आचरण - The Manner

आचरण

आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि।।

अध्याय एक-श्लोक छः

आज के युग में अर्थ की प्रधानता है और धन सञ्चय प्रमुख आधार है। धन सञ्चय मानव के लिए आवश्यक है, क्योंकि न जाने जरूरत कब पड़ जाये और ऐन जरूरत पर धन ही काम आता है।

उन्होंने कहा है कि धन से अधिक महत्त्व नारी का है। दोनों में से यदि किसी एक का चुनाव करना पड़े तो ऐसे में नारी व धन में से नारी का चुनाव करना चाहिए । आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि व्यक्ति को अपनी स्वयं की रक्षा करनी हो और इन दोनों का त्याग करना पड़े तो कर देना चाहिए, क्योंकि यदि आप ठीक हैं तो धन कमाया जा सकता है और स्त्री का उपयोग भी किया जा सकता है, अन्यथा दोनों का उपयोग दुश्मन या अन्य ही करते हैं।

 

अनृतं साहसं माया : मूर्खत्वमतिलोभिता।
अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ।।

अध्याय दो-श्लोक एक

आचार्य चाणक्य प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि स्वाभाविक तौर पर मुक्त प्रवृत्तियां कभी बदलती नहीं हैं। नारी के स्वाभाविक गुणों का उल्लेख उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत करते हुए वह कहते हैं कि नारी के स्वाभाविक गुण झूठ बोलना, अत्यन्त साहस, छली, कपटी, धोखा देने वाली, लोभी, अपवित्र एवं मूर्खतायुक्त होना है।

आचार्य के कथन का उद्देश्य है कि जिस व्यक्ति में ग्रहण करने की लालसा हो तो वह किसी के भी गुणों को ग्रहण करे; नारी गुणों-अवगुणों की खान है अतः उसके गुणों को ही ग्रहण किया जाना चाहिए और अवगुण त्याज्य हैं। स्वाभाविक का तात्पर्य अनिवार्यता कदापि नहीं है-स्वाभाविक का अर्थ है, स्वभाव अनुसार, जिसका जैसा स्वभाव होगा वह वैसे ही गुणों-अवगुणों का धारक होगा, तथा उसी के अनुरूप वह गुण-अवगुण ग्रहण करेगा, अतः नारी से साहस, नदी की गति एवं पक्षियों से स्वच्छन्दता ग्राह्य है।

 

कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को नः पीडितः।
व्यसनं केन ने प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम्।।

अध्याय तीन-श्लोक एक

संसार में भला ऐसा कौन है, जिसके कुल में दोष नहीं है। ढूंढने पर सभी कुलों में कहीं न कहीं, कोई न कोई दोष निकल ही आयेगा। इसी प्रकार इस भूतल पर ऐसा कौन-सा प्राणी होगा, जो कभी न कभी किसी भी रोग से पीड़ित न हुआ होगा। भला ऐसा कौन-सा व्यक्ति इस पृथ्वी पर होगा जिस पर कभी कोई विपदा न आयी होगी और भला इस भू-तल, इस पृथ्वी पर ऐसा भी कोई प्राणी हो सकता है जिसे सदैव ही सुख ही सुख मिला हो। आचार्य चाणक्य इस श्लोक के माध्यम से प्राणी मात्र को तटस्थ निर्विकार भाव का सन्देश देते हुए कहते हैं कि भू-तल पर व्याप्त सभी कुल दोषयुक्त हैं, सभी व्यक्ति रोग से पीड़ित होते रहते हैं, मानव जीवन में सुख और दुःख का आवागमन लगा रहता है। अतः न तो उच्च कुल में जन्म लेने वाले को अहंकारी होना चाहिए और न ही सुख पाकर फूल जाना चाहिए। साथ ही कष्ट आने पर विचलित हो जाना भी उचित नहीं होता है।

 

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम्।।

अध्याय तीन-श्लोक दो

किसी भी मनुष्य के कुल का अनुमान अक्सर उसके आचरण (व्यवहार) से लग जाता है। उसकी भाषा से उसके निवास स्थान (प्रान्त) का ज्ञान होता है। उसके द्वारा किये गये व्यवहार से उसके हृदय की उदारता का अनुमान लगाया जा सकता है। उसके शरीर की आकृति देखकर उसके खान-पान (भोजन) का अनुमान हो जाता है। अतः किसी भी व्यक्ति को देखकर व उससे बातचीत करने के पश्चात् उसके बारे में किसी हद तक अनुमान लगाया जा सकता है।

 

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्।
शास्त्रपूतं वदेद्वाक्यं मनः पूतं समाचरेत्।।

अध्याय दस-श्लोक दो

मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन में श्रेष्ठ आचरण करें, श्रेष्ठ आचरण ही उसे महानता की तरफ अग्रसर करता है, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विवेकपूर्ण आचरण से वह सम्मान व यश का भागीदार बनता है। उसे चाहिए कि वह आँखों से अच्छी प्रकार देखकर ही कदम आगे बढ़ाये, वस्त्र से छानकर जल पिये, शास्त्रों के अनुकूल हितकारी, प्रिय तथा कल्याणकारी वचन बोले तथा मन में अच्छी तरह सोच-विचारकर श्रेष्ठ व्यवहार करे।

 

तद् भोजनं यद् द्विजभुक्तशेषम्,
तत्सौहदं यत् क्रियते परस्मिन् ।
स प्राज्ञता या न करोति पापम्,
दम्भं विना यः क्रियते स धर्मः।।

अध्याय पन्द्रह-श्लोक आठ

वही भोजन पवित्र कहलाता है, जो विद्वानों के भोजन करने के बाद शेष रह जाता है, दूसरों का हित करने वाली वृत्ति (सहानुभूति) ही सच्ची सहृदयता है। श्रेष्ठ बुद्धिमान वही होता है, जो पापकर्मों में प्रवृत्त नहीं होता। धर्म-कर्म वही कल्याणार्थ है जो घमण्ड के बिना किया जाये, छल-कपट के बिना शुद्ध आचरण करना ही सच्चा धर्म है।

कहने का अभिप्रायः यह है, कि ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद ही भोजन करना चाहिए, दूसरों के प्रति सच्ची सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए, पाप कर्मों से बचकर ज्ञान अर्जित करना चाहिए, निश्छल हृदय से धर्माचरण करते हुए जीवन-यापन करने वाला व्यक्ति ही सद्पुरुष (बुद्धिमान, महापुरुष) होता है।

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