप कर्म करने के बाद मनुष्य के मन में पश्चाताप के भाव जो अक्सर उत्पन्न हो जाया करते हैं, वह यदि पाप कर्म से पूर्व हो जाया करें तो भू-तल पर कोई भी दुष्कर्म होगा ही नहीं, जब कोई दुष्कर्म ही न होगा तो सभी लोग जीवन-मुक्त हो जायेंगे।
दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ता वसुन्धरा।।
अध्याय चौदह-श्लोक आठ
इस पृथ्वी पर रहते हुए दान, तप, शूरता, वीरता, विद्वता, सुशीलता (सज्जनता) और नीति-निपुणता का कभी घमण्ड नहीं करना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर एक से बढकर एक दानी, शूरवीर और विद्वान हुए हैं। आज भी जहाँ-तहाँ उक्त सद्गुणों से विभूषित सदृपुरुषों की कमी नहीं है। अतः परमपिता परमेश्वर की कृपा से कहीं किसी क्षेत्र में आपको भी कुछ विशिष्टता मिली है, तो इसे कृतज्ञ और विनम्रता से स्वीकार करते हुए सद्कर्म करना चाहिए।
सुसिद्धमौषधं धर्म गृहच्छिद्रं च मैथुनम् ।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान प्रकाशयेत् ।।
अध्याय चौदह-श्लोक सत्रह
कुछ बातें कभी किसी के समक्ष प्रकाशित न करने योग्य होती हैं, वे हैं, अचूक औषधि, धर्म-कार्यों का स्वरूप, घर के दोष, सम्भोग, बुरा भोजन और निन्दा के शब्द। इनके प्रकाशन से कहने वाले का अपयश ही होता है, लाभ कभी नहीं होता। आचार्य चाणक्य का कथन है कि उपर्युक्त सभी बातें गोपनीय रहने पर ही ठीक रहती हैं, अन्यथा सिवाय हानि के और कुछ भी हाथ नहीं लगता।
कुचैलिनंदन्तमलोपधारिणम्, ब्रह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं च।
सूर्योदये चास्तमिते शयानं, विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक चार
मलिन वस्त्र धारण करने वाले, दाँत साफ न रखने वाले, सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोने वाले, कटु वचन बोलने वाले और अधिक भोजन करने वाले मनुष्यों को समाज में न तो धन प्राप्त होता है, न यश। समाज ऐसे लोगों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखता। यदि साक्षात् विष्णु भी हों, तो लक्ष्मी उन्हें छोड़ देती है, अन्यों का तो कहना ही क्या ?
अर्थ यह है कि मैले-कुचैले और गन्दे रहने वाले व्यक्ति आलसी होने के कारण दरिद्र होते हैं। दरिद्रता को खत्म करने के इच्छुक व्यक्तियों को आलस्य का त्याग करके सदैव साफ-सुथरा तथा उद्यमी बने रहना चाहिए। इसी में उनका हित है। अन्यथा समाज भी उन्हें पसन्द नहीं करता।
अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्।
अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शंकर-भूषणम्।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक सात
समर्थ पुरुष के लिए अयोग्य वस्तु भी भूषण स्वरूप हो जाती है जबकि नीच पुरुष के लिए योग्य वस्तु भी अनुपयुक्त तथा दोषयुक्त बन जाती है, उदाहरण के लिए देवों का अजर-अमर बनाने वाला अमृत, राहु के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ, जबकि प्राणघातक विष भी भगवान शंकर के लिए आभूषण बन गया।
अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्या:,
अल्पश्चः कालो बहुविघ्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयम्।
हँसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक दस
शास्त्रों की संख्या अनन्त है। ज्योतिष, आयुर्वेद तथा धनुर्वेद आदि की विद्याओं की भी गणना नहीं की जा सकती। इसके विपरीत मनुष्य का जीवन बहुत अल्प है और उस अल्पकाल के जीवन में रोग, शोक, कष्ट आदि अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। इस स्थिति में मनुष्य को शास्त्रों का संसार (सारांश) ही ग्रहण करना चाहिए। जिस तरह से हंस-दुध व पानी में से सिर्फ दूध को पी लेता है और पानी को छोड़ देता है, उसी तरह बुद्धिमान मनुष्य को अनेक विधाओं और शास्त्रों के सार को ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि सभी विधाओं और शास्त्रों को जानना तो अल्पकालिक जीवन में किसी के लिए भी सम्भव नहीं है।
छिन्नोऽपि चन्दनतरुर्जहाति गन्धम् वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम्।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः, क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक अट्ठारह
इस संसार में कट जाने के पश्चात् भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्ध नहीं छोड़ता, हाथी बूढ़ा हो जाने पर भी अपनी विलासिता नहीं छोड़ता, गन्ना (ईख) कोल्हू में पिल जाने के पश्चात् भी अपनी मिठास नहीं छोड़ता, कुलीन पुरुष (सदुपुरुष) अर्थाभाव आ जाने पर भी अपनी उदारता का त्याग नहीं कर देता। । अर्थ यह है कि सद्पुरुष संकट के समय भी अपने गुणों को नहीं त्यागते, बल्कि उनकी रक्षा करते हैं, और दूसरों के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करेते हुए यश को प्राप्त करते हैं।
दूरागतं पथि श्रान्तं वैवश्येन गृहमागतम्।
अनर्चयित्वा यो भुङ्क्ते स वै चाण्डाल उच्यते।।
अध्याय पन्द्रह-श्लोक ग्यारहे
मानव का धर्म है लोगों की सहायता करना, उनका सुख-दुःख बांट लेना, परिचित अथवा अपरिचित व्यक्ति को, रास्ता चलने से थके-मांदे तथा किसी स्वार्थ के कारण आश्रय की इच्छा से घर पर आये व्यक्ति को बिना खिलाए-पिलाए जो स्वयं खा-पी लेता है वह चाण्डाल कहलाता है।
आहार निद्रा भय मैथुनञ्च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।।
धर्मोहि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना: पशुभिः समानाः ।।
अध्याय सत्तरह -श्लोक सत्तरह
आहार-खाना-पीना, निद्रा-सोना-जागना, भय-संकट अथवा दुष्ट से डरना, मैथुन-स्त्री सम्भोग और सन्तान पैदा करना आदि ये सभी गुण पशुओं और मनुष्यों में समान रूप से उपलब्ध हैं। इस तरह मनुष्य पशु समान है, लेकिन मनुष्यों को पशुओं से अलग करने वाला एकमात्र गुण धर्म-कर्म अथवा कर्तव्य पालन है।
अतः जो व्यक्ति अपने कर्तव्य व कर्मों का पालन उचित ढंग से नहीं करते, वे पशु के समान हैं, उनसे किसी भी प्रकार भिन्न नहीं हैं।