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मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति।।

अध्याय एक – श्लोक चार

मूर्ख शिष्य को शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं क्योंकि वह तो उस शिक्षा को उल्टा ही समझेगा और उसका उपभोग नहीं कर पायेगा। इसी प्रकार दुष्ट और कुलटा स्त्री का पालन करने से भी व्यक्ति कष्ट ही भोगता है। आचार्य चाणक्य ने अपनी बात को स्पष्ट किया है कि वह यानी कुलटा स्त्री सदैव धर्म विरुद्ध ही आचरण करेगी। उसे सदाचार से कोई लेना-देना नहीं, इसका तात्पर्य यह हुआ कि इस प्रकार की स्त्री से कोई लाभ नहीं जो विदुषी तो हो ही नहीं, साथ ही धर्म परायण भी न हो। दुःखी व्यक्ति का साथ सदैव कष्टकारी ही होता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दुःखी व्यक्ति अपने ही दुःख या स्वार्थ में निहित रहता है। अतः उसमें विवेक का अभाव होता है, तब वह दूसरे का हित सोच ही नहीं। सकता।

भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वराङ्गना।
विभवो दानशक्तिश्चनाऽल्पस्य तपसः फलम् ।।

अध्याय दो -श्लोक दो

भारतीय धर्मशास्त्रों में पुनर्जन्म का जो उल्लेख मिलता है, आचार्य चाणक्य उसे अक्षरशः स्वीकार करते हैं, वह कहते हैं कि आवश्यकता, पूर्ति, भोजन की सुलभता, भोग-विलास की उपलब्धता, धन-सम्पदा का मिलना एवं सुन्दर तथा गुणी स्त्री का मिलना पूर्वजन्मों के फल पर निर्भर करता है। । देखा यह जाता है कि जिस व्यक्ति के पास सुन्दर पत्नी होती है, उसमें सम्भोग शक्ति का अभाव हो सकता है, जिस व्यक्ति के पास धन है, उसमें दानवृत्ति नहीं होती, जिस व्यक्ति में दानवृत्ति होती है उसके पास धन का अभाव होता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति के पास सुस्वादु भोजन उपलब्ध है उसके पास भोजन का आनन्द लेने के लिए दांत उपलब्ध नहीं होते और जिसके पास सुन्दर स्वच्छ दांत हैं उसके पास स्वादिष्ट भोजन का अभाव बना रहता है। या फिर उसकी पाचन-शक्ति साथ नहीं देती।

यही तो संयोग की बात है अर्थात् भाग्य की विडम्बना होती है, इसीलिए पूर्वजन्मों का फल ही व्यक्ति को संयोग या दुर्योग प्रदान करता है।

 

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।
विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ।।

अध्याय दो-श्लोक तीन

प्रत्येक व्यक्ति को सब कुछ उपलब्ध नहीं होता, यदि ऐसा होता तो व्यक्ति के लिए पृथ्वी पर ही स्वर्ग हो जाता, ऐसा व्यक्ति के भाग्य से ही सम्भव होता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति की पत्नी पति-परायण होती है और उसके व्यवहारानुकूल होती है, जिसका पुत्र आज्ञाकारी होता है और पिता की आज्ञानुसार आचरण करता है, जो व्यक्ति उपलब्ध धन-सम्पदा में हीसन्तुष्टि पाता है, वही व्यक्ति पृथ्वी पर स्वर्ग का अधिकारी होता है। इस पृथ्वी-लोक पर उपर्युक्त के अतिरिक्त बातें व्यक्ति को कष्ट देने वाली ही होती हैं। देखा जाये तो होता यह है कि जिस व्यक्ति की पत्नी पति के अनुकूल होती है तो उसकी सन्तान आज्ञा अवहेलना करने वाली होती है और जिसकी सन्तान अनुकूल होती है, उसकी पली दुराचारिणी होती है। अतः व्यक्ति का सबसे बड़ा गुण सन्तुष्टि स्वभाव होता है, जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता है वह सब कुछ होते हुए भी कष्ट ही पाता है।

 

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः सः पिता यस्तु पोषकः।।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः सः भार्या यत्र निर्वृतिः।।

