एक बार देवर्षि नारद भगवान कृष्ण के पास द्वारका पहुंचे। भगवान कृष्ण ने सिंहासन से उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया, और पूछा, “आओ नारद! कैसे आना हुआ?”
“कष्ण! मैं यह जानना चाहता हूं कि माया क्या है? बताओगे?” नारद ने कहा।
“नारद! माया को बताया नहीं जा सकता।” कृष्ण बोले, “इसे तो केवल अनुभव से ही जाना जा सकता है। मेरे साथ आओ।” कहकर कृष्ण नारद को द्वारका से बाहर ले चले। शीघ्र ही वे एक मरुस्थल में जा पहुंचे। मरुस्थल को देखकर नारद चौंके। बोले, “कहां ले जाओगे मुझे प्रभु! भला इस मरुस्थल में माया का अनुभव कैसे होगा?”
“धीरज रखो नारद।” कृष्ण ने सांत्वना दी।
काफी दूर चलने के बाद कृष्ण अचानक रुक गए, गले पर हाथ रखते हुए उन्होंने कहा, “अब और नहीं चला जाता, नारद! मेरा गला सूख रहा है। यह पात्र ले जाओ और कहीं से जल लेकर आओ।”
“घबराइए मत कृष्ण।” नारद ने पात्र लेते हुए कहा, “मैं अभी जल लेकर आता हूं।”
नारद जल की खोज में निकल पड़े। उन्होंने दूर-दूर तक दृष्टि घुमाई, हर तरफ उन्हें बालू के ऊंचे-ऊंचे टीले ही दिखाई दिए। पर जब वे कुछ और बढ़े तो एक छोटी-सी बस्ती उन्हें दिखाई दे गई। नारद बस्ती के समीप पहुंचे तो एक कुएं पर पानी भरती एक नवयुवती उन्होंने देखी। नवयुवती बहुत ही सुंदर थी।
“देवी! थोड़ा-सा जल पिलाकर मेरी प्यास बुझाओगी? मैं बहुत प्यासा हूं।” नारद ने कहा।
“हां-हां क्यों नहीं। लीजिए जल पीजिए।” युवती के मुंह से वीणा के तारों जैसी झंकार-से शब्द निकले। उसने जलपात्र से नारद को जल पिलाया। इस बीच नारद मुग्ध भाव से जल पीने के साथ-साथ उसका रूप निहारते रहे।
‘यह तो कोई देवी ही है।’ वह ये भी सोचते रहे।
नारद उस सुंदरी के पीछे-पीछे उसके घर पहुंचे। वहां एक अधेड़ आयु का पुरुष बैठा था।
“क्या आप ही इस घर के स्वामी हैं?” नारद ने पूछा।
“इस घर का ही नहीं, मैं सारे गांव का स्वामी हूं। तुम्हें क्या काम है, महाराज?” उस व्यक्ति ने उत्तर दिया।
“मैं तुम्हारी पुत्री के साथ विवाह करना चाहता हूं।” नारद ने कहा।
“हां-हां क्यों नहीं?” अधेड़ आयु के गृहस्वामी ने कहा, “तुम नवयुवक हो, स्वस्थ हो, बलवान हो। परंतु मेरी एक शर्त है।”
“कैसी शर्त?” नारद ने आशंकित स्वर में पूछा।
“तुम्हें मेरी पुत्री से विवाह करके इसी गांव में, इसी घर में रहना पड़ेगा।”
“बस, इतनी-सी बात है। मुझे तुम्हारी शर्त स्वीकार है।” नारद बोले और सोचने लगे कि इस सुंदरी को पाने के लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूं।
दोनों का विवाह हो गया। नारद उसी घर में रहने लगे।
विवाह के कुछ ही दिन बाद मुखिया की मृत्यु हो गई। उसका सारा काम नारद को संभालना पड़ा। नारद खेती-बाड़ी संभालने लगे।
नारद के चार संतानें हुईं, इससे अपनी संतानों को पालने-पोसने का दायित्व भी उन पर आ पड़ा।
समय अपनी रफ्तार से बीत रहा था कि एक दिन आंधी-तूफान और वर्षा तथा बाढ़ के रूप में उन पर विपत्ति टूट पड़ी। पत्नी और बच्चों को नौका में बैठाकर नारद हरहराते पानी में जान बचाने का प्रयास करने लगे। परंतु बाढ़ का एक ऐसा रेला आया कि नाव उलट गई। नारद की पत्नी और चारों बच्चे बाढ़ के पानी में डूब गए। नारद ने उन्हें बचाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन सफलता न मिली। बाढ़ का पानी नारद के बच्चों और पत्नी को लील गया। थोड़ी ही देर बाद पानी का दूसरा रेला आया जिसने नारद को किनारे पर ला पटका, तट पर पड़े नारद विलाप करने लगे, “हाय विधाता, यह क्या हो गया? पत्नी गई, बच्चे डूब गए। हाय, अब मैं अकेला जीकर क्या करूंगा?”
तभी उन्हें कृष्ण की आवाज सुनाई दी, “नारद! मैं बहुत प्यासा हूं। जल लाए?” नारद ने घूमकर देखा, सामने कृष्ण खड़े थे। नारद सुबकते हुए बोले, “कृष्ण! मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, सभी बाढ़ में बह गए। उन्हें फिर से जीवित कर दो।”
कृष्ण हंसे, बोले, “नारद! किस भ्रम में हो, न कभी तुम्हारी पत्नी थी और न बच्चे। वह सब तो माया थी।”
नारद के मन पर छाया संताप मिट गया। उनका भ्रम टूट गया। उन्होंने हाथ जोड़कर कृष्ण को नमन किया। बोले, “हे कृष्ण! तुमने मुझे ज्ञान देकर मुझ पर बड़ा उपकार किया है। अब मैं समझ गया हूं कि जीवन स्वयं माया है। उससे छुटकारा पाना बहुत कठिन है। तुम्हारी कृपा हो, तभी मनुष्य उस पर विजय प्राप्त कर सकता है।”