आत्म-मंथन - Self Reflection

आत्म-मंथन

मनसा चिन्तितं कार्य वाचा नैव प्रकाशयेत्।
मन्त्रैव रक्षयेद् गूढ़ कार्ये चापि नियोजयेत्।।

अध्याय दो-श्लोक सात

आचार्य चाणक्य व्यक्ति की सफलता के लिए एक गुप्त मंत्र देते हुए कहते हैं कि यदि आप सफलता अर्जित करना चाहते हैं तो गोपनीयता सीखें। यदि आप किसी कार्य सिद्धि के लिए योजना बना रहे हैं तो उसके क्रियान्वयन व फलीभूत होने तक उसे गुप्त रखने का मंत्र आपको आना चाहिए। ऐसा न करने की अवस्था में आपकी योजना विफल भी हो सकती है।
वास्तव में यह कटु सत्य है कि जो भी व्यक्ति गोपनीयता नहीं बरत सकते हैं वे नुकसान ही उठाते हैं, क्योंकि यह सम्भव है कि गोपनीयता भंग होने पर कोई आपकी योजना को विफल ही कर दे, इसीलिए यत्न करें कि योजना सदैव गुप्त ही रहे।

 

श्लोकेन वा तदर्द्धैन तद्रर्धार्धाक्षरेण वा।
अवन्थ्य दिवसं कुर्याद् ध्यानाध्ययन कर्मभिः॥

अध्याय दो-श्लोक तेरह

आचार्य चाणक्य ने स्वाध्याय के महत्त्व को बहुत सुन्दर शब्दों में स्पष्ट किया है। वह कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति कोप्रतिदिन स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। उसे प्रतिदिन शास्त्रों का कम से कम एक श्लोक, आधा श्लोक या आधे का आधा श्लोक अवश्य ही पढ़ना चाहिए। इससे व्यक्ति का भला होता है।

ऐसा न कर पाने की अवस्था में वे कहते हैं कि दान करके अपने दिन को सफल बनाना चाहिए। वह मानते हैं। कि दान से व्यक्ति के पापकर्म कम होते हैं। दान की अवस्था न होने पर व्यक्ति को परोपकार करना चाहिए, इससे भी व्यक्ति को अच्छा फल मिलता है। मानव जीवन अमूल्य है, जीवन का प्रत्येक दिन महत्त्वपूर्ण होता है। अतः व्यक्ति को अपने सत्कर्मों से उन्हें उपयोगी बनाना चाहिए।

 

जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥

अध्याय पांच-श्लोक बाइस

विवेकशील मनुष्य को जन्मदाता अर्थात् माता-पिता, दीक्षा देकर ज्ञान देने वाले अर्थात् गुरु, रोजगार देने वाले अर्थात् स्वामी एवं विपत्ति में सहायता करने वाले संरक्षक को सदा आदर देना चाहिए। जो व्यक्ति इन आदरणीय जनों को सम्मान नहीं देता, इनकी आज्ञा का पालन नहीं करता और इनके प्रति कृतज्ञ नहीं होता, उसका इस संसार में कभी भला नहीं होता।

 

न पश्यति च जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति।
मदोन्मत्ताः न पश्यन्ति अर्थी दोषं न पश्यति ।।

अध्याय छ:-श्लोक आठ

जो बेचारा जन्म से अन्धा है, अर्थात् माँ के गर्भ से ही अन्धा उत्पन्न हुआ है, वह किसी भी उपचार से देखने में समर्थ नहीं हो सकता । विषय वासना में डूबा हुआ व्यक्ति भी अन्धा होता है। वह भी नहीं देख पाता अर्थात् निर्लज्ज होता है। ऐसा व्यक्ति पूज्य पुरुषों को सामने देखकर भी काम वासना से विह्वल होने के कारण लज्जा, संकोच, शालीनता और मर्यादा का पालन नहीं कर पाता। मदिरापान से उन्मत व्यक्ति भी अन्धे हो जाते हैं। मदिरा के प्रभाव से विवेकहीन हो जाने के कारण वे नेत्र रखते हुए भी अन्धे हो जाते हैं। किसके सामने क्या कर रहे हैं, इसका उन्हें कतई ध्यान नहीं रहता। इसी प्रकार आवश्यकता से पीड़ित व्यक्ति भी अपने स्वामी के दोषों को देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है, क्योंकि उसकी आवश्यकता उसे अन्धा बना देती है।

 

सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।
वायसात् पञ्च शिक्षेच्च षट् शुनस्त्रीणि गर्दभात्।।

