त्यजेद् धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्|
त्यजेत क्रोधमुर्खी भार्या नि:स्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत्।।
अध्याय चार-श्लोक सोलह
जिस धर्म में दया नहीं, वह धर्म, धर्म नहीं। ऐसे धर्म को अपनाये रखने से कोई लाभ नहीं। जिस गुरु के पास ज्ञान नहीं, उसकी सेवा करने से अर्थात् शिष्य बने रहने से कोई लाभ नहीं। निरन्तर झगड़ा करने वाली पत्नी को घर में रखने से कोई लाभ नहीं, उसे छोड़ देना ही श्रेयष्कर है। बन्धु-बान्धवों के मन में स्नेह न हो तो उनका परित्याग करना ही अच्छा होगा। अभिप्राय यह है कि सच्चा धर्म वही है जिसमें दया, करुणा का भाव हो, विद्या निपुण व्यक्ति ही गुरु बनने के योग्य है। शान्त और सहनशील पत्नी ही पत्नी बनने के योग्य होती है। और दुःख में द्रवित होने वाले बन्धु-बान्धव से ही सम्बन्ध रखने चाहिए। यही वाञ्छनीय है।
अधनाः धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः ।।
अध्याय पाँच-श्लोक अट्ठारह
सभी मनुष्यों की अपनी जुदा-जुदा आकांक्षाएं होती हैं। धनहीन-धन की इच्छा करते हैं। पशु–चार पैरों वाले–वाणी की इच्छा करते हैं। मनुष्य-सुख-भोग की इच्छा करते हैं। साधारण मनुष्य-अन्न-कर्म से मुक्त होने की प्रतीक्षा करते हैं। उसमें भी आगे बढ़ने वाले साधक देवता लोग-मोक्ष की आकांक्षा करते हैं।
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवितमन्दिरे।
चलाऽचले हि संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।
अध्याय पाँच-श्लोक बीस
इस क्षणभंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना अस्थिर है। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बचपन, जवानी और बुढ़ापा भी स्वयं ही आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें अपने बन्धन में सदा के लिए नहीं बांध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अचल है। धर्म के नियम ही शाश्वत हैं। उनकी रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य है।
अतः समस्त प्राणियों को नश्वर जगत की अनित्य वस्तुओं का मोह छोड़कर स्थिर धर्म के सेवन में प्रवृत्त होना चाहिए। यही मानव के लिए हितकर है।
न देवो निघत काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्।।
अध्याय आठ-श्लोक ग्यारह
यहाँ पर यदि गहराई और सच्चाई से विचार किया जाये, तो लोक प्रचलित उक्ति सत्य ही सिद्ध होती है-मानो तो शंकर, नहीं तो कंकर। इसी बारे में आचार्य चाणक्य ने कहा है-कि परमेश्वर न काष्ठ (लकड़ी) में है और न ही पत्थर की मूर्ति में। परमेश्वर तो मानव-मन की भावना में है। हर मनुष्य के हृदय की सच्ची श्रद्धा भावना में ही परमेश्वर का निवास है। श्रद्धापूर्वक कोई भी कल्याणकारी कार्य किया जाये, उस कार्य में परमेश्वर की कृपा से अवश्य सफलता मिलेगी। अतः मनुष्य की श्रद्धा भावना ही प्रतिमा में देवता का वास मानती है और भावना का अभाव प्रतिमा को साधारण जड़ पदार्थ बना देता है।
काष्ठ-पाषाण-धातूनां कृत्वा भावेन सेवनम्।
श्रद्धया च तथा सिद्धिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः।।
अध्याय आठ-श्लोक बारह
