कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्।
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।।
अध्याय तीन-श्लोक नौ
कोयल की मीठी वाणी अर्थात् उसका कर्णप्रिय स्वर ही उसका रूप है, कोयल भी कौए के समान काली और कुरूप होती है, परन्तु उसका स्वर लोगों के कानों को इतना मधुर और प्रिय लगता है कि वे उसके कुरूप होने की उपेक्षा करके, उसकी भद्दी शक्ल का ध्यान न देकर उससे स्नेह करने लगते हैं।
इसी प्रकार स्त्रियों का सच्चा सौन्दर्य उनका पतिव्रता होना है, यदि रूपवती युवती चरित्रहीन है तो उसके रूप-सौन्दर्य की दृष्टि से साधारण होने पर भी पतिव्रता स्त्री अपनी स्वामी-भक्ति से पति की चहेती बन जाती है। विद्या रूपहीनों का रूप है, इसी प्रकार क्षमा तपस्वी का श्रृंगार है!
स्त्रीणां द्विगुणः आहारो लज्जा चापि चतुर्गुणा।
साहसं षड्गुणं चैव कामश्चाष्टगुणः स्मृतः ।।
अध्याय एक-श्लोक सत्तरह
चाणक्य के महत्वपूर्ण कथनों में से यह एक है। नारी और पुरुष की समानता व श्रेष्ठता का जिक्र करते हुए वह कहते है कि नारी में पुरुष की अपेक्षा दो गुना भोजन करने की क्षमता होती है, जबकि लज्जा चार गुणा अधिक पायी जाती है और साहस छह गुणा अधिक होता है। ।
नारी व पुरुष में कौन-कौन कितना उच्च होता है यह तो गुणों के आधार पर ही तय होता है, किन्तु आचार्य चाणक्य का कथन है कि नारी पुरुष से उच्च ही होती है। चाहे मामला काम वासना का ही क्यों न हो-वह कहते हैं कि स्त्री में काम वासना पुरुष की अपेक्षा आठ गुना अधिक होती है।
नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहे या कामिनी।
मन्त्रिहीनाः ये राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम् ।।
अध्याय दो-श्लोक पन्द्रह
आचार्य चाणक्य की कलम लिखती है कि नदी के तेज बहाव के कारण उसके तट पर खड़े वृक्ष नष्ट हो जाते हैं। उसी प्रकार जो नारी किन्हीं भी कारणों से दूसरों के घर रहती है, वह भी सदैव लांछित ही होती है, क्योंकि उसके लिए सतीत्व की रक्षा कठिन हो जाती है अर्थात् नारी को दूसरों के घरों में नहीं रहना चाहिए।
इसी प्रकार से जिस राजा का कोई मन्त्री नहीं होता है, वह भी विनाश के कगार पर रहता है। अतः उचित परामर्श एवं सहयोग के लिए राजा के पास मन्त्री का होना आवश्यक होता है।
ये सभी बातें मिथ्या नहीं वरन् उपयोगी हैं, जिनका पालन करना हितकारी ही होता है।
सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या या पतिव्रता ।
सा भार्या या पतिप्रीता सा भार्या या सत्यवादिनी।।
अध्याय चार-श्लोक तेरह
घर विवाहिता पत्नी (नारी) से ही बनता है, किन्तु केवल नारी ही पर्याप्त नहीं, उसमें कुछ गुण भी होने चाहिएं। उसका स्वच्छ,कुशल और पवित्र होना वाञ्छनीय है। पतिव्रता होना भी अनिवार्य है। पति के प्रति प्रेम-भाव न होगा तो वह पत्नी के कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर सकेगी। मन-वचन से सत्य बोलने वाली, अच्छा व्यवहार करने वाली होना भी श्रेष्ठ गुणवती पत्नी के लिए बहुत आवश्यक है। ऐसी उक्त गुणों से सम्पन्न पत्नी को पाकर पति धन्य हो जाता है।
वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सन्नार्या रक्ष्यते गृहम्।।
अध्याय पाँच-श्लोक नौ
धर्म सबसे ज्यादा शक्तिशाली है, किन्तु बिना धन के धार्मिक अनुष्ठान भी पूरे नहीं होते। इसीलिये धर्म की रक्षा के लिये धन वाञ्छित है। विद्या की रक्षा प्राप्त ज्ञानानुसार बार-बार स्मरण करने से होती है। राज्य सत्ता की रक्षा के लिए नीतिवान व दयापूर्ण व्यवहार वाञ्छित है तथा घर की रक्षा कुलीन स्त्री के द्वारा होती है। चरित्रहीन स्त्री, तो घर को नष्ट कर देती है।
अभिप्राय यह है कि धन के अभाव में धर्म-कार्य भी पूर्ण नहीं होते, अनभ्यास से विद्या कण्ठस्थ नहीं रहती, राजा के कठोर व्यवहार से प्रजा रुष्ट हो जाती है। तथा गृहपत्नी के चरित्रहीन होने पर कोई आँख उठाकर उस घर की ओर नहीं देखता।
भस्मना शुद्धयते कांस्यं ताम्रमग्लेन शुद्धयते।
रजसा शुद्धयते नारी नदी वेगेन शुद्धयते ।।
अध्याय छः-श्लोक तीन
इस संसार में मानव प्रवृत्ति की तरह सभी वस्तुओं के निर्मल(शुद्ध) होने की विधि भी अलग-अलग है। कांसे का बर्तन राख से माँजने पर चमक उठता है। तांबे का पात्र इमली के पानी से धोने से निर्मल हो जाता है। स्त्री की देह रजस्वला होने के बाद स्वच्छ हो जाती है। शास्त्रों के अनुसार रजोदर्शन के उपरान्त स्नान से शुद्ध स्त्री ही सम्भोग और गर्भधारण के योग्य होती है, यही स्त्री की वास्तविक शुद्धि (पवित्रता) है। नदी का पानी भी तेज धारा में बहने के बाद स्वच्छ हो जाता है।
बाहुवीर्य बलं राज्ञां ब्राह्मणः ब्राह्मविद् बली।
रूपयौवनमाधुर्य स्त्रीणां बलमनुत्तमम्।।
अध्याय सात-श्लोक ग्यारह
अपनी भुजाओं की शक्ति यानी पराक्रम एवं सेना राजाओं का वास्तविक बल है। तत्त्व ज्ञान ब्राह्मण (विद्वानों) की वास्तविक शक्ति है। सुन्दरता, यौवन और मधुर व्यवहार नारियों की सच्ची और प्रशस्त शक्ति तथा साधन है।
अभिप्राय यह है कि सेना राजाओं की वास्तविक शक्ति और उनकी भुजाओं का बल है। ब्राह्मणों की सच्ची शक्ति जप-तप न होकर ब्रह्म की अनुभूति (सत्य का दर्शन) है। इसी प्रकार स्त्रियों की सबसे अच्छी शक्ति उनकी खूबसूरती, मिठास और जवानी है। जिससे वे बड़े-बड़े योद्धाओं व तपस्वियों को भी क्षण भर में ही पछाड़ देती हैं। ऐसा मनुष्य स्वयं भी देखता है। अतः प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती।
शुद्धं भूमिगतं तोयम् शुद्धा नारी पतिव्रता।
शुचिः क्षेमकरो राजा सन्तोषी ब्राह्मणः शुचिः।।
अध्याय आठ-श्लोक सत्तरह
धरती से निकलने वाला जल, पवित्र व शुद्ध होता है, पतिव्रता नारी सदैव शुद्ध-पवित्र होती है, प्रजा का कल्याण करने बाला राजा पवित्र होता है और सन्तोषप्रद ब्राह्मण (जो मिल जाये उसी में खुश रहने वाला) भी शुद्ध-पवित्र होता है।
अभिप्राय यह है कि कुए से निकलने वाला जल, पतिव्रता स्त्री (जो केवल पति के साथ भोग करती हो), प्रजा का कल्याण करने वाला राजा और थोड़े पर सन्तोष करने वाला ब्राह्मण वाञ्छनीय है।