अध्याय छः-श्लोक पन्द्रह

मनुष्य को शेर व बगुले से एक-एक गुण, मुर्गे से चार गुण सीखने में संकोच नहीं करना चाहिये। कुत्ते से छः गुण, गधे से तीन गुण और कौवे से पाँच गुण सीखे जा सकते हैं। । सिंह का वाञ्छित गुण – अपने शौर्य से मारे शिकार से पेट भरना।

बगुले का विशिष्ट गुण – सहवासियों को अपनी सज्जनता का विश्वास दिलाना है।

मुर्गे के चार गुण – प्रेयसी को दबोचकर रखना, जाति बन्धुओं से मिलकर रहना, नवप्रभात में जागना, युद्ध के लिए सदैव तत्पर रहना।

कुत्ते के छः गुण – स्वामिभक्ति, सन्तोष, सहनशीलता, सावधानी (कच्ची नींद सोना), दृढ़ निश्चय, शत्रु पर झपटना ।

गधे के तीन गुण – भार ढोना, शान्त रहना, फल की इच्छा न करना।

कौवे के पाँच गुण – जागरूकता, किसी पर विश्वास न करना, गुप्त रूप से मैथुन करना, अदभुत साहस, आक्रामकता।

उक्त सभी गुण मानव जीवन में वाञ्छनीय हैं।

 

प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्य सिंहादेकं प्रचक्षते।।

अध्याय छः-श्लोक सोलह

मनुष्य जो भी छोटा या बड़ा कार्य करे उसे पूरी शक्ति लगाकर करे। आधे दिल व आधे उत्साह से किया हुआ कार्य कभी सफल नहीं होता। पूरी शक्ति लगाकर अपने प्राणों की बाजी लाकर भी काम करना शेरों से सीखना चाहिए। शेर जब अपना शिकार करता है तो पूरी ताकत लगा देता है। काम करके सफलता पाने का यही एकमात्र उपाय है कि जो भी कार्य करो, मन से व पूरी शक्ति लगाकर करना चाहिए।

 

इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्।।

अध्याय छह-श्लोक सत्तरह

बुद्धिमान पुरुष को यह गुण भी बगुले से सीखना चाहिए कि अपनी सारी इन्द्रियों को नियन्त्रण में करके तथा स्थान, समय और अपनी शक्ति का अनुमान लगाकर कार्यसिद्धि के लिए जुट जाना चाहिए। यही वाञ्छनीय है।

 

सुश्रान्तोऽपि वहेद भारं शीतोष्णं च न पश्यति ।
सन्तुष्टश्चरति नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्।।

अध्याय छ: – श्लोक अट्ठारह

विद्वान (बुद्धिमान) पुरुष को गधे के निम्न तीनों गुण भी अवश्य ही सीखने चाहिये

  1. अत्यन्त थका होने पर भी बोझा ढोते रहना, अर्थात् अपने कर्तव्य कर्म से विमुख न होना,
  2. कार्य साधन में सर्दी-गर्मी की परवाह न करना, अर्थात् परिस्थितियों से जूझना ।
  3. सर्वदा सन्तुष्ट रहकर विचरना, अर्थात् फल की चिन्ता न करके कर्म करते ही जाना। उक्त तीनों गुण भी मानव-जीवन के लिए वाञ्छनीय हैं।

प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बन्धुषु।
स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।

अध्याय छ:-श्लोक उन्नीस

मनुष्य को अपने जीवन में चार गुण मुर्गे से अवश्य ग्रहण करने चाहिएः-

  1. समय पर जागना,
  2. युद्ध की ललकार पर तत्पर रहना,
  3. खाते समय मिल-जुलकर अपने परिवार के लोगों में बांटकर खाना,
  4. स्वयं खोजकर खाद्य पदार्थ खाना।

अभिप्राय यह है कि स्वावलम्बन का यह पाठ मुर्गे से ही सीखा जा सकता है।

 

गूढमैथुनचारित्वं काले काले च , संग्रहम्।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात्।।

अध्याय छः-श्लोक बीस

बुद्धिमान मनुष्य को कौवे से पाँच बातें सीखनी चाहिएं

  1. छिपकर मैथुन करना,
  2. चारों ओर दृष्टि रखना, अर्थात् चौकन्ना रहना,
  3. उचित समय पर भविष्य के लिए संग्रह करना,
  4. कभी आलस्य न करना,
  5. किसी पर विश्वास न करना। उक्त सभी बातें मनुष्य को कौवे से सीखनी चाहिए।

 

बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सनिद्रो लघुचेतनः।
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणा।।

