ऐसे टूटा नारद का अहंकार - Aise Tuta Narad Ka Ahankar

ऐसे टूटा नारद का अहंकार

एक बार नारद के मन में यह अभिमान पैदा हो गया कि वे ही भगवान विष्णु के सबसे बड़े भक्त हैं। वे सोचने लगे, ‘मैं रात-दिन भगवान विष्णु का गुणगान करता हूं। फिर इस संसार में मुझसे बड़ा भक्त कौन हो सकता है? किंतु पता नहीं श्रीहरि भी मुझे ऐसा समझते हैं या नहीं?’

यह विचारकर नारद भगवान विष्णु के पास क्षीरसागर में पहुंचे और उन्हें प्रणाम किया।

“आओ नारद!” विष्णु बोले, “कहो कैसे आना हुआ?”

“आपसे एक बात पूछने आया हूं, भगवन।” नारद बोले।

“मैं तुम्हारे मन की बात जानता हूं, नारद। फिर भी तुम्हारे ही मुख से सुनना चाहता हूं।” विष्णु ने कहा।

“हे देव! मैं जीवन भर आपका गुणगान करता रहा हूं, पल-पल, हर क्षण मुझे बस आपका ही ध्यान रहता है। आप मुझे यह बताइए कि क्या मुझसे भी बड़ा आपका कोई अन्य भक्त है संसार में?” नारद ने पूछा।

विष्णु समझ तो पहले ही गए थे कि नारद को अपनी भक्ति पर अभिमान पैदा हो गया है, किंतु अपने मन की बात छुपाकर वे बोले, “नारद! इस प्रश्न के लिए तो तुम्हें मेरे साथ मृत्युलोक चलना पड़ेगा।”

“मैं तैयार हूं भगवन।” दोनों मृत्युलोक को चल पड़े।

धरती पर पहुंचकर दोनों ने किसान का भेष धारण किया और एक गांव के किनारे बनी एक झोंपड़ी की ओर चल पड़े। विष्णु बोले, “नारद! मेरा एक बहुत बड़ा भक्त यहां इस कुटिया में रहता है|”

“आश्चर्य है, क्या मुझसे बढ़कर भी किसी की भक्ति हो सकती है।” नारद के मुख से निकला, “क्या वह भी मेरी तरह आपका ध्यान लगाए रहता है?”

“आओ, स्वयं ही जान लोगे।” विष्णु ने कहा और उस कुटिया की ओर बढ़ गए।

किसान उस समय कुटिया से बाहर अपनी गाय को बांध रहा था। उसके मुख से ‘हरि, हरि गोविंद’ का स्वर निकल रहा था। किसान भेषधारी विष्णु ने उसके निकट जाकर ‘नारायण-नारायण’ कहा तो किसान ने विनीत स्वर में पूछा, “आप कहां से आए हैं, भद्र। मेरे लिए कोई सेवा हो तो नि:संकोच बताइए।”

“हम नगर जा रहे हैं, पर अंधेरा घिरने लगा है। वन में जंगली पशुओं का डर है। इसलिए रात भर का आश्रय चाहते हैं।”

“मेरी कुटिया में आपका स्वागत है भद्र और जो रूखा-सूखा घर में है, आपके लिए हाजिर है। भगवान ने मुझे आप लोगों की सेवा का अवसर दिया है, बड़ी कृपा हुई उसकी।” किसान ने प्रसन्न भाव से कहा।

बाहर दालान में एक खटिया पर दोनों को बिठाकर किसान अंदर गया और अपनी पत्नी से कहा, “देवी! दो अतिथि आ गए हैं।”

किसान की पत्नी उस समय अपने बच्चों को भोजन परोस रही थी। धीरे से आटे का बरतन दिखाती हुई बोली, “घर में इतना-सा ही आटा है, और ये बच्चे और भोजन मांग रहे हैं।”

“कोई बात नहीं। हम अतिथियों को भरपेट भोजन कराएंगे।” किसान बोला, “तुम बच्चों को आज कांजी बनाकर पिला देना।”

नारद और भगवान ने उन दोनों का सारा वार्तालाप सुना, फिर भी परीक्षा के लिए भोजन की थाली पर बैठ गए। जब दोनों भरपेट भोजन कर चुके तो नारद सोचने लगे, ‘यह सीधा-सादा गृहस्थ भगवान का सबसे बड़ा भक्त कैसे हो सकता है?’

उधर श्रीहरि ने किसान से और भोजन लाने की फरमाइश कर दी। बोले, “मेरा पेट अभी नहीं भरा। क्या और भोजन मिलेगा?”

