समाज - Society

समाज

दष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशय: ।।

अध्याय एक-श्लोक पांच

चाणक्य ने कहा है कि अज्ञानी व्यक्ति को कोई भी बात समझायी जा सकती है क्योंकि उसे किसी बात का ज्ञान तो है नहीं। अतः उसे जो कुछ समझाया जायेगा वह समझ सकता है। ज्ञानी को तो कोई बात बिल्कुल सही तौर पर समझायी ही जा सकती है। किन्तु अल्पज्ञानी को कोई भी बात नहीं समझायी जा सकती, क्योंकि उसमें अल्पज्ञान के रूप में अधकचरे ज्ञान का समावेश होता है जो कि किसी भी बात को उसके मस्तिष्क तक पहुँचने ही नहीं देता। इस बात को इस रूप में जानें कि जिस गृहस्थ की पत्नी दुष्ट होती है, उसका जीवन मरण के बराबर हो जाता है और जिसका मित्र नीच स्वभाव का हो उसका भी अन्त निकट ही समझा जाना चाहिए। ठीक इसी प्रकार जिसके नौकर-चाकर मालिक के सामने बोलते हों तो उसके लिए भी जीवन का कोई अर्थ नहीं होता है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस घर में सर्प का वास होता है वहाँ भी जीवन के लक्षण क्षीण हो जाते हैं। क्योंकि व्यक्ति की जरा सी भी लापरवाही उसके लिए घातक हो सकती है।

 

आपदर्थे धनं रक्षेच्छीमतश्च किमापदः।
कदाचिच्चलिता लक्ष्मीः सञ्चितापि विनश्यति।।

अध्याय एक-श्लोक सात

किसी भी विपत्ति से बचने के लिए व्यक्ति को धन की रक्षा करनी चाहिए। अर्थात् धन का सञ्चय करना चाहिए क्योंकि धन यानी लक्ष्मी चंचल होती है। उसके उद्भव व प्रसारित एवं नष्ट हो जाने का कुछ पता नहीं चलता। विपत्तिकाल में सञ्चित धन एवं व्यक्ति का विवेक व आत्मबल ही प्रभावी होते हैं, क्योंकि व्यक्ति यदि उद्यमशील है तो उसे किसी भी अवस्था में रहने की चुनौती स्वीकार होती है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि इसके साथ ही आवश्यक होता है कि एक सत्ताधारी यानी ईश्वर पर अटूट विश्वास हो। जो व्यक्ति इन सब बातों का ध्यान रखते हैं, वे कभी भी परेशान या दुःखी नहीं रहते।

 

यस्मिन्देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासं तत्र न कारयेत।।

अध्याय एक-श्लोक आठ

किसी भी व्यक्ति का सम्मान जिस क्षेत्र में न हो, उसे उस क्षेत्र को तुरन्त त्याग देना चाहिए, क्योंकि सम्मान के अभाव में जीवन का कोई अर्थ नहीं होता है। आचार्य चाणक्य का कथन है कि किसी भी व्यक्ति को वह स्थान भी त्याग देना चाहिए जहाँ उसकी आजीविका न हो क्योंकि जीविका रहित व्यक्तित्व सम्मान योग्य नहीं होता। इसी प्रकार वह देश, क्षेत्र का स्थान भी त्याज्य ही है जहाँ अपने मित्र के सम्बन्धी न रहते हों क्योंकि इनके अभाव में व्यक्ति कभी भी असहाय हो सकता है। मनुष्य क्योंकि सामाजिक प्राणी है, अतः उसकी आवश्यकता की पूर्ति समाज में इन्हीं तत्त्वों से सम्भव है और जहाँ इन तत्वों का अभाव हो तब उसका वहाँ रहना, न रहना बराबर ही है।
इसे इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि वन्य प्राणी जलयुक्त प्रदेश में ही रहना पसन्द करते हैं और समूह में विचरण करते हैं, तब मनुष्य के लिए भी यह तत्त्व कम महत्वपूर्ण नहीं।

 

धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत् ॥

अध्याय एक-श्लोक नौ

आचार्य चाणक्य मानव जीवन की पाँच महत्वपूर्ण आवश्यकताएँ मानते हैं और कहते हैं कि जिस स्थान पर इनकी पूर्ति न होती हो तो उस स्थान को त्याग देना चाहिए – धनी-मानी व्यापारी, कर्मकाण्डी पुरोहित, शासन व्यवस्था में निपुण राजा, सिंचाई अथवा जल आपूर्ति किसी भी व्यक्ति के लिए आवश्यक होते हैं। ध्यान रखें कि इनके अभाव में जीवन उचित नहीं होता अतः स्थान परिवर्तन कर लेना चाहिए। क्योंकि धनी से श्रीवृद्धि, पण्डित से विवेक, निपुण राजा से व्यवस्था एवं जल-आपूर्ति से मानवीय जीवन की सुरक्षा होती है, साथ ही वैद्य भी जीवन की सुरक्षा करते हैं। इनके अभाव में फिर जीवन कैसा !

 

लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र ने विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संस्थितिम्।।

अध्याय एक-श्लोक दस

लोक समाज में रहने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति में लज्जा व भय हो, क्योंकि जिस समाज में ऐसे व्यक्तियों का अभाव हो तो वह समाज निर्धन हो जाता है। जहां लोग लोक, परलोक को नहीं मानते और ईश्वर की आस्था में विश्वास न रखते हों वह स्थान भी त्याज्य है ।किसी समाज क्र लिए त्यागी व्यक्तियोंकी नितान्त आवश्यकता होती है ,इसलिए जिस समागज में त्यागी प्रवत्ति के लोग न हों वह प्रगतिशील नही हो सकता।

जिस समाज के लोगों में चतुराई नहीं होती वह समाज भी रहने योग्य नही होता क्यूंकि चतुराई अर्थात् विवेक प्रगति व् खुशहाली का प्रतीक होता है । अत: मनुष्य को कहीं भी रहते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिय।

आचार्य चाणक्य की यह निति मार्ग दर्शन करती है कि व्यक्ति को देशकाल व समाज के अनुरूप रहने की व्यवस्था करनी चहिये ।

 

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठाति सः बान्धवः।।

अध्याय एक-श्लोक बारह

किसी भी व्यक्ति को बन्धु-बान्धव, मित्र व परिजन की यदि पहचान करनी हो तो अपने विपत्ति काल में करे, क्योंकि किसी व्यक्ति को जब कोई लाइलाज रोग घेरता है, कोई शत्रु आक्रमण करता है या फिर मुकदमा उस पर चलता हो अथवा वह अपने किसी प्रिय को श्मशान ले जाता हो तो ऐसे समय में उसके काम आने वाले ही वास्तव में उसके बन्धु-बान्धव एवं परिजन व मित्र होते हैं। मनुष्य का जीवन विपत्तियों से भरा हुआ है। ऐसे में जो भी उसके सहयोगी हैं वही उसके अपने हैं। आचार्य चाणक्य का कथन है कि विपदा काल में ही अपने-पराये का ज्ञान होता है। उन्होंने स्पष्ट संकेत दिया है कि सुखद अवस्था में तो सभी अपने हो जाते हैं, जबकि वास्तव में अपने तो विपत्ति में ही काम आते हैं।

 

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवाणि नष्टान्येव च।।

अध्याय एक-श्लोक तेरहे

प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कार्यक्षमता होती है। उसका कार्य करने का लक्ष्य व सामर्थ्य होता है, किन्तु वह यदि इसके विपरीत कार्य करता है तो उसे असफलता का मुँह देखना पड़ता है।

अर्थात् व्यक्ति यदि अपने सामर्थ्य से हटकर किसी कार्य में जुटता है तो उसे सफलता मिलना असम्भव हो जाता है। ऐसे में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को अपने दायित्वों को उसी रूप में अंगीकृत करना चाहिए जिस रूप में वह कर सकता है। ऐसा न करने पर उसे लज्जित भी होना पड़ सकता है। आचार्य चाणक्य का कथन है कि सामर्थ्य से बाहर कार्य करने का दावा करने वाला व्यक्ति अन्ततः शेखचिल्ली की उपमा पाता है।

 

नदीनां शस्त्रपाणीनां नखीनां श्रृंगीणां तथा।
विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च।।

अध्याय एक-श्लोक पन्द्रह

जब से समाज अस्तित्व में आया है तब से ही एक महत्वपूर्ण प्रश्न सदैव से ही प्रभावी रहा है कि कौन विश्वसनीय है और किसका विश्वास करें ?

