एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः। चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभी रणम्।।
अध्याय चार-श्लोक बारह
तप अकेले और एकान्त स्थल पर होता है। पढाई दो व्यक्तियों में होती है। दो से अधिक लोग होंगे तो बातें होंगी, पढ़ाई नहीं हो पायेगी। गाने के अभ्यास के लिये तीन पर्याप्त हैं और यात्रा के लिए चार अपेक्षित होते हैं। खेत बोने के लिए पाँच व्यक्तियों की आवश्यकता होती है, और युद्ध समय पर बहुतों की संख्या वाञ्छनीय है।
भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः।।
भ्रमन् सम्पूज्यते योगी भ्रमन्ती स्त्री तु नश्यति।।
अध्याय छः-श्लोक चार
राजा, योगी और ब्राह्मण घूमते हुये ही अच्छे लगते हैं। राजा यदि अपने राज्य के दूसरे नगरों में जाकर प्रजा से सम्पर्क बनाये नहीं रखता तो, उसका विनाश निश्चित ही है। प्रमादी राजा को सेवक कभी सही जानकारी नहीं देते। वे तो सदैव चापलूसी करते हैं। इसी प्रकार योगी एक स्थान पर रहने से आसक्ति में पड़ जाता है। जिससे उसका विरक्त भाव लुप्त होने लगता है। मोह-माया में न फंसने के भाव से ही शास्त्रों में योगी को तीन रातों से अधिक एक स्थान पर न टिकने का निर्देश दिया गया है। ब्राह्मण भी यदि भ्रमण नहीं करता तो उसे नये यजमान प्राप्त नहीं होते, पुराने यजमान भी उसके ज्ञान में नवीनता न पाकर तथा सदैव उसके माँगते रहने से परेशान होकर उससे विमुख हो जाते हैं।
यहाँ आचार्य का कहना है कि राजा को शत्रु व मित्र की जानकारी के लिए, ब्राह्मण को अपनी विद्या व कला के प्रसार के लिये, योगी को अपने वैराग्य की रक्षा के लिये भ्रमणशील होना चाहिए। जहाँ उक्त तीनों घूमते हुये ही शोभा पाते हैं, वहीं स्त्री का घुमक्कड़ होना अवाञ्छनीय एवं वर्जित है। अपने घर-परिवार में न रहकर इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति रखने वाली स्त्री शीघ्र ही दूसरों (परपुरुष) के जाल में फंस जाती है और अनचाहे अपना जीवन नष्ट कर लेती है।
अतः सच्चरित्र स्त्री को अकारण एवं अनावश्यक रूप से भूलकर भी दूसरों के यहाँ घूमने-फिरने की प्रवृत्ति नहीं अपनानी चाहिए। निरुद्देश्य दूसरों के घरों में झांकना स्त्री के लिए सर्वथा वर्जित है।
राजा राष्ट्रकृतं भुक्ते राज्ञः पापं पुरोहितः।
भत्ति च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा।।
अध्याय छः-श्लोक दस
कर्म करने और फल भोगने में आत्मा प्रायः एकाकी होती है, किन्तु इसके अपवाद भी हैं। जैसे सन्तान द्वारा किये गये अपराध का फल माता-पिता को नैतिक दृष्टि में भोगना पड़ता है। ऐसे ही प्रजा द्वारा किये गये दुष्कर्मों का फल राजा को भुगतना पड़ता है। पत्नी द्वारा किये गये अविवेक पूर्ण कार्यों का दण्ड पति को भुगतना पड़ता है और शिष्य की मूर्खता से उसके गुरु को अपमानित होना (दण्ड भोगना) पड़ता है।
इस प्रकार राजा, पुरोहित, पति, गुरु का कर्तव्य क्रमशः प्रजा, राजा, पत्नी और शिष्य को दृढ़ता से सदाचरण में प्रवृत्त करना है। इसी में उक्त चारों का हित है।
वरं न राज्यं न कुराज्यरान्यं, वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो नकुशिष्यशिष्यो, वरं न दारा न कुदारदाराः।
अध्याय छः-श्लोक तेरह
मनुष्य के लिए राज्य से बाहर रहना अच्छा है, किन्तु दुष्ट राजा के राज्य में रहना अनुचित है। मित्र का न होना ठीक है, परन्तु कुमित्र का संग सर्वथा अवाञ्छनीय है। शिष्य न हो तो कोई बात नहीं, परन्तु दुर्जन पुरुष को शिष्य बनाना उपयुक्त नहीं। पत्नीविहीन रहना अच्छा है, पत्नी के बिना भी जीवन चल सकता है, परन्तु किसी दुराचारिणी को अपनी पत्नी बनाना कदापि उचित नहीं है, क्योंकि इससे तो अपमान, अपयश और लोक निन्दा को सहन करना पड़ता है।