अध्याय दो-श्लोक चार

आचार्य चाणक्य सुखद गृहस्थी का नुक्ता बताते हुए कहते हैं कि परिवार का सुख व समृद्धि इस बात पर निर्भर करता है कि परिवार का स्वरूप कैसा है। | जिस परिवार में पिता-भक्त पुत्र होता है अर्थात् जो पिता व माता का सहायक होता है-वही सच्चा पुत्र कहलाता है। जो पिता, पुत्र का हर प्रकार से उचित भरण-पोषण करता है और उसके सुख-दुःख का ध्यान रखता है, वही सच्चा पिता कहलाता है। प्रत्येक व्यक्ति पर विश्वास नहीं किया जा सकता। जिन व्यक्ति पर विश्वास किया जा सके वही सच्चे अर्थों में मित्र कहलाने योग्य होता है।आचार्य चाणक्य का मत है कि जो नारी अपने पति की हर प्रकार से सुख देने में भागीदार होती है, वही सच्चे अर्थों में पत्नी कहलाती है।

वह स्पष्ट करते हैं कि इस प्रकार से सुख व समृद्ध परिवार की परिभाषा उस परिवार के सदस्य अपने व्यवहार से गढ़ते हैं।

 

माता शत्रुः पिता वैरी याभ्यां बाला न पाठिताः।
न शोभन्ते सभामध्ये हंसमध्ये बकाः यथा॥

अध्याय दो-श्लोक ग्यारह

आचार्य चाणक्य ने शिक्षा के महत्व के साथ-साथ माता-पिता के कर्तव्य का उल्लेख इस श्लोक में किया है। वह कहते हैं कि जो माता-पिता अपने पुत्र को शिक्षित नहीं करते हैं, वे उसके शत्रु के समान होते हैं।

वह स्पष्ट करते हैं कि अशिक्षित व्यक्ति की बुद्धिमान समाज या सभा में वैसी ही स्थिति होती है जैसी कि हंसों के मध्य बगुले की अर्थात् हंसों के मध्य जैसे बगुला शोभा नहीं देता, वैसी ही शिक्षित समाज में अशिक्षित व्यक्ति की भी पूछ नहीं होती।

अतः यह आवश्यक है कि प्रत्येक माता-पिता अपने पुत्र की सुख व समृद्धि के लिये उसे शिक्षित करें, इसके साथ ही वह उचित मान-सम्मान का अधिकारी हो सकेगा।

 

लालनाद् बहवो दोषास्ताऽनाद् बहवो गुणाः।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताऽयेन तु लालयेत्।।

अध्याय दो-श्लोक बारह

आचार्य चाणक्य माता-पिता के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि लाङ-प्यार बच्चे में दोष ही उत्पन्न करता है और प्रताड़ना सुधार का प्रतीक है। जो माता-पिता अपने पुत्र को व गुरु अपने शिष्य को केवल लाङ-प्यार ही करते हैं और गलत काम करने पर दण्डित नहीं करते, ऐसे बेटे व शिष्य बिगड़ जाते हैं।

वह कहते हैं कि बच्चे का भविष्य देखते हुए माता-पिता का यह दायित्व बन जाता है कि उन्हें जहाँ अच्छा करने पर प्रोत्साहित करें, उन्हें स्नेह दें, वहीं गलत करने पर उन्हें प्रताडि करना भी आवश्यक है। इसी से उन्हें विकास का रास्ता मिलेगा।

 

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्याथै कुल त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवी त्यजेत्।।

अध्याय तीन-श्लोक दस

इस संसार में हर मनुष्य के जीवन के लिए कुछ सिद्धान्त निश्चित हैं। उनमें से एक यह है कि अपने कुल या परिवार की रक्षा के लिए किसी एक का त्याग करना पड़े तो तुरन्त कर दें, पूरे गांव की रक्षा के लिए अपने स्नेहीजनों का त्याग करना पड़े तो कर दें। पूरे देश के लिए गांव छोड़ना पड़े तो निःसंकोच छोड़ दें और यदि अपनी अन्तरात्मा की सच्चाई की रक्षा के लिए सर्वस्व भी छोड़ना पड़े तो छोड़ दें। सत्य की रक्षा करना तो सबसे महान् कर्त्तव्य है।