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि लम्बे नाखूनों को धारण करने वाले हिंसक पशु, नदियाँ, स्त्री एवं राजपरिवार सदैव विश्वसनीय नहीं हो सकते क्योंकि इनके स्वभाव परिवर्तनशील होते हैं। आचार्य के कथन को इस रूप में देखें-पालतू जानवर कुत्ता भी कभी-कभी अपना स्वभाव बदलकर कटखना हो जाता है और मालिक को ही कष्ट पहुँचा देता है। फिर वन्य जावों का जिनकी प्रवृत्ति ही हिंसक है भला कैसे विश्वास किया जा सकता है ?

नदी पार करते समय नदी के जल की गहराई व वेग का विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि इसमें कभी भी परिवर्तन हो सकता है। स्त्रियों के सम्बन्ध में भी चाणक्य की धारणा कुछ ऐसी ही है। वह कहते हैं कि स्त्री को पूर्णतः विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह करती कुछ है और कहती कुछ है।

चाणक्य का कथन व मत राजपरिवार के प्रति भी कुछ ऐसा ही है। वह कहते हैं कि राजपरिवार जो आज आपका मित्र है कल शत्रु भी हो सकता है और एकदम उसका यह स्वरूप बदल भी सकता है। अतः राजपरिवार भी विश्वसनीय नहीं होते। उनकी मित्रता भी हानि पहुँचा सकती है।

 

विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि काञ्चनम्।
नीचादप्युत्तमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि।।

अध्याय एक-श्लोक सोलह

चाणक्य का यह श्लोक मानव के गुण की महत्ता दर्शाता है। कहा गया है कि यदि गन्दे स्थान पर सोना (स्वर्ण) पड़ा है तो उसे उठाने में गुरेज नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह कीमती है। विद्या यदि किसी नीच से भी सीखनी पड़े तो सीख लेनी चाहिए, क्योंकि यह उपयोगी होती है।
चाणक्य का कथन है कि यदि विष से अमृत की प्राप्ति होती है तो निश्चय ही प्राप्त करना चाहिए। इसी प्रकार वह मानते हैं कि यदि नीच कुल की स्त्री गुणी है तो उसे ग्रहण करने में संकोच नहीं करना चाहिए। हाँ केवल, रूप-सौन्दर्य के आधार पर नीच कुल की युवती से विवाह निषेध है।

 

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम्।
कष्टात् कष्टतरं चैव परगेहनिवासनम् ।।

अध्याय दो-श्लोक आठ

आचार्य चाणक्य का कथन है कि मूर्खता अतिकष्टकारी होती है, इसके साथ ही युवा अवस्था कष्टप्रद होती है और इन सबसे भी अधिक कष्टप्रद होता है किसी व्यक्ति के घर विवशता में ठहरना।

अपनी बात को आचार्य चाणक्य स्पष्ट कहते हैं कि मर्ख व्यक्ति विवेकहीन होता है, उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता है। अतः उसके कारण दूसरों को अपमान सहना पड़ता है और वह स्वयं भी इसका भागीदार होता है। यदि मूर्ख व्यक्ति का साथ है तो विवेकी व्यक्ति की बुद्धि भी निष्क्रिय हो जाती है और वह केवल मूर्ख साथी की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाने के लिए बाध्य हो जाता है।

चाणक्य का मत है कि युवा अवस्था में काम-क्रोध हावी होते हैं। इसी कारण व्यक्ति की विवेक-शक्ति निष्क्रिय हो जाती है। काम-वासना से भरपूर व्यक्ति को कुछ और नहीं सूझता है, काम-क्रोध में व्यक्ति अन्धा हो जाता है।

इसके साथ ही जो व्यक्ति विवशतावश किसी दूसरे व्यक्ति के घर ठहरता है उसे वास्तव में कष्ट ही होता है, क्योंकि उसकी स्वतन्त्रता छिन जाती है और उसे मेजबान के अनुरूप रहना पड़ता है जो कि उसे सहन नहीं होता। अतः ये तीनों ही अवस्थाएं कष्टकारी होती हैं।

 