मन की भावना या श्रद्धापूर्वक यदि लकड़ी, पत्थर या धातु निर्मित मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सर्वव्यापक परमात्मा अपने भक्त की भावना से प्रसन्न होंगे। उस अटूट श्रद्धा से भक्त को कोई न कोई अच्छा फल अवश्य मिलेगा। जड़ वस्तु में भी ईश्वर का निवास होता है, ईश्वर को ही वृत्ति मानकर उसका आदर करना चाहिए। । अतः जो मनुष्य जिस भावना से मूर्ति पूजन करता है, श्री विष्णु नारायण की कृपा से उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। शास्त्रों के अनुसार अभीष्ट सिद्धि के लिये साधक द्वारा श्रद्धापूर्वक मूर्ति-पूजन करना ही वाञ्छनीय है।
‘ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुञ्जते।
युगकोटिसहस्त्रं तैः स्वर्गलोके महीयते।।
– अध्याय ग्यारह-श्लोक नौ
पूरे एक वर्ष तक नित्य प्रति मौन रहकर भोजन करने वाला साधक करोड़ों कल्पों तक (एक कल्प में चार युग-सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलियुग होते हैं और इन चारों की अवधि क्रमशः बारह, दस, आठ, और छः हजार दिव्य वर्ष मानी गयी है) स्वर्ग में रहता है और वहाँ देवी-देवताओं के लिए भी ऐसा साधक पूज्य होता है।
अकृष्टफलमूलानि वनबासरतिः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।
अध्याय ग्यारह-श्लोक ग्यारह
ऐसे ब्राह्मण को महापुरुष कहा जाता है, जो उस भूमि से उत्पन्न फल और कन्दमूल खाकर जीवन-यापन करता है जो जोती न गयी हो, जो सदैव ही वनवास प्रेमी हो और जो नित्य ही श्रद्धावान हो।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः।।
अध्याय बारह-श्लोक बारह
मनुष्य का शरीर, धन-सम्पत्ति सभी चीजें नाशवान हैं। धर्म ही एक ऐसी चीज है जो अजर-अमर है। हर व्यक्ति को धर्म-संग्रह में प्रवृत्त रहना चाहिए।
अभिप्राय यह है कि बुद्धिमान व्यक्ति को यह निश्चित समझना चाहिए कि उसका शरीर नाशवान् (सदा न रहने वाला) है। इसी प्रकार वैभव, धन-सम्पत्ति भी सदा किसी के पास नहीं रहती। हाँ मृत्यु निश्चित है, अर्थात् यह सत्य है कि जो प्राणी पैदा हुआ है, वह एक दिन अवश्य मरेगा। मृत्यु का दिन कब आयेगा-इस चिन्ता में रहने वाला व्यक्ति मृत्यु को सदैव अपने समीप समझता है और समझना भी चाहिए। इस स्थिति में मनुष्य को सांसारिक उलझनों को छोड़कर धर्म-संग्रह में लगे रहना चाहिए, क्योंकि धर्म ही हमारा सच्चा मित्र है। मृत्यु के पश्चात् केवल धर्म ही हमारे साथ जाता है। बाकी सारा वैभव यहीं रह जाता है। धर्म ही अज़र है, अमर है।
नाहारं चिन्तयेत्प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते ।।
अध्याय बारह-श्लोक उन्नीस
बुद्धिमान पुरुष को अपने आहार खाने-पीने को जुटाने की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, उसे तो केवल धर्म के अनुष्ठान में ही लगे रहना चाहिए, क्योंकि उसका आहार तो मानव के जन्म लेते ही उत्पन्न हो जाता है, अर्थात् परमपिता परमात्मा ने जिस प्राणी को जन्म दिया है, आहार तो उसके भाग्य का उसे मिलता ही है। दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम ! यह उक्ति जगप्रसिद्ध है। अतः आहार के सम्बन्ध में चिन्तित न होकर हमें अपने धर्म-कार्यों में लगे रहना चाहिए। अभिप्राय यह है कि धर्म ध्यान से ही मानव का इस लोक में कल्याण होता है।
अहो वत विचित्राणि चरितानि महात्मनाम् ।
लक्ष्र्मी तृणाय मन्यन्ते तद् भारात् नमन्ति च।।
अध्याय तेरह-श्लोक चार