 

एकेनापि सुवृक्षेण पुष्यितेन सुगन्धिना।
वासितं तद्वनं सर्व सुपुत्रेण कुलं तथा।।

अध्याय तीन-श्लोक चौदह

किसी भी वस्तु की संख्या का उतना महत्व नहीं होता जितना गुणवत्ता का, जिस प्रकार एक ही वक्ष अपने पुष्प और सुगन्ध से सारी वाटिका को सुगन्धित और सुशोभित बना दे है, उसी प्रकार किसी परिवार में एक ही पुत्र गुणवान और यशस्वी हो जाये तो अपने गुणों से अपने कुल को यशस्वी और प्रसिद्ध बना देता है। अपनी शक्ति को व्यापक क्षेत्र में व्यय न करके मनुष्य को एक ही दिशा में अपनी प्रतिभा का उपयोग करना चाहिए।

अतः वंश गुणवान पुत्र से ही ऊंचा उठता है। इसलिये गणहीन अनेक पुत्रों की अपेक्षा एक ही गुणवान पुत्र होना अत्याधिक अच्छा है।

 

एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्विना।
दह्यते तद्ननं सर्व कुपुत्रेण कुलं तथा।।

अध्याय तीन-श्लोक पन्द्रह

एक में बड़ी शक्ति है, निर्माण का क्षेत्र हो या विनाश का, चारों तरफ एक ही शक्ति से दोनों कार्य सिद्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार अग्नि से जलता हुआ एक ही सूखा हुआ वृक्ष सारे वन को जलाकर राख कर देता है, उसी प्रकार एक ही कलंकित पुत्र से सारा कुल कलंकित हो जाता है। अभिप्राय यह है कि यदि किसी के चार पुत्रों में तीन सुपुत्र व एक कुपुत्र है, तो वह एक कुपुत्र ही तीन सुपुत्रों द्वारा बनायी गयी कुल की कीर्ति को मिट्टी में मिला देता है। अतः माता-पिता को अपने सभी पुत्रों को योग्य बनाने का प्रयास करना चाहिये। ऐसा करने से ही कुल को कलंकित होने से बचाया जा सकता है।

 

एकेनाऽपि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना।
आह्लादितं कुलं सर्व चन्द्रेण शर्वरी यथा।।

अध्याय तीन-लोक सोलह

यदि परिवार में एक भी व्यक्ति विद्वान हो जाये और वह शील स्वभाव से सज्जन हो तो पूरा परिवार आनन्दित व यशस्वी हो जाता है। जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा रात्रि को जगमगाकर सुखदायक शीतलता प्रदान करता है उसी प्रकार एक विद्वान व सज्जन अपने वंश के सदस्यों को आनन्दित कर देता है, क्योंकि उसके कारण वे अपने वंश पर गौरव अनुभव करने लगते हैं।

अतः अधिक सन्तान पैदा करने की अपेक्षा एक ही पुत्र को अच्छे संस्कार देकर गुणी बना देना श्रेयष्कर है।

 

किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः।
वरमेकः कुलालम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम्।।

अध्याय तीन-श्लोक सत्तरह

अपने असामाजिक या आचरणहीन कार्यों से हृदय को दुखित करने वाली सन्तान से क्या लाभ, इससे तो यही अच्छा है कि वह जन्म लेने के साथ ही माता-पिता से विमुख हो जाये। उस समय उसके वियोग का दुःख क्षणिक होता है। एक भी पुत्र सद्गुणी, कार्यकुशल, विनम्र और आज्ञाकारी हो तो अपने पूरे परिवार की कीर्ति का कारण बन जाता है। उसके वृद्ध माता-पिता व परिवारी जन उसका आश्रय पाकर सुखमय जीवन गुजार सकते हैं।

 

मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम्।
दाम्पत्ये कलहो नास्ति तत्र श्री स्वयमागता।।

अध्याय तीन-श्लोक इक्कीस

जिरा देश में मूर्खों का आदर-सम्मान नहीं होता, अन्न सञ्चित रहता है तथा पति-पत्नी में झगड़ा नहीं होता, वहाँ लक्ष्मी बिना बुलाये ही निवास करती है।