शैले-शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने।।

अध्याय दो-श्लोक नौ

आचार्य चाणक्य स्पष्ट करते हैं कि पर्वत तो बहुत से हो सकते हैं किन्तु यह आवश्यक होना कदापि नहीं हो सकता कि प्रत्येक पर्वत पर माणिक्य उपलब्ध ही हों। जैसे कि प्रत्येक हाथी के मस्तक में गजमुक्ता होना जरूरी नहीं, उसी प्रकार सभी वनों में चन्दन वृक्ष की उपलब्धता भी आवश्यक नहीं। यह बात भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि प्रत्येक पुरुष अच्छा ही हो अर्थात् सब कुछ आपके ही अनुरूप हो यह कदापि आवश्यक नहीं होता। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि साधु वृत्ति के लोग ही समाज को नयी दिशा प्रदान करते हैं। किन्तु वे बहुतायत में हों, यह आवश्यक नहीं होता।

 

बलं विद्या च विप्राणां राज्ञां सैन्यं बलं तथा।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां परिचर्यकम्।।

अध्याय दो-श्लोक सोलह

आचार्य चाणक्य के अनुसार विद्या रहित ब्राह्मण, सेना रहित राजा, धन रहित व्यापारी एवं सेवा भाव से रहित शूद्र , महत्वहीन होता है। अर्थात् ब्राह्मण का महत्त्व उसके छापा तिलक से नहीं अपितु उसके गुण यानी विद्या से होता है, उसी प्रकार से जिस राजा की सेना शक्तिशाली होती है वही राजा अन्य राजाओं में सम्मान पाता है। इसके साथ ही अर्थ यानी धन से ही व्यापारी की पूछ होती है और जो शूद्र सेवा भाव रखता है, मान पाता है। किसी भी राष्ट्र की सुख-समृद्धि, सुरक्षा एवं सद्भाव सहयोग इन्हीं चारों तत्त्वों पर निर्भर करता है।

 

निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृप त्यजेत्।
खगाः वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाभ्यागतो गृहम्।।

अध्याय दो-श्लोक सत्तरह

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस प्रकार से कोई गायिका निर्धन प्रेमी को नहीं पूछती, पराजित राजा को प्रजा मान नहीं देती, उसी प्रकार से सूखे व टूटे वृक्षों को पक्षी छोड़ जाया करते हैं। अतः अतिथि को चाहिए कि वह भोजन के तुरन्त बाद मेजबान का घर त्याग दे।

चाणक्य का अभिप्राय यह है कि अपने कर्तव्य से विमुख व्यक्ति कहीं भी सम्मान नहीं पाता है अर्थात् अपने सम्मान की रक्षा स्वयं ही करनी होती है, जो ऐसा नहीं करता, समाज व परिवार में वह अपमान का भागीदार होता है।

 

गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम्।
प्राप्तविद्या गुरु शिष्याः दग्धारण्यं मृगास्तथा।।

अध्याय दो-श्लोक अट्ठारह

आचार्य चाणक्य ने समय का महत्त्व बताते हुए कहा है कि यजमान के घर से पुरोहित दक्षिणा लेकर चला जाता है, विद्या अर्जन के बाद विद्यार्थी गुरु के द्वार से चला जाता है, उसी प्रकार से वन के जल जाने पर पशु-पक्षी वन का त्याग कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं।
आचार्य चाणक्य का मत है कि ऐसा करने पर ही मान व सुरक्षा होती है, वरना जीवन में कष्ट ही भोगना पड़ता है।

 

समाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते।
वाणिज्यं व्यवहारेषु दिव्या स्त्री शोभते गृहे।।

अध्याय दो-श्लोक बीस

प्रेम और व्यवहार सदैव ही समान स्तर के व्यक्ति व परिवार से रखना चाहिए, जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता है वह उपहास, अपमान व कष्ट प्राप्ति का पात्र बन जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि प्रेम व सहयोग-व्यवहार समान स्तर के व्यक्ति से रखें और ऐसे ही व्यक्ति की नौकरी करें, व्यापार भी समान स्तर के लोगों से ही फलता-फूलता है। और वही स्त्री गृह की शोभा होती है जो कि समान स्तर के परिवार से सम्बन्ध रखती है।

 

उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे।
असाधुजनसम्पर्को पलायति यः सः जीवति।।

अध्याय तीन-श्लोक उन्नीस

देवी उत्पात, शत्रु द्वारा आक्रमण, दुर्भिक्ष तथा आन्तरिक उथल-पुथल में डटे रहने वाला कभी न कभी मारा ही जाता है। ठीक उसी तरह जैसे देश में भयानक उपद्रव होने, आग लगने, आतंकवादियों द्वारा सामूहिक हत्याकांड करने, भूकम्प आने तथा प्रबल शत्रु द्वारा देश पर आक्रमण किये जाने, भयंकर अकाल पड़ने तथा दुष्टों द्वारा राज्य सत्ता हथिया लिये जाने पर जो व्यक्ति (नागरिक) भाग जाता है वही जीवित रह पाता है, अन्यथा सामने अपने स्थान पर डटे रहने वाला मारा जाता है। यहाँ आचार्य जी का कथन है कि उक्त चारों स्थितियों में नागरिकों को कहीं अन्यत्र सुरक्षित स्थान पर शरण ले लेनी चाहिए। नहीं तो प्राणरक्षा सम्भव नहीं हो पाती।

 

अध्वा जरा मनुष्याणां वाजिनां बन्धनं जरा।
अमैथुनं जरी स्त्रीणां वस्त्राणामातपो जरा।।

अध्याय चार-श्लोक सत्तरहे

जो व्यक्ति निरन्तर पैदल चलता रहता है, उसकी खान-पान की उचित व्यवस्था नहीं रहती है और उसके सोने-जागने का भी उचित समय निर्धारित नहीं रहता है। इससे उसके स्वास्थ्यपर भी बुरा असर पड़ता है, साथ ही उनके जीवन में बुढ़ापा भी शीघ्र ही आ जाता है। निरन्तर खूटे से बंधे रहने से तथा भागने-दौड़ने का अभ्यास न रह सकने के कारण घोड़े को वृद्धावस्था भी असमय ही आ जाती है। साथ ही जिन स्त्रियों से उनके पति मैथुन नहीं करते, वे बेचारी यौन सुख से वंचित होकर दुःख और चिन्ता में घुलती रहती हैं और यथाशीघ्र ही बूढ़ी हो जाती हैं। कपड़ों को यदि बहुत समय तक तेज धूप में पड़ा रहने दिया जाये तो उनकी आयु भी क्षीण हो जाती है और वे जल्दी फट जाते हैं।
इस प्रकार निरन्तर पैदल यात्रा-मनुष्यों के लिए, निरन्तर घोड़ों का-खूटे से बंधे रहना, अमैथुन-स्त्रियों के लिए, और कड़ी धूप-कपड़ों के लिए हानिकारक है। अतः यौवन की रक्षा के लिए मनुष्यों को पैदल यात्रा मर्यादा में ही करनी चाहिए, घोड़ों को नित्य घुमाना-फिराना चाहिए, युवतियों को अपने पति से मैथुन का अवसर मिलना चाहिए तथा कपड़ों को अधिक समय तक तेज धूप में नहीं पड़े रहने देना चाहिए।

 

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनाम्।।

अध्याय चार-श्लोक उन्नीस

मनु के अनुसार जन्म से प्रत्येक प्राणी शूद्र ही उत्पन्न होता है और यज्ञोपवीत संस्कार–जिसके उपरान्त वह गुरु से शिक्षा पाने का अधिकारी हो जाता है, से वह द्विज या दूसरी बार उत्पन्न हुआ कहलाता है। मनु ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों को ही यज्ञोपवीत वेद विद्या के अध्ययन का अधिकार दिया था। इसलिए इन तीन वर्णों के लोगों को ही ‘द्विज’ अथवा द्विजाति की संज्ञा प्रदान की थी। द्विजातियों-ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों-का आराध्य देव प्रत्यक्ष ज्वलनशील अग्नि है, अर्थात् इन तीनों वर्णों के लोगों को अग्निपूजन अथवा यज्ञ-यज्ञादि करना चाहिए।

अपनी-अपनी प्रकति, शिक्षा-दीक्षा के अनुसार सबकी श्रद्धा के केन्द्र अलग-अलग होते हैं। ब्राह्मणी प्रकृति के व्यक्ति यज्ञ द्वारा श्रद्धा व्यक्त करते हैं। संसार से विरक्त मुनियों का श्रद्धा केन्द्र उनका हृदय होता है। जो ज्ञानी नहीं होते निराकार प्रभु पर ध्यान एकाग्र नहीं कर सकते, उनके लिए कोई मूर्ति ही श्रद्धा केन्द्र बन जाती है। वे मूर्ति पूजक बन जाते हैं। समदर्शी विद्वानों के लिये तो भगवान की प्रत्येक वस्तु श्रद्धा योग्य होती है। उन्हें सर्वत्र परमदेव की दिव्यता का आभास होता रहता है।

