सत्संग - Satsang

सत्संग

दर्शन-ध्यान-संस्पर्शैर्मत्सी कूर्मी च पक्षिणी।
शिशु पालयते नित्यं तथा सज्जन सङ्गतिः।।

अध्याय चार-श्लोक तीन

जिस प्रकार मछली देख-देखकर सन्तान का पालन करती है, कछुई केवल ध्यान द्वारा ही सन्तान का पालन करती है, और मादा पक्षी अपने अण्डों को सेकर या छूकर अपनी सन्तान का पालन करती है, उसी प्रकार सज्जन की संगति अपने सम्पर्क में आने वालों को भगवान के दर्शन, ध्यान और चरण-स्पर्श आदि का आभास कराकर उनका कल्याण करती है।

संसार तापदग्धनां त्रयो विश्रान्तिहेतवः।
अपत्यं च कलत्रं च सता सङगतिरेव च ।।

अध्याय चार – श्लोक दस

संसार में सुख की अपेक्षा दू:खों का अस्तित्व अधिक माना जाता हैं। तीन प्रकार के संताप ऐसे हैं जिनसे मनुष्य घिरा रहता हैं।अन्तर्मन के ,परिस्तिथियों के और दुर्भाग्य के इन कष्टों का निवारण भी तीन बातों से होता है। सद् गुणशील पुत्र के कार्यों से,मृदुभाषिणी पत्नी से और श्रेष्ठ पुरुषों की संगति से ।

अतः उत्तम सन्तान (पुत्र), समर्पित पतिव्रता स्त्री और सुलझे हुए सद्पुरुष के मधुर प्रवचन मनुष्य को सुख देने वाले हैं। जिसके पास उक्त तीनों गुणों का संगम है, उसका ही जीवन सुखद होता है।

 

एकोदर-समुदभूताः एक-नक्षत्र जातकाः।
न भवन्ति समाः शीले यथा बदरिकण्टकाः ।।

अध्याय पांच-श्लोक चार

केवल मनुष्य योनि में जन्म लेने के कारण ही सब मनुष्य एकसमान नहीं हो जाते। एक ही माँ के गर्भ से उत्पन्न और एक ही राशि-नक्षत्र में जन्म लेने वाले दो जुड़वां भाई भी बिल्कुल अलग कर्म वाले और भिन्न गुण-कर्म- स्वभाव वाले होते हैं। शायद पुराने कर्मफल के कारण सभी अलग-अलग संस्कार सम्पन्न होते हैं।

जिस प्रकार एक ही बेरी के फल भी एक ही जितने मीठे-खट्टे और कांटे भी एक ही जितने लम्बे या छोटे नहीं होते, उसी प्रकार दो सगे जुड़वां भाइयों का स्वभाव भी एक-सा नहीं होता। सभी का कर्म-फल-भाग्य उनके पिछले जन्मों के हिसाब से होता है।

 

हस्तौ दानविवर्जितौ श्रुतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणौ नेत्रे साधुविलोकनेन रहितौ पादौ न तीर्थं गतौ।
अन्यायार्जित वित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुङ्गं शिरो रे रे जम्बुक ! मुञ्च मुञ्च सहसा निन्द्यं सुनिन्द्यं वपुः ॥

अध्याय बारह-श्लोक चार

किसी मरे हुए व्यक्ति के शव को खाने के लिए उद्यत एक गीदड़ को देखकर दूसरा गीदड़ उसे समझाते हुए कहता है-ऐ भाई ! इस मानव शव को मत खाओ, इसे छोड़ दो, क्योंकि यह अपने जीवनकाल में एक नीच व निन्दनीय व्यक्ति रहा है। इसने अपने हाथों से कभी कुछ दान नहीं किया, न ही कभी वेद-शास्त्र का श्रवण किया, नेत्रों से किसी साधु-महात्मा या भगवान की मूर्ति के दर्शन नहीं किये, पैरों से कभी तीर्थ यात्रा नहीं की। इसने सदा अन्यायपूर्ण ढंग से कमाये गये पैसे से ही अपना पेट भरा है। तथा सदैव अपना सिर ऊंचा उठाये रखा है। क्योंकि इस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में अपने किसी भी अंग का सदुपयोग नहीं किया, इसीलिए इसका शरीर त्याज्य व निन्दनीय है। भूखे होने के बावजूद भी इस पापी मानव के शरीर को खाकर अपना जीवन मत बिगाड़ो। कहने का अर्थ यह है कि मनुष्य योनि में जन्म लेने वाले हर व्यक्ति को अपने जीवनकाल में यथासम्भव दान करते रहना चाहिए।

 

सत्सङ्गाद् भवति ही साधुता खलानाम् साधूना नैव खलसङ्गतः खलत्वम्।
आमोदं कुसुमभवं मृदेव धत्ते मृदगन्धं न हि कुसुमानि धारयन्ति।।

अध्याय बारह-श्लोक सात

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि दुर्जन व्यक्ति भी किसी सद्पुरुष की संगति करे तो उनमें भी सज्जनता आ सकती है जबकि दुष्ट व्यक्ति (दुर्जन) की संगति से सज्जनों को कोई हानि नहीं हो सकती, उनमें असाधुता नहीं आने पाती। अर्थात् सदुपुरुष, दुर्जन के साथ रहते हुए भी उसकी दुष्टता को अंशमात्र भी नहीं अपनाते, अपितु अपनी प्रकृति को स्थिर बनाये रखते हैं। ठीक उसी तरह जैसे मिट्टी तो फूल की गंध अपना लेती है, लेकिन फूल मिट्टी से उगने के बाद भी उसकी गन्ध नहीं लेता।

चाणक्य के कहने का अर्थ यह है कि सत्संग की महिमा अपरम्पार है। इसीलिए हर मानव को सत्संग करना चाहिये।

 

साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः।
कालेन फलति तीर्थ सद्यः साधुसमागमः ।।

अध्याय बारह-श्लोक आठ

सपुरुष एवं साधुओं की संगति लाभकारी होती है। उनके दर्शन करने मात्र से ही पुण्य प्राप्त होता है। वे साक्षात् तीर्थ का स्वरूप होते हैं। जबकि तीर्थ करने का फल तो मनुष्य को समय आने पर ही मिलता है किन्तु साधु-सन्तों (महात्माओं) सदुपुरुषों के दर्शनों और संगति से तुरन्त लाभ होता है। अच्छी संगति करने से फल शीघ्र प्राप्त हो जाता है।

कहने का अर्थ यह है कि साधु (महात्माओं) के दर्शन करने से, उनके सदुपदेश और मार्ग-दर्शन भी मिलता है जो मानव जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।

 

संसार-विषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादु सङ्गतिः सज्जने जने।।

अध्याय सोलह-श्लोक अट्ठारह

इस संसार की तुलना एक कड़वे वृक्ष से की जाती है जिस पर अमृत के समान मीठे दो फल लगते हैं-मधुर वचन और सपुरुषों की संगति । ये दोनों अत्यन्त गुणकारी होते हैं। इन्हें प्राप्त करके मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है। अतः हर मनुष्य का प्रयास इन्हें प्राप्त करने का होना चाहिए। अर्थ यह है कि सभी को सद्पुरुषों की संगति करते हुए । मीठी वाणी बोलनी चाहिए। इसी में कल्याण है।

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