यहाँ आचार्य चाणक्य जी का अभिप्राय यह है कि यदि देश की समृद्धि और देशवासियों की सन्तुष्टि अभीष्ट है, तो मूर्खों के स्थान पर गुणवानों का आदर करना चाहिए, बुरे दिना के लिए धन का भण्डार बनाना चाहिए तथा घर-गृहस्थ में वाद-विवाद का वातावरण नहीं होना चाहिए। तभी देश की समृद्धि होगी। यह एक कटु सत्य है।

 

एकोऽपि गुणवान पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्वरः।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्रशः।।

अध्याय चार-श्लोक छः

मनुष्य के जीवन की उपादेयता एक गुणवान् पुत्र से हो सकती है। सैंकड़ों गुणहीन पुत्र उसके लिए महत्त्वहीन ही होते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि एक चन्द्रमा रात के अन्धकार को हर लेता है जबकि असंख्य तारे मिलकर भी रात के अंधकार को हरने में सक्षम नहीं होते।
इसी प्रकार एक ही गुणी पुत्र कुलभूषण कहलाता है, जबकि सैंकड़ों निकम्मे पुत्र इसके विपरीत कुल को कलंक ही लगाते हैं। अतः दम्पत्तियों को चाहिए कि वे अपने एकमात्र पुत्र को गुणवान, संस्कारवान् एवं सद्पुरुष बनाने के लिए प्रयत्नशील रहे, न कि सैंकड़ों पुत्रों के अर्जन में।

 

मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतो वरः।
मृतः स चाऽल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्।।

अध्याय चार-श्लोक सात

लम्बी आयु वाले मूर्ख पुत्र की अपेक्षा उत्पन्न होते ही मर जाने वाला पुत्र श्रेष्ठ होता है, क्योंकि मरा हुआ तो थोड़े हीं समय के लिए पीड़ित करने वाला होता है, परन्तु मूर्ख पुत्र तो जब तक जीवित रहता है, तब तक जलाता रहता है, सताता रहता है, कुल के अपयश का कारण बनता रहता है।

अतः मूर्ख पुत्र किसी भी प्रकार से उपयोगी न होने से वाञ्छनीय नहीं होता, उसका तो न होना ही श्रेयष्कर है।

 

सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः
सकृत कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ।।

अध्याय चार-श्लोक ग्यारह

कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो एक ही बार होते हैं। इसीलि उनका महत्व बहुत अधिक होता है। राजा लोग एक ही बार आज्ञा देते हैं और जो उनके मुख से निकलता है वह आदेश होता है, पण्डित लोग एक ही बार बोलते हैं। अर्थात् यदि किसी कार्य की पूर्ति का वचन देते हैं तो उसका निर्वाह करते हैं। इसी प्रकार माता-पिता भी अपनी कन्या का कन्यादान एक ही बार करते हैं और जिसे कन्या देने का वचन दे दिया कन्या उसी की हो जाती है। उक्त सभी कार्य एक ही बार किये जाते हैं।

इस प्रकार का आदेश, विद्वान तथा कन्याओं के विवाह सम्बन्धी माता-पिता का वचन अटल होता है। तीनों-राजा पण्डित और कन्यादान के वचन लौटाये नहीं जाते, अपितु निभाये जाते हैं। अतः राजाओं को आदेश देते समय, पण्डित को आश्वासन देते समय तथा माता-पिता को अपनी पुत्री का विवाह-सम्बन्ध स्थिर करते समय सोच-विचार से काम लेना चाहिए। जल्दबाजी कभी नहीं करनी चाहिए।

 

अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्यास्त्वबान्धवः।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता ।।