 

नि:स्पृहो नाधिकारी स्यान्नाकामो मण्डनप्रियः।
नाविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्ता ने वञ्चकः।।।

अध्याय पाच-श्लोक पाँच

अधिकार पाकर लोभमुक्त होना और महत्वाकांक्षी न होना असम्भव कार्य है। शृंगार-प्रिय व्यक्ति का काम-वासना रहित या तपस्वी होना भी कठिन ही है। मधुरभाषी व्यक्ति वही होता है जो संयमी और विवेकशील होगा। जिस प्रकार मूर्ख मीठा नहीं बोल सकता ठीक इसी प्रकार सच को सच कहने वाला स्पष्ट वक्ता, ठग नहीं हो सकता, सच्चा व्यक्ति धोखेबाज भी नहीं हो सकता। यह अटल सत्य है।

 

मूर्खाणां पण्डिताः द्वेष्या, अधनानां महाधना:।
वाराङ्गानाः कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भगाः ।।।

अध्याय पाँच-श्लोक छह

सब लोग सबके लिये मन में बैर-भाव नहीं रखते । प्रायः यही होता है। द्वेष ईर्ष्यावश होता है। मूर्ख अकारण ही पण्डितों (विद्वानों) से ईर्ष्या द्वेष करते हैं। इसीलिए उनसे बैर रखते हैं। धनहीन व्यक्ति अकारण ही धनिकों को अपने को लूटने वाला शोषक शत्रु समझते हैं। वेश्याएं गृहस्थ नारी से तथा व्यभिचारिणी स्त्रियां पतिव्रता से, विधवाएं सौभाग्यवती स्त्रियों से द्वेष करती हैं। कुरूप व्यक्ति रूपवान से द्वेषभाव रखते हैं। जबकि इनके द्वेषभाव का कोई कारण नहीं और जिसका कोई कारण नहीं उसका कोई उपचार भी नहीं।

 

नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां च वायसः।
चतुष्पदां शृगालस्तु स्त्रीणां धुर्त्ता च मालिनी।।

अध्याय पांच-श्लोक इक्कीस

इस नश्वर संसार में कुछ प्राणी बहुत ही चतुर माने गये हैं। मनुष्यों में नाई, पक्षियों में कौआ, पशुओं में गीदड़ और स्त्रियों में मालिन को अत्यधिक चतुर व धूर्त्त माना गया है। ये चारों ही एक दूसरे से लड़ाने वाले और बेवजह परेशान करने वाले माने जाते हैं। समय के अनुसार इनका वेश भी बदलता रहता है।

अतः हर बुद्धिमान मनुष्य को इनसे सावधान रहना चाहिए। नाई और मालिन की चालाकी भरी धूर्तता का शिकार होने से सावधानीपूर्वक बचने में ही हित है।

 

पक्षिणां काकश्चाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां पापश्चाण्डालः सर्वचाण्डालस्तुनिन्दकः।।

अध्याय छह-श्लोक दो

पृथ्वी के समस्त प्राणियों में कुछ प्राणी स्वभाव से नीच एवं चाण्डाल प्रवृत्ति के होते हैं। पक्षियों में कौआ, पशुओं में कुत्ता स्वभाव से नीच प्रवृत्ति वाले होते हैं। मनुष्यों में जो मनुष्य साधना द्वारा ऊंचा पद पा लेते हैं, उनमें कुछ व्यक्ति स्वभाव से नीच प्रवृत्ति के रह जाते हैं। मुनियों में जो क्रोधी होते हैं, और विद्वान होकर भी जो परनिन्दा (दूसरों की बुराई) में लीन रहते हैं तथा अन्य नीच प्रवृत्ति के कार्य करते हैं, वे चाण्डाल प्रवृत्ति के होते हैं।

अतः दूसरों की निन्दा करने को महापाप समझते हुए उससे यथा सम्भव बचना ही सद्पुरुष के लिए हितकर है।

 