किसान रसोईघर में गया और जाकर पत्नी से पूछा, “कुछ और भोजन बचा है क्या?”

“बच्चों के लिए कांजी बनाई है, बस वही शेष है।” पत्नी बोली।

विष्णु और नारद वह भी पी गए। किसान और उसके परिवार को भूखे ही सोना पड़ा। भूखे बच्चे मां का आंचल थामकर कह उठे, “मां, नींद नहीं आ रही। मुझे बड़े जोर की भूख लगी है, पिता ने उन अतिथियों को कांजी भी क्यों पिला दी?”

“अतिथि को भोजन कराना स्वयं विष्णु भगवान को भोग लगाने के समान है, बेटा!” पिता ने बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

बाहर दालान में दोनों अतिथि अलग-अलग बिस्तरों पर लेटे हुए थे। भगवान विष्णु ने कहा, “तुमने सुना नारद! किसान और उसके परिवार को भोजन नहीं मिला, फिर भी वह मेरे गुण गा रहा है|”

“यह तो कुछ भी नहीं। मैंने तो कई-कई दिन भूखे रहकर आपका स्मरण किया है।” नारद ने कहा।

अगले दिन सुबह उन्होंने देखा। किसान भगवान विष्णु की मूर्ति के सामने कह रहा था, “गोविंद हरि-हरि। तुम सदा मेरे मन में बसे रहो, बस, मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” फिर वह दोनों अतिथियों से बोला, “हरि की बड़ी कृपा है। वही जग का रखवाला है। प्रभु की दया से रात को कोई कष्ट तो नहीं हुआ? आप दोनों जब तक आपका जी चाहे, तब तक यहां रहें। मैं खेत पर जा रहा हूं।”

“हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे, यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो।” श्री हरि बोले।

नारद और विष्णु भगवान किसान के साथ उसके खेत पर गए। किसान बोला, “यही है अपना खेत। अब मैं अपना काम करूंगा…गोविंद हरि-हरि।”

“तुम तो सत्पुरुष हो। भगवान के बड़े भक्त हो, हर घड़ी उनका नाम लेते रहते हो।” नारद बोले।

“अरे कहां। काम से जब भी थोड़ा बहुत समय मिलता है, तभी उनका नाम ले लेता हूं।” किसान बोला।

“कब-कब मिलता होगा, समय?” नारद ने पूछा।

“सुबह उठता हूं तब। रात को सोता हूं तब और दिन में जब भी काम से समय मिल जाए।” किसान ने बताया।

“ओह, समझा।” नारद के मुख से निकला।

दोनों किसान से विदा लेकर चले तो नारद ने व्यंग्य के स्वर में कहा, “आपने सुना भगवन। वह सुबह-शाम दो-चार बार दिन में आपका स्मरण करता है जबकि मैं हर समय आपका ध्यान करता हूं। फिर भी आप उसे महान भक्त बताते हैं।”

श्रीहरि चुप रहे, किंतु मन ही मन उन्होंने कहा, ‘कारण भी जान जाओगे, नारद।’

विष्णु ने एक कलश को तेल से लबालब भरकर नारद को दिया और बोले, “नारद! इसे अपने सिर पर रखकर बिना हाथ लगाए सामने वाली पहाड़ी तक ले चलो। ध्यान रहे, इस कलश में रखे तेल की एक बूंद भी जमीन पर गिरने न पाए।”

“यह कार्य सहज तो नहीं है, तथापि आपकी कृपा हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।” नारद बोले और कलश सिर पर रख लिया।

‘उफ्! थोड़ा-सा ध्यान चूका तो तेल छलक जाएगा।’ सोचते हुए नारद सिर पर कलश उठाए पहाड़ी की ओर चल दिए।

नारद पहाड़ी तक गए और लौट आए। विष्णु बोले, “लौट आए नारद! ठीक है, अब यह बताओ कि इतनी दूर जाने और आने में तुमने कितनी बार मेरा स्मरण किया है?”

“एक बार भी नहीं भगवन।” नारद बोले, “करता भी कैसे? मेरा सारा ध्यान तो तेल और कलश की तरफ लगा हुआ था।”

“तब तुम्हीं सोचो।” श्रीहरि बोले, “वह किसान दिन भर कठिन श्रम करता है। फिर भी दो-चार बार मेरा स्मरण जरूर करता है और तुम एक बार भी मेरा स्मरण नहीं कर पाए।”

नारद के अंतर्चक्षु खुल गए। श्रीहरि के चरणों में गिरकर वह बोले, “मान गया प्रभु! जो संसार के झंझटों में रहकर भी आपका स्मरण करते हैं, वे ही सबसे बड़े भक्त हैं।”

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