अध्याय छः-श्लोक इक्कीस

कुत्ते की आदतों (गुणों) से भी मनुष्य शिक्षा ग्रहण कर सकता है।

  1. भूख लगने पर खूब डटकर खाना,
  2. ज्यादा खाना न मिलने पर थोड़े से ही सन्तोष कर लेना,
  3. जरा सी आहट पर सजग हो जाना,
  4. स्वामिभक्ति,
  5.  कृतज्ञता,
  6. अपने स्वामी के इशारे पर साहसपूर्वक शत्रु पर आक्रमण कर देना अर्थात् अपनी शूरता का प्रदर्शन करना।

 

यः एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः।
कार्यावस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति।।

अध्याय छः-श्लोक बाइस

जो बुद्धिमान मनुष्य इन अच्छे गुणों को अपने स्वभाव में समाहित करेगा और उन पर आचरण करेगा वह अपने सब कार्यों में सफलता हासिल करेगा व विजयी होगा। मनुष्य कासर्वोत्तम गुण तो यह है कि वह सभी गुणों को बुद्धिपूर्वक गृहण कर सकता है।

यहाँ आचार्य चाणक्य ने उन्हीं गुणों के बारे में फिर से सम्बोधित किया है। उनके कहने का अभिप्राय यही है कि जो समझदार मनुष्य सिंह, बगुले, मुर्गे, कुत्ते, गधे व कौवे के बीस (1 +1+ 3 + 4 +5 +6 = 20) गुणों को भली प्रकार ग्रहण कर लेता है, वह अपने जीवन में कभी भी पराजय का मुँह नहीं देखता। उसे जीवन में सदैव और सर्वत्र विजय की प्राप्त होती है।

 

गम्यते यदि मृगेन्द्र-मन्दिरं, लभ्यते करिकपालमौक्तिकम्।
जम्बुकालयगते च प्राप्यते, वत्सपुच्छखरचर्म-खण्डनम्।।

अध्याय सात-श्लोक सत्तरह

साहसी मनुष्य को अपने पराक्रम का पुरस्कार अवश्य मिलता है। सिंह की गुफा में जाने वाले को सम्भव है कि कभी गजमुक्ता (काले रंग का बड़ा मोती) मिल जाये, परन्तु मनुष्य गीदड़ की माँद में जायेगा तो उसे गाय की पूंछ और गधे के चमड़े के टुकड़े के अलावा और क्या मिल सकता है ?

मनुष्य किसी जगह साहस करता है तो तब ही कुछ महत्त्वपूर्ण प्राप्त होता है। खतरे से जूझकर बचाव की नीति पर आगे बढ़ने वाला कायर पुरुष कुछ भी प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता। अतः बुद्धिमान व्यक्ति को साहसिक कार्य करते हुए ही महत्त्वपूर्ण उपलब्धि करने की सोचनी चाहिए।

 

दीपोभक्ष्यते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी पूजा।।

अध्याय आठ – श्लोक तीन

एक कहावत प्रचलित है-जैसा खाये अन्न, वैसा होये मन-इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जो व्यक्ति जैसा अन्न खाता है वैसा ही उसका मन हो जाता है। दीपक की ज्योति अन्धकार को खा जाती है। काला अंजन काजल को खा जाता है तो काला धुआँ पैदा करता है। इसी प्रकार स्वभावतः सात्विक भोजन करने वाले की सन्तान में सात्विक संस्कार आते हैं और तामसिक भोजन (मछली, अण्डा) करने वाला, छल-कपट, बेईमानी से धन पैदा करने वाला है, उसकी सन्तान वैसी ही उत्पन्न होती है।

अभिप्राय यह है कि जहाँ सात्विक अन्न खाने वाले की सन्तान सद्गुण सम्पन्न होती है, वहीं तामसिक भोजन करने वालों की सन्तान दुर्गुणों का भण्डार होती है। अतः उत्तम सन्तान पैदा करने के लिए ईमानदारी से कमाये हुए तथा शुद्ध एवं सात्विक अन्न से बने भोजन का ही सेवन करना चाहिये।

 

असन्तुष्टाः द्विजाः नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभृतः।
सलज्जा गणिका नष्टाः निलज्जा च कुलाङ्गना।।