अध्याय चार-श्लोक चोदह

पुत्रहीन व्यक्ति के लिए उसका अपना घर भी सूना होता है। उसे घर में अकेलापन सालता रहता है। जिसके कोई सम्बन्धी नहीं उसे अपना घर परदेश जैसा पराया (सूना-सूना) लगता है। मूर्ख व्यक्ति दूसरे के दुःखे से न तो द्रवित होता है और न ही सहानुभूतिवश किसी की सहायता ही करता है। इस प्रकार मूर्ख का हृदय उदार भावों से सर्वथा शून्य होता है। निर्धन व अभावग्रस्त व्यक्ति के लिए सब कहीं (हर तरफ) सूना-सूना सा होता है, क्योंकि वह जहाँ कहीं भी जाता है लोग उससे किनारा करते हैं। अतः पुत्रहीन व्यक्ति, रिश्ते-नातेदार से विहीन व्यक्ति, मुर्ख व्यक्ति व निर्धन अभावग्रस्त व्यक्ति का जीवन निरर्थक है।

 

ऋणकर्ता पिता शत्रुर्माता च व्यभिचारिणी।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ।।

अध्याय छः श्लोक ग्यारह

केवल जन्म देने के कारण ही पिता अपनी सन्तान का हितैषी नहीं बन जाता। अपनी मृत्युपरांत अगर वह कर्ज का भार छोड़ जाये तो सन्तान का शत्रु ही कहा जायेगा। माता होने से ही स्त्री सती-साध्वी नहीं बन जाती। यौन सुख को अन्यत्र खोजने वाली स्त्री भी सन्तान की शत्रु होती है। पत्नी रूपवती हो तो कामांध लोगों का आकर्षण बन जाती है। काम तृप्ति के लिए वह भी परिवार की शत्रु बन जायेगी और पुत्र मूर्ख हो तो वह परिवार का अहित करते हुए शत्रु ही कहा जाता है।

अभिप्राय यह है कि उद्यमी पिता, पतिव्रता मां, निरहंकारी स्त्री तथा विद्यावान् पुत्र ही आदर्श रूप लिये होने से आदरणीय एवं वाञ्छनीय होते हैं। अगर यहीं सभी क्रमशः उक्त गुण लिये हो तो घर-परिवार, व्यक्ति व समाज सभी के शत्रु होते हैं। अर्थात् । अवगुण होने से अवाञ्छनीय हैं।

 

पादाभ्यां न स्पशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च।
नैव गां न कुमारी च न वृद्धं न शिशु तथा।।

अध्याय सात-श्लोक छ:

अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कन्या, वृद्ध पुरुष-स्त्री तथा नासमझ बच्चा इन सभी को पैरों से नहीं छूना चाहिए। क्योंकि ऐसा करना इनके प्रति उपेक्षित भाव दर्शाना है। जो मनुष्य की धृष्टता का परिचय देता है।

अभिप्राय यह है कि उपरोक्त जनों का समाज में पूज्य स्थान है। इन्हें पैरों से छूकर अपमानित नहीं करना चाहिए। यही वाञ्छनीय है।

 

साधुभ्यस्ते निवर्तन्ते पुत्रमित्राणि बान्धवः।
ये च तैः सह गन्तारस्तद्धर्मात् सुकृतं कुलम्।।

अध्याय चार-श्लोक दो

आज के युग में व्यक्ति सांसारिक कर्मों में लिप्त रहता है, जब कि वह जानता है कि शरीर नश्वर है। यहाँ आचार्य बताते हैं कि जब परिवार का एक सदस्य वैराग्य लेता है तो परिजन उसे विदा करके वापस लौट आते हैं, और पुनः सांसारिकता में लिप्त हो जाते हैं। इसके विपरीत उस व्यक्ति से अन्य परिजनों को प्रेरणा लेनी चाहिए और उसके आदर्शों का पालन करना चाहिए, ऐसा होने पर ही सदाचरण का पालन होता है और परिवार का भविष्य उज्ज्वल होता है।

 

तैलाभ्यङ्गे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि।
तावद्भवति चाण्डालो यावत् स्नानं नाचरेत्।।

अध्याय आठ-श्लोक छ:

जल स्नान की महिमा बड़ी अपरम्पार है। तेल की मालिश करने, चिता का धुआं लगने, सम्भोग करने तथा हजामत बनवाने के पश्चात् जब तक व्यक्ति स्नान नहीं कर लेता, तब तक वह चाण्डाल, अस्पृश्य यानी अपवित्र ही रहता है। इन कर्मों के बाद स्नान से व्यक्ति की तुरन्त शुद्धि हो जाती है। वैसे भी नित्य प्रति जल स्नान अवश्य करना चाहिए, तब ही शरीर शुद्ध रहता है।

 

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।
भोजने चाऽमृतं वारि भोजनान्ते विषं भवेत्।।

अध्याय आठ-श्लोक सात

पानी में बहुत से गुण हैं। अपचन हो तो भोजन न करके केवल पानी पीना औषधि लेने के बराबर है। अपचन न हो तो भोजन पचने के पश्चात् पानी पीना बलवर्द्धक है। भोजन करते हुए बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा पानी पीना अमृत तुल्य होता है, किन्तु भोजन करने के तुरन्त बाद पानी पीना हानिकारक विष के समान है। अभिप्राय यह है कि अपच में, भोजन पच जाने के पश्चात् तथा भोजन के समय (बीच में) तो जल का सेवन करना लाभप्रद है, परन्तु भोजन समाप्त करते ही पानी पीना हानिकारक है।

अतः भोजन कर चुकने के पश्चात् तुरन्त पानी का सेवन नहीं करना चाहिए।

 

इक्षुदण्डास्तिलाः शूद्राः कान्ता हेम च मेदिनी।
चन्दनं दधि ताम्बूलं मर्दनं गुणवर्द्धनम् ।।

अध्याय नौ-श्लोक तेरह

ईख (गन्ना), तिल, शूद्र, स्त्री, सोना, धरती, चन्दन, दही और पान को जितना अधिक मसला जाये, उसके गुणों में उतनी ही अधिक वृद्धि होती है। गन्ने को अधिक पेलने (पीड़न) से रस अधिक निकलता है। तिलों को अधिक पीड़न करने से तेल अधिक निकलता है, मूर्ख स्त्री, पुरुष अधिक पिटाई होने के भय से ही कुछ सीधे हो जाते है। स्त्री को भोग के समय अधिक मसलने से वह प्रसन्न होकर पति के वश में रहती है। सोने को अधिक तपाने से उसमें अधिक चमक और शुद्धि आ जाती है। इसी प्रकार धरती को अधिक खोदने से वो अधिक उपजाऊ हो जाती है। चन्दन, दही और पान भी अधिक रगड़ने से स्वाद ब गन्ध में अति उत्कृष्ट हो जाते हैं।

 

दरिद्रता धीरतया विराजते, कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते, कुरूपता शीलतया विराजते।।

अध्याय नौ-श्लोक चौदह

जितना धैर्य रखा जाये गरीबी में सहन-शक्ति उतनी ही अधिक बढ़ती है। फटे हुए वस्त्र भी स्वच्छ एवं अच्छे ढंग से धुले हों तो उन्हें भी पहना जा सकता है। ठंडा भोजन भी गर्म होकर स्वादिष्ट हो जाता है। इसी प्रकार कुरूप मनुष्य गुणवान व कुरूप स्त्री शीलवती हो तो अपनी शालीनता व गुणों के कारण उनका आकर्षण बढ़ जाता है। उनके सम्पर्क में आने वालों को भी बुरा नहीं लगता है।अभिप्रायः यह है कि धैर्य गरीबी का, शुद्धता वस्त्र की साधारणता का, उष्णता अन्न की क्षुद्रता का और गुण (सदाचार) कुरूपता का आवरण (पर्दा) है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि गरीब को धैर्य धारण करने वाला होना चाहिये, घटिया कपड़े को साफ-सुथरा धोकर पहनना चाहिये, ठंडे भोजन को गरम करके खाना चाहिये और कुरूप स्त्री-पुरुष को अपने चरित्र व गुण की उच्चता से अपनी कुरूपता को ढककर रहना चाहिये।

 

बरं वनं व्याघ्रगजेन्द्र सेवतिम्, दुमालयं पत्रफलाम्बु सेवनम्।
तृणेषु शय्या शतजीर्णवल्कलं, न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् ।।