कवयः किं न पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः।।
मद्यपाः किं न जल्पन्ति किं न खादन्ति वायसाः ।।
अध्याय दस-श्लोक चार
उनका जीवन व्यर्थ है, जिन्होंने कभी अपने हाथों से दान नहीं किया, कभी अपने कानों से वेद नहीं सुना, अपनी आँखों से सज्जन पुरुषों अर्थात् साधु-महात्माओं के दर्शन नहीं किये, जिन्होंने कभी तीर्थ यात्रा नहीं की, जो अन्याय से प्राप्त किये धन से अपना भरण-पोषण करते हैं, घमण्ड से जिनका सिर हमेशा ऊँचा रहा।
दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि स्त्रियां अत्यन्त दुस्साहसी होती हैं, वे अपनी विषय-वासना के लिए कुछ भी कर गुजरती हैं। मदिरा के नशे में डूबे व्यक्ति का विवेक ठीक कार्य नहीं करता, वे कुछ भी अन्ट-शन्ट बक देते हैं। कौवे भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न करते हुए कुछ भी खा लेते हैं; उनमें धैर्य नहीं होता।
अभिप्राय यह है कि दुस्साहसी स्त्री, नशा करने वाले व्यक्ति, कौवों का भक्ष्य-अभक्ष्य में अन्तर न कर पाना-ऐसे नीच व निन्दनीय प्राणियों का जीवन व्यर्थ है। उन्हें अपने शरीर का त्याग कर देना चाहिए।
लुब्धानां याचकः शत्रुर्मखणां बोधको रिपुः।
जारस्त्रीणां पतिःशत्रुश्चौराणां चन्द्रमा रिपुः ।।
अध्याय दस –श्लोक छ:
धन के लोभियों के लिये माँगने वाला शत्रु रूप है, क्योंकि याचक को देने के लिये उन्हें धन का परित्याग करना पड़ता है। मूर्खों को समझाने-बुझाने वाला व्यक्ति अपना शत्रु लगता है क्योंकि वह उनकी मूर्खता का समर्थन नहीं करता। परपुरुष से सम्बन्ध रखने वाली दुराचारिणी स्त्रियों के लिए उनका पति ही शत्रु है, क्योंकि उसके कारण ही उनकी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता में बाधा पड़ती है। चोर चन्द्रमा को अपना शत्रु समझते हैं, क्योंकि उनके लिए अन्धेरे में छिपना जितना सरल होता है, वैसा चांदनी में नहीं।
जल्पन्ति सार्द्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः।
हृदये चिन्तयन्त्यन्यं न स्त्रीणामेकतो रतिः।।
अध्याय सोलह-श्लोक दो
किसी भी पुरुष को वेश्याओं से सम्बन्ध नहीं रखने चाहिएं। वेश्याएं धन प्राप्ति के लिए धन देने वाले का मनोरंजन करने के लिए हंसती हैं, कामी पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, बातचीत किसी के साथ करती हैं, विलासपूर्वक देखती किसी और को हैं और मन में चिन्तन किसी और का करती हैं। धन लोभ के कारण उनका प्रेम-प्रपंच किसी एक से नहीं अनेक से होता है। यह प्रेम-प्रीति स्थायी नहीं होती। ।
कहने का अभिप्रायः यह है कि किसी भी पुरुष को चरित्रहीन नारी के बतियाने और प्रेम-पूर्वक देखने को उनका अपने प्रति झुकाव नहीं मानना चाहिए, तथा उनकी निष्ठा पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये।
अशक्तस्तु भवेत्साधुर्ब्रह्मचारी च निर्धनः।
व्याधिष्ठो देवभक्तश्च वृद्धा नारी पतिव्रता।।
अध्याय सत्तरह- श्लोक छ:
निर्धन तथा आजीविका पैदा करने में असमर्थ व्यक्ति बाबा बन जाता है, शक्तिहीन पुरुष प्रायः ब्रह्मचारी बन जाता है। असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति ईश्वर का भक्त बनकर साधना करता है। तथा बूढ़ी स्त्री पतिव्रता बन जाती है। यह आज के युग में भी देखा जा सकता है।
जबकि सामर्थ्य होने पर भी ब्रह्मचर्य धारण करने, धन सम्पन्न होने पर भी विरक्त बनने, स्वस्थ होने पर ईश्वर-भक्त बनने तथा रूप यौवन के रहने पर भी पतिव्रता धर्म का पालन करने का ही महत्व है।
पत्युराज्ञां विना नारी हृापोष्य व्रतचारिणी।
आयुष्यं हरते पत्युः सा नारी नरकं व्रजेत्।।
अध्याय सत्तरह-श्लोक नौ
पति की आज्ञा के बिना व्रत-उपवास करने वाली नारी अपने पति की आयु को घटाती है। इस पाप को करने के फलस्वरूप उसे मृत्यु के उपरान्त नर्कगामी माना गया है। पतिव्रता नारी को चाहिए कि वह अपने पति की आज्ञा का पालन करे। पति के निर्देशानुसार उसे आचरण करना चाहिए। नीतिवान महापुरुषों का कहना है कि भूखों मरने वाला व्रत नहीं करना चाहिये, क्योंकि जो नारी इस तरह भूखे रहकर अपने शरीर को कष्ट देती है, उसे फल प्राप्ति तो बहुत दूर, स्वयं कष्टों को भोगती हुई वह अपने पति की आयु ही घटाती है।
अर्थ यह है कि यदि पति अपनी पत्नी के स्वास्थ्य का ध्यान करते हुए पत्नी को व्रत-उपवास करने से मना करता है तो पत्नी को हठ नहीं करनी चाहिए। अन्यथा रोग आदि के बढ़ जाने से धनहानि व शरीर की हानि भी उठानी पड़ सकती है।
सद्यः प्रज्ञाहरा तुण्डी सद्यः प्रज्ञाकरी वचा।
सद्यः शक्तिहरा नारी सद्यः शक्तिकरं पयः।।
अध्याय सत्तरह-श्लोक चौदह
हर पदार्थ के अपने-अपने गुण होते हैं। तुण्डी (कुन्दरू) के सेवन करने से बुद्धि तत्काल नष्ट हो जाती है, किन्तु शरीर में असीम ताकत की वृद्धि होती है। इसके विपरीत वचा (एक जड़ी) के सेवन करने से शीघ्र ही बुद्धि विकसित हो जाती है। यह आयुवर्द्धक, वात, पित्त, कफ नाशक होती है। नारी शीघ्र ही शक्ति का हरण करने वाली होती है और दूध के पीने से तत्काल खोयी हुई ताकत वापस लौट आती है। नारी का अत्यधिक संग करने से शीघ्र ही बुढ़ापा आ जाता है।
इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने यही दर्शाया है कि तुण्डी बुद्धिनाशक और वचा बुद्धिवर्धक है। नारी शक्तिनाशक और दूध शक्तिवर्द्धक है।
न दानैः शुध्यते नारी नोपवासश्तैरपि।
न तीर्थसेवया तद्वद्भर्तुः पादोदकैर्यथा।
अध्याय सत्तरह-श्लोक ग्यारह
इस संसार में कोई भी नारी तरह-तरह के दान करने, सैंकड़ों व्रत करने, तीर्थ स्थानों में स्नान करने से भी वैसी पवित्र और शुद्ध नहीं होती जैसी अपने पति की हृदय से सेवा करने से शुद्ध हो जाती है। नारी के लिए उसका पति ही गति, प्राण, सम्पत्ति, धर्म-कर्म, काम और मोक्ष का साधन है।
अर्थ यह है कि किसी भी नारी के लिए पति-सेवा से बढ़कर दूसरा कोई फलदायक पुण्य कार्य नहीं है।
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Ashok पुरोहित
Nari charitr