परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत् तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्॥
अध्याय दो-श्लोक पाँच
आचार्य चाणक्य ने व्यावहारिक तथ्य की ओर इशारा करते हुए लिखा है कि जो व्यक्ति पीठ पीछे किसी की निन्दा करता है और मुख के सामने मीठी वाणी बोलता है, जो व्यक्ति उस घड़े के समान व्यवहार करता है जिसमें ऊपर दूध नजर आता है अन्दर विष भरा है, तो ऐसा व्यक्ति न तो विश्वसनीय होता है और न ही सच्चा मित्र, ऐसे व्यक्ति को तो त्यागने में ही भलाई है।
आचार्य चाणक्य सच्चे व्यक्ति की पहचान बताते हुए कहते हैं कि कुछ व्यक्ति मुंह पर तो चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, किन्तु बाद में निन्दा से बाज नहीं आते। ऐसे लोग पीठ में छुरा भौंकने वाले होते हैं। जो व्यक्ति ऐसे लोगों पर विश्वास करता है, उस व्यक्ति का मृत्यु योग निकट ही जानिये। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि इसके विपरीत मुंह पर कटु बोलने वाला और पीठ पीछे बढ़ाई करने वाला व्यक्ति ही सच्चा मित्र होता है, हितैषी होता है।
ने विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चाऽपि न विश्वसेत् ।
कदाचित् कुपितं मित्रं सर्वगुह्यं प्रकाशयेत्।।
अध्याय दो –श्लोक छ:
निःसन्देह वह व्यक्ति अविश्वसनीय होता है जो क्रुद्ध होने पर सारे भेद उगल देता है। ऐसा व्यक्ति कदापि मित्रता के योग्य नहीं होता है। आचार्य चाणक्य का कथन है कि ऐसा व्यक्ति निकृष्ट श्रेणी का होता है और जो भी ऐसे व्यक्ति को मित्र बनाता है वह सदैव धोखा ही खाता है।
अर्थात् क्रोध की अवस्था में भी जो व्यक्ति संयम बरत सके वही व्यक्ति मित्रता हेतु उपयोगी होता है। आचार्य चाणक्य के कथन का अभिप्राय यह है कि गुण और दोष का आंकलन करने के बाद ही व्यक्ति को मित्रता के लिये हाथ बढ़ाना चाहिए। वरना वह जीवन पर्यन्त कष्ट ही भोगता है।
दुराचारी दुरादृष्टिदुरावासी च दुर्जनः।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्र विनश्यति।।
अध्याय दो-श्लोक उन्नीस
पार्थिव अग्नि की ज्वाला से भी अधिक जलाने वाली अग्नि मानसिक अग्नि होती है, वह अग्नि तन-मन को जलाकर भस्म करती है।
पत्नी के वियोग की अग्नि मनुष्य को जलाने वाली होती है, विशेषकर वृद्धावस्था में मिलने वाला यह दर्द और भी अधिक कष्टकारी होता है।
अपमान तो अपमान ही होता है, किन्तु बन्धु-बांधवों द्वारा किया गया अपमान तो दिल को जलाकर ही रख देता है। इसी प्रकार कर्जा अदा न कर पाने की चिन्ता भी मनुष्य को जलाती है।
दुष्ट राजा की सेवा, दरिद्रों और मूर्खों की सभा में जाने से भी जो अपमान होता है वह शरीर को जलाता है।
दर्जनस्य च सर्पेस्य वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पों दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे।
अध्याय तीन-श्लोक चार
दर्जन और सांप दोनों ही एकसमान कष्टदायी होते हैं लेकिन यदि दोनों में से एक के साथ मजबूरीवश रहना पड़े तो आचार्य चाणक्य के विचारानुसार सांप के साथ रहना, दुर्जन के साथ रहने से अच्छा है। सांप तो अपने जीवन की रक्षा हेतु एक बार ही काटता है, किन्तु दुर्जन समय-असमय, कदम-कदम पर अनेक प्रकार के कष्ट देता रहता है। दुर्जन व्यक्ति द्वारा पहुँचायी गयी पीड़ा सर्पदंश से भी अधिक पीड़ित करने वाली होती है। अतः दुर्जन से कोई व्यवहार नहीं रखना चाहिए। वह कभी भी विश्वासघात करके हानि पहुँचा सकता है।
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः सा पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः।।
अध्याय छ:-श्लोक पाँच
इस भू-लोक पर संसार की यही रीति है कि धन-सम्पन्न होने पर मनुष्य के मित्रों, बन्धु-बान्धवों की संख्या बहुत बढ़ जाती है। धन की प्रचुरता ही मनुष्य को समाज में अधिक यश दिलवाती है। धनाढ्य व्यक्ति ही शान से रह सकता है। धन सब कुछ नहीं, किन्तु धन के बिना भी जीवन-यात्रा पूर्ण नहीं होती।
सत्य तो यह है कि इस संसार में केवल धनवान को ही विद्वान और सम्मानित व्यक्ति समझा जाता है। धनहीन के गुण न केवल उपेक्षित हो जाते हैं अपितु उसे तो मनुष्य ही नहीं समझा जाता, उसकी बेइज्जती की जाती है। धनहीन व्यक्ति को सभी हीन दृष्टि से देखते हैं।