अध्याय दस-श्लोक बारह

धन मनुष्य जाति के लिए जीवन-यापन का मुख्य साधन है। धनाभाव में जीवन कष्टपूर्वक बीतता है। मनुष्य को चाहिए कि जंगली आदमखोर जीवों के बीच में रहना पड़े तो रह ले । जहाँ पत्ते व फूलों को भोजन मानकर और नदी का जल पीकर रहना है, घास-फूस ही बिछाना व फटे वस्त्रों को ही पहनना है, भले ही वृक्षों की छाल को ओढ़कर शरीर को ढंकना पड़े तो ढंक ले, लेकिन धनहीन होने के पश्चात् अपनी रिश्तेदारी या बन्धुबान्धवों के बीच में रहना सर्वथा गलत है, क्योंकि इससे अपमान का जो कड़वा घूंट पीना पड़ता है वो असहनीय होता है।

 

अन्नाद् दशगुणं पिष्टं पिष्टाद् दशगुणं पयः।
पयसोऽष्टगुणं मांसं मांसाद् दशगुणं घृतम्।।

अध्याय दस-श्लोक उन्नीस

चावल से दस गुनी ज्यादा शक्ति आटे में होती है, आटे से दस गुनी अधिक शक्ति दूध में होती है। दूध से आठ गुनी अधिक शक्ति मांस में होती है और मांस से भी दस गुनी अधिक शक्ति शुद्ध घी में होती है।

आचार्य चाणक्य का यह कथन अभीष्ट है कि अधिक शक्ति को पाने के लिए मांस के स्थान पर घी व दूध का प्रयोग वाञ्छनीय है।

 

शाकेन रोगा वृर्द्धन्ते पयसा वर्द्धते तनुः।
घृतेन वर्द्धते धीः मांसान्मांसं प्रवर्द्धते।।

अध्याय दस – श्लोक बीस

घी के सेवन से बल (वीर्य) बढ़ता है, और मांस के सेवन से मांस बढ़ता है। दूध के पीने से शरीर की पुष्टि व वृद्धि होती है और साग के खाने से व्याधियां बढ़ती हैं। अभिप्राय यह है कि ऊंचाई (कद) की वृद्धि के लिए दूध का और बल वृद्धि के लिए घी का सेवन करना चाहिए। मांस खाने से, तो शरीर पर केवल चर्बी ही चढ़ती है और साग-सब्जी का लगातार प्रयोग शरीर को क्षीण बना देता है। साग के लगातार उपयोग करने से व्यक्ति दुर्बल हो जाता है।

 

सानन्दं सदनं सुतास्तु सुधियः कान्ता प्रियालापिनी
, इच्छापूर्तिधनं स्वयोषितिरतिः स्वाज्ञापराः सेवकाः।
आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे
साधोः सङ्गमुपासते च सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः।।

अध्याय बारह-श्लोक एक

जिनकी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित मात्रा में धन है, पति-पत्नी एक दूसरे से मधुर व्यवहार करते हैं, एक-दूसरे के प्रति दोनों समर्पित हैं। जहाँ हमेशा आनन्द की तरंगें उठती हों, पुत्र बुद्धिमान तथा पुत्री बुद्धिमती हो, सेवक आज्ञा पालन करने वाले, भोजन आदि से अतिथि का सत्कार और भगवान शिव का पूजन होता रहता हो। घर में प्रतिदिन स्वादिष्ट भोजन और मधुर पेयों की व्यवस्था हो तथा निरन्तर श्रेष्ठ पुरुषों का आना-जाना लगा रहता हो, साधु-महात्माओं का सत्संग होता हो। ऐसे सद्पुरुषों का गृहस्थाश्रम वस्तुतः प्रशंसनीय और धन्य है।

 

दाक्षिण्यं स्वजने दया परिजने शाठ्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने स्मयः खलजने विद्वज्जने चार्जवम्।
शौर्य शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धुर्त्ताता,
इत्थं ये पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः।।