अतः श्रेष्ठ राजा के राज्य में रहना, सज्जन की संगति करना, योग्य पात्र को शिष्य बनाना और कुलीन पतिव्रता कन्या से ही विवाह करना सद्पुरुष के लिए वाञ्छनीय है। यही तभी मनुष्यों के लिए हितकर है।
आत्मवर्ग परित्यज्य परवर्गे समाश्रितः।
स्वयमेव लयं याति यथा राजात्यधर्मतः ।।
अध्याय ग्यारह-लोक दो ।
जिस प्रकार अपने धर्म को छोड़कर दूसरे के धर्म का सहारा लेने से राजा का विनाश हो जाता है, उसी प्रकार जो मनुष्य अपने समुदाय (धर्म) को छोड़कर दूसरे के समुदाय का आश्रय लेता है तो वह स्वयं भी राजा की तरह से नष्ट हो जाता है।
दूसरे समुदाय के लोग अन्ततः यही सोचते हैं कि जो अपनों का ना हुआ वो हमारा क्या होगा। इस अविश्वास के कारण ही वह विनाश का पात्र बन जाता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि बुद्धिमान मनुष्य को अपने लोगों को छोड़कर दूसरों को अपनाने की (सहारा लेना) मूर्खत नहीं करनी चाहिए।
देयं भोन्यधनं धनं सुकृतिर्भिनौ सञ्चयस्तस्य वै, श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता।
अस्माकं मधुदान-भोगरहितं नष्टं चिरात् सञ्चितम्, निर्वाणादिति नैजपादयुगलं धर्षन्त्यहो मक्षिकाः ।।
अध्याय ग्यारह-श्लोक अट्ठारह
महान् पुरुष अति परोपकारी होते हैं। ऐसी पुण्यात्माओं। का भोग करने योग्य धन सदा निर्धनों को दान देने के लिए ही होता है। वे कभी भी उसका संचय नहीं करते, क्योंकि दान की वजह से दानवीर कर्ण, विक्रमादित्य और महाराज बलि की कीर्ति आज तक अक्षुण्ण है। इसके विपरीत मधु का संचय करने वाली मधुमक्खियों का सञ्चित मधु (शहद) जब किसी कारण से नष्ट हो जाता है या मधु का व्यापार करने वाले लोग ले आते हैं तो वे दुखी होकर स्वयं से कहती हैं कि बूंद-बूंद कर मेहनत से जोड़ा गया हमारा सारा मधु नष्ट हो गया। हमने न तो स्वयं ही इसका उपयोग किया और न ही दूसरे को दान में दिया। इसी पश्चाताप के कारण मधुमक्खियां अपने छत्ते के रूप में मेहनत से सञ्चित किये। गये श्रम को सर्वथा निरर्थक जाते देखकर ग्लानि से प्राण त्याग देती हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि एक ओर तो संग्रह का आदर्श मधुमक्खियां हैं जिन्हें पश्चाताप करना पड़ता है और दूसरी ओर दान के आदर्श स्तम्भ बलि, दानी कर्ण और महाराजा विक्रमादित्य हैं जिनकी कीर्ति आज भी अमर है। अब बुद्धिमान व्यक्ति को स्वयं निर्णय करना है कि खाद्य-पदार्थों, रुपये-पैसे, धन-दौलत का सञ्चय उचित है अथवा उसको दान करना।
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः।।
अध्याय तेरह-श्लोक सात
सद्पुरुष जैसा आचरण (व्यवहार) करते हैं, इस संसार के साधारण मनुष्य भी वैसा ही व्यवहार करते हैं। जिस बात को सदुपुरुष आदेश मानकर चलते हैं, संसार के मनुष्य भी उसी आदेश रूपी बात को अनुकरण करते देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार राजा के धार्मिक प्रवृत्ति का होने पर प्रजा भी धर्मपरायण, राजा के पापी होने पर प्रजा भी पापाचार में लिप्त तथा राजा के उदासीन होने पर उसकी प्रजा व दरबारीगण सभी उदासीन हो जाते हैं। सिद्धान्तः प्रजा राजा का अनुकरण करती है, जैसा राजा वैसी प्रजा।
कहने का अभिप्राय यह है कि जैसा राजा होता है, उसकी प्रजा भी वैसी ही बन जाती है। जिस प्रकार अपनी प्रजा को सन्मार्ग दिखाने के लिए राजा को अपने चरित्र को आदर्श पुरुष (सद्कर्म करने वाला) बनाना अत्यन्त आवश्यक है, उसी प्रकार अपनी औलाद को महान् बनाने के लिए हर पुरुष को स्वयं भी पापाचार का रास्ता छोड़कर सन्मार्ग अपनाना चाहिये।