महापुरुषों का चरित्र वास्तविक जीवन में आश्चर्यजनक होता है। सामान्य व्यक्ति उनके जीवन-चरित्र को नहीं समझ सकता। यह उनका स्वभाव है कि धन होने पर दान देते रहते हैं, सत्य होने पर क्षमाशील रहते हैं, दुःख के समय वे कठोर हो जाते हैं और सदाचारी होने पर वे घमण्ड से दूर रहते हैं। वे धन को तिनके के समान तुच्छ समझते हैं, किन्तु धन मिलते ही महापुरुष उसके भार से नम्र हो जाते हैं । यही उनके चरित्र की आश्चर्यजनक विशेषताएं हैं।
कहने का अभिप्राय है कि वीतराग महात्माओं (महापुरुष) को न तो धन-सम्पत्ति की इच्छा होती है, और न ही वे धन-सम्पत्ति पाकर उग्र होते हैं।
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्।
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः ।।
अध्याय तेरह-श्लोक आठ
धर्म रहित प्राणी जीवित होते हुए भी मृतक के समान है। इसके विपरीत धर्मात्मा मर जाने पर भी दीर्घजीवी रहता है, अर्थात् उसका यश अनन्त काल तक इस संसार में व्याप्त रहता है। इसमें लेशमात्र भी संशय अथवा अतिश्योक्ति नहीं है।
अभिप्राय यह है कि शरीर नाशवान् है, धन-सम्पत्ति भी सदा साथ देने वाली नहीं होती। मृत्यु हर समय सिर पर सवार रहती है। अतः धर्म का संग्रह करना चाहिए। धर्म ही सबसे बंड़ी वो सम्पत्ति है जो आपके साथ हर समय रह सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि धर्मपरायण प्राणी परलोक में भी जीवित रहता है क्योंकि उसका यश अजर-अमर है। ऐसे धार्मिक प्राणी का जीवन ही सफल कहलाता है।
यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।
तत्सर्व तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्।।
अध्याय सत्तरह-श्लोक तीन
इस संसार के अन्दर यदि कोई पदार्थ इतनी दूर हो कि उसे प्राप्त करना असम्भव दिखायी देता हो तथा जो मनुष्य की सामर्थ्य-सीमा से भी बहुत दूर हो, ऐसे दुर्लभ पदार्थ को भी तप के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि तप की शक्ति असीम है। इसलिये तप सर्वश्रेष्ठ है। तप द्वारा असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है। तप से न केवल सिद्धि मिलती है, अपित साक्षात् परमेश्वर के भी दर्शन किये जा सकते हैं।
दानेन पाणिर्न तु कङ्णेन, स्नानेन शुर्द्धिनं तु चन्दनेन।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन, ज्ञानेन मुक्तिर्नतु भण्डनेन।।
अध्याय सत्तरह-श्लोक बारह
हाथों की सच्ची शोभा आभूषण पहनने से नहीं, दान देने से होती है। शरीर की वास्तविक शुद्धि स्नान करने से होती है, चन्दन का लेप लगाने से नहीं। मनुष्य को सच्चा सुख मान-सम्मान करने से प्राप्त होता है, स्वादिष्ट भोजन करने से नहीं। इसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति भी ज्ञान से होती है, छापा-तिलक आदि बाहरी आडम्बरों के धारण करने से नहीं।
नापितस्य गृहे क्षौरं पाषाणे गन्धलेपनम्।
आत्मरूपं जले पश्यञ्छक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।
अध्याय सत्तरह-श्लोक तेरह
नाई के घर जाकर हजामत करवाने वाले, देव-प्रतिमाओं पर लगा हुआ चन्दन उतारकर अपने शरीर पर धारण करने वाले, तथा जल में अपनी परछाई देखने वाले व्यक्ति का मान-सम्मान, गौरव नष्ट हो जाता है। ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान नहीं मूर्ख कहलाता है। चाणक्य के कथनानुसार इन्द्र के समान साधन-सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित होने पर भी ऐसे व्यक्ति शोभाविहीन हो जाते हैं। उनकी अपनी कोई प्रतिष्ठा नहीं रहती।