धनधान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।।

अध्याय सात-श्लोक दो

लज्जा मनुष्य की विशेषकर स्त्रियों की शोभा है, किन्तु कुछ बातों में लज्जा या संकोच करना अव्यवहारिक होता है। धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या के उपार्जन और संग्रह में संकोच में पड़ने के बाद व्यक्ति को पछताना पड़ सकता है। इसी प्रकार एक-दूसरे के घर में उदर-पूर्ति (खाने) में लज्जा या अनावश्यक संकोच करने से सम्बन्ध स्थिर नहीं रहते और व्यवहार चल नहीं पाता। जो व्यक्ति लज्जा या व्यर्थ का संकोच इन चीजों में करता है, वह जीवन में दुःख ही पाता है।

 

सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
कुतस्तद्धधनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम्।।

अध्याय सात-श्लोक तीन

असन्तोष मनुष्य के दुःख का कारण है, उसके लिए घातक विष समान है। सन्तोष अमृत के समान है। सन्तोष रूपी अमृत के पीने से तृप्त हुये शान्त प्रवृत्ति के व्यक्तियों को जिस तरह असीम सुख की प्राप्ति होती है, धन के लोभ में व्यर्थ इधर-उधर भटकने वाले असन्तुष्ट लोभी व्यक्तियों को वह सुख जीवन भर प्राप्त नहीं हो सकता । अर्थात् सन्तोषी मनुष्य को मिलने वाले सुख के महत्व की लोभी या असंतुष्ट व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकते।

 

विप्रयोर्विप्रवह्नयोश्च दम्पत्योः स्वामिभृत्ययोः।
अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्य च।।

अध्याय सात-श्लोक पाँच

सामाजिक व्यवहार करते हुए सबके मध्य रहना और कभी-कभी दो के मध्य समयानुसार दखल भी देना पड़ता है, किन्तु दो ब्राह्मणों के मध्य से, ब्राह्मण और अग्नि के मध्य से, पति-पत्नी के मध्य से तथा स्वामी व सेवक के मध्य से गुजरकर कभी नहीं जाना चाहिए। किसान के हल और बैल के मध्य से भी नहीं निकलना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से जहाँ अपमान होता है, वहाँ इनके मध्य से गुजरने वाले व्यक्ति को पीड़ा होने की सम्भावना भी रहती है।

 

शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम्।
हस्तिनं हस्तसहस्रेण देशत्यागेन दुर्जनम्।।

अध्याय सात-श्लोक सात

इस संसार में कुछ चीजें अथवा प्राणी ऐसे होते हैं, जिनसे दूर रहना ही श्रेयष्कर होता है। यहाँ चाणक्य ने इसी संदर्भ में कहा – है कि चलती हुई बैलगाड़ी से पाँच हाथ, घोड़े से दस हाथ व हाथी से सौ हाथ दूर रहना ही हितकर है। स्वभाव से नीच प्रवृत्ति के व्यक्तियों से सुरक्षित होने के लिए यदि वह देश (स्थान) भी छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए। यही मनुष्य के लिए उचित है।

अर्थ यह है कि दुर्जन व्यक्ति की संगति तो बिल्कुल ही छोड़ देनी चाहिए।

 

हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताड्यते।
श्रृंगी लगुडस्तेन खड्गहस्तेन दुर्जनः।।

अध्याय सात-श्लोक आठ

समस्त प्राणियों को एक ही ढंग से वश में नहीं किया जा सकता। सबके लिए अलग-अलग ढंग होते हैं। जैसे हाथी को अंकुश से वश में किया जा सकता है, घोड़े को हाथ के चाबुक के द्वारा वश में लाया जाता है, सींग वाले पशु (बैल आदि) को हाथ में डण्डा लेकर वश में किया जाता है, परन्तु दुर्जन तो कभी वश में आता ही नहीं । दुर्जन को तो खड्ग से खत्म कर देना ही हितकर है अथवा हाथ में तलवार लेकर उसे डरा-धमकाकर सीधे मार्ग पर चलने के लिए विवश करना चाहिए।

 

तुष्यन्ति भोजने विप्राः मयूराः घनगर्जिते।
साधवः परसम्पत्तौ खलाः परविपत्तिषु।।

अध्याय सात-श्लोक नौ

ब्राह्मण भरपेट स्वादिष्ट भोजन मिलने से प्रसन्न होते हैं। मोर बादल के गर्जन को सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं। साधु-सज्जन व्यक्ति दूसरों की खुशी से, उनकी सम्पन्नता से, सौभाग्य से प्रसन्न हो जाते हैं। एकमात्र दुर्जन ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के लोग ही ऐसे होते हैं कि उन्हें दूसरों को विपत्ति में घिरा देखकर ही प्रसन्नता होती है।

 

अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जनम्।
आत्मतुल्यबलं शत्रु विनयेन बलेन वा॥

अध्याय सात-श्लोक दस

अपने से अधिक शक्ति सम्पन्न शत्रु को उसके अनुकूल व्यवहार करके उसे अपना मित्र बनाना चाहिये। दुर्जन शत्रु तो अनुकूल व्यवहार करने से और बिगड़ जाता है। अतः उसक प्रतिकूल (दण्ड-भेद आदि) व्यवहार करके ही उसे वश में लाना चाहिये। अपने समान शक्ति वाले शत्रु को अवसरानुकूल कभी विनय द्वारा, कभी बल प्रयोग करके अपने वश में करना चाहिए। यही हितकर है।

 

नाऽत्यन्त सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ।।

अध्याय सात-श्लोक बारह

किसी भी मनुष्य के लिए कुटिल प्रवृत्ति का होना ठीक नहीं है, किन्तु सीधे यानी भोले स्वभाव का होना भी ठीक नहीं है। अन्यथा कहीं भी ठगे जा सकते हैं। ठीक उसी तरह से जैसे वन के सीधे-सतर वृक्षों को मनुष्य सबसे पहले काटता है। आँधी में भी शीघ्र ही गिर जाते हैं। जबकि टेढ़ी-मेढ़ी शाखाओं वाले वृक्षों को नहीं काटा जाता। मनुष्य में दूसरों की ठगी से बचने के लिए कठोर और कुटिल होने का गुण भी होना चाहिए।

 

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीचप्रसङ्गः कुलहीन-सेवा, चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।

अध्याय सात-श्लोक सोलह

नर्कवासी नीच प्रवृत्ति के, प्राणियों की पहचान करने हेतु निम्न छह गुण दिये गये हैं, जो पृथ्वी पर वास करते हुए नर्कलोक से आये हुए प्राणियों में होते हैं 1. स्वभाव से अत्यन्त क्रोधी, 2. सदैव कटु वचन बोलने वाले, 3. दरिद्र (अपने कर्मों से जो दरिद्र होते हैं), 4. अपने नातेदारों से ईर्ष्या व बैर भाव रखने वाले, 5. नीचे पुरुषों का संग करने वाले, 6. हीन कुल (नीच प्रकृति के शूद्र) वालों की नौकरी करने वाले।

यहाँ आचार्य चाणक्य का कहना है कि क्रोध, कटु वाणी, बैर, कुसंगति, दरिद्रता और नीच प्रवृत्ति के व्यक्ति की व नर्कगामी व्यक्तियों की पहचान कराने वाले लक्षण हैं।

जिसमें उक्त सभी लक्षण हों वह व्यक्ति जीवित भी समान है।

 

चाण्डालानां सहस्रेषु सूरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात्परः।।

अध्याय आठ-श्लोक चार

ज्ञानी और अनुभव की उक्ति प्रचलित है, कि एक मलेच्छ यवन एक सहस्त्र चाण्डालों से बढ़कर होता है। यवन के बराबर कोई नीच नहीं। हजारों चाण्डाल मिलकर जितना उपद्रव करते हैं, अकेला एक यवन उससे कहीं अधिक बढ़कर करता है। इस नीच यवन से तो दूर ही रहने में भलाई है।

 

हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाज्ञानतो नरः।
हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्टा ह्यभर्तृकाः।।

अध्याय आठ-श्लोक आठ

अच्छे आचरण के बिना ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानी मनुष्य का तो जीवन ही व्यर्थ है। सेनापति के बिना सेना व्यर्थ है और पति के बिना पत्नी का जीवन व्यर्थ है।

यहाँ आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ज्ञान की उपयोगिता उसके अनुरूप जीवन जीने तथा आचरण करने में है। ज्ञान के बिना जीवन उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार सेनापति के बिना सना का अस्तित्व और पति के बिना पत्नी का जीवन व्यर्थ है।

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