अध्याय बारह-श्लोक तीन

यह पृथ्वी उन महान् विभूतियों पर टिकी है जो अपने परिजनों के प्रति सज्जनता, दूसरों के प्रति दया, दुष्टों (दुर्जनों) के प्रति उनके जैसा ही व्यवहार, सज्जनों के प्रति प्रेम, दुर्जनों के प्रति कठोरता का बर्ताव करते हैं। विद्वानों के प्रति सहजता, शत्रुओं के प्रति वीरता दिखाते हैं व अपने से बड़ों के प्रति सम्मान, साधुओं के प्रति सहनशीलता दिखाते हैं। स्त्रियों के प्रति विश्वास न करके धूर्तता का व्यवहार करते हैं। इस प्रकार विभिन्न श्रेणी के लोगों के साथ विभिन्न व्यवहार यानी जैसे को तैसा’ वाली कहावत चरितार्थ करने वाले ही इस संसार में सुखी जीवन व्यतीत करते हैं।

 

स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिता।
ज्ञातयः स्नान-पानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः।।

अध्याय तेरह-श्लोक तीन

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्त, सद्पुरुष अपने आश्रित और पिता अपने पुत्र के स्वभाव (सद्व्यवहार) से ही प्रसन्न होते हैं। इन्हें किसी भी तरह का लोभ नहीं होता और न ही वे किसी प्रलोभन के आग्रही होते हैं। बन्धु-बान्धव अच्छे खान-पान से खुश होते हैं। ये खुले हृदय से आवभगत करने व सेवा भाव से ही सन्तुष्ट होते हैं, परन्तु सच्चे ब्राह्मण तो मधुर व्यवहार से ही खुश रहते हैं।

 

अनवस्थित कार्यस्थ न जने न वने सुखम् ।
जनो’ दहति संसगदि वनं सङ्गविवर्जनात्।।

अध्याय तेरह – श्लोक पन्द्रह

अपने कर्तव्य पथ का निश्चय न कर सकने वाले व्यक्ति को न तो घर में सुख मिलता है और न ही वन में। घर उसे आसक्ति के कारण काटता है और वन परिवार को छोड़ने और अकेलेपन की पीड़ा से व्यथित करता है।

सच्चा सुख न गृहस्थ में है और न ही गृह परिवार के त्याग में, अपितु सच्चा सुख तो कर्तव्य पालन में है।

 

नान्नोदकसमं दानं न तिथिद्वदशी , समा।
ने गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुर्दैवतं परम्।।

अध्याय सत्रह-श्लोक सात

अन्न और जल का दान सभी दोनों में श्रेष्ठ माना जाता है। अन्न और जल ही जीवन के मूल आधार हैं। अन्न बल और सुख का साधन है इसलिए सद्पुरुष अन्न को अन्नदाता, प्राणदाता कहते हैं। जल भी जीवन है। इसी तरह तिथियों में द्वादशी तिथि को श्रेष्ठ माना गया है और गायत्री मन्त्र से बढ़कर दूसरा कोई मन्त्र नहीं माना गया। गायत्री मन्त्र से बढ़कर जप, तप, ज्ञान और यज्ञ कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार जन्म देने वाली माता के समान किसी देव को नहीं माना गया। मां का स्थान देवताओं से भी ऊंचा होता है। अतः इस जीवन को सफल व सुखद बनाने के लिए अन्न, जल का दान करते हुये, द्वादशी का व्रत धारण करना, गायत्री मन्त्र का जाप करना तथा मां की सेवा-सुश्रूषा करने का नियम हर बुद्धिमान पुरुष को अपनाना चाहिए, इसी में मुक्ति है।

 

यदि रामा यदि च रमा यदि तनयो विनयगुणोपेतः।
तनये तनयोत्पत्तिः सुरवरनगरे किमाधिक्यम्।।

अध्याय सत्तरह – श्लोक सोलह

यदि ईश्वर की अनुकम्पा (कृपा) से मनुष्य को सुन्दर सच्चरित्र स्त्री, आवश्यकता भर की पूर्ति के लिए पर्याप्त लक्ष्मी, चरित्रवान और गुणवान पुत्र वंशवर्द्धक पोता प्राप्त हो गया है। तो उसके लिए स्वर्ग इसी धरती पर है। स्वर्ग में इससे अधिक सुख और क्या मिलेगा ? | सच्चरित्र, खूबसूरत स्त्री, धन-सम्पत्ति, गुणवान पुत्र तथा पोता आदि का मिलना अच्छे सौभाग्य का द्योतक है।

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