अध्याय आठ-श्लोक अट्ठारह

धन का लोभ करने वाला ब्राह्मण असन्तुष्ट रहते हुए अपने धर्म का पालन नहीं कर पाता, इसलिए उसका गौरव शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। राजा भी सन्तुष्ट होते ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि वह अपने राज्य के प्रति सन्तुष्ट होने के कारण महत्त्वाकांक्षा से रहित व सुस्त हो जाता है और शत्रु उसे घेर लेता है। जो वेश्या लज्जायुक्त, संकोचयुक्त होती है, वह भी अपने-अपने ग्राहकों को प्रसन्न न कर पाने के कारण अपना व्यवसाय शीघ्र ही नष्ट कर बैठती है। इसके ठीक विपरीत लज्जा, संकोच न करने वाली कुलीन नारी अपनी चंचलता के कारण दुष्टों की वासना का शिकार होकर नष्ट हो जाती है, क्योंकि वह पतिव्रता नहीं रह पाती।

अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण को सन्तोषी, राजा को महत्त्वाकांक्षी, वेश्या को निर्लज्ज और पतिव्रता कुलांगना नारी को शील-संकोच के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए।

 

अन्नहीनो दहेद्राष्ट्र मन्त्रहीनश्च ऋत्विजः।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।

अध्याय आठ-श्लोक बाइस

यज्ञ द्वारा मनुष्य सब मांगलिक कार्य करता है। यज्ञ कल्प वृक्ष के समान होता है, किन्तु विधि-विधान में कोई कमी रहने पर यज्ञ करने से बहुत भारी अनर्थ भी हो सकता है। यज्ञ के साथ-साथ अन्न आदि का दान न किया जाये, मंत्रोच्चार न हो, यज्ञ करवाने वाले पुरोहितों को यजमान द्वारा उचित दान-दक्षिणा न दी जाये तो भी यज्ञ अनर्थकारी हो जाता है। क्रियाहीन यज्ञ घातक बन जाता है।विशेष बात यह है कि शुद्ध मन्त्र पाठ, अन्न-दान और दान-दक्षिणा के साथ सम्पन्न यज्ञ भारी फल देने वाला है। इसके विपरीत मन्त्र-पाठ में शुद्धि की, अन्न-दान की तथा दान-दक्षिणा आदि की उपेक्षा करने से यज्ञ करने वाले पक्षों की हानि करता है।

आचार्य चाणक्य ने यज्ञ का विरोध न करते हुए यज्ञ में होने वाली असावधानियों से होने वाली हानियों का निर्देश देकर उनसे बचते हुए यज्ञ को सार्थक बनाने और उससे भारी लाभ उठाने को प्रेरित किया है।

 

एकवृक्षसमारूढा नानावर्णाः विहङ्गमाः।
प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र परिवेदना।।

अध्याय दस – श्लोक पन्द्रह

इस संसार में जिस प्राणी का जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी अवश्य होनी है। फिर इसमें शोक और दुःख किस बात का ! जिस तरह रात्रि होने पर अनेक जातियों के विभिन्न रंग-रूप वाले पक्षी एक ही वृक्ष पर आकर रात्रि विश्राम करते हैं और प्रातःकाल होते ही दसों दिशाओं की ओर उड़ जाते हैं, ठीक इसी प्रकार बन्धु-बान्धव रूपी कुछ जीव एक परिवार रूपी वृक्ष पर आकर मिलते हैं, परमात्मा से मिला अपना निश्चित जीवन जीते हैं और अन्त समय आने पर मृत्युलोक के लिए विचरण कर जाते हैं, फिर इसमें रोना-धोना और शोक किस बात का ! आवागमन, अर्थात् उत्पत्ति और मृत्यु, संयोग-वियोग तो जीवों का नित्य कर्म है।

 

गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुद्धि, स्तथापि भाषान्तरलोलुपोऽहम्।
यथा सुधायाममरेषु सत्यां, स्वर्गाङ्गनानामधरासवे रुचिः।।

अध्याय दस-श्लोक अट्ठारह

जिस तरह अमृत का पान करने के पश्चात् भी देवताओं की इच्छा स्वर्ग की, अप्सराओं के अधरों का रस पीने की रहती है, वे उनके अधरपान के लिए लालायित रहते हैं, उसी तरह संस्कृत भाषा का विशेष ज्ञान होते हुए भी नीतिशास्त्र के विद्वान चाणक्य भी अन्य भाषाओं का ज्ञान पाने के लिए लालायित रहते हैं।

आचार्य चाणक्य के कहने का अभिप्राय यह है कि अन्य भाषाओं में मेरी जिज्ञासा का अर्थ न तो संस्कृत में मेरी अरुचि है और न ही उसके प्रति उपेक्षा है बल्कि इसे स्वाद बदलने जैसा अथवा अन्य भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान को जानने की उत्सुकता ही समझना चाहिए। एक भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के बाद दूसरी भाषा के ज्ञान की इच्छा हर ज्ञानी को रहती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *