भक्त सूरदास जी विक्रमी सम्वत सोलहवीं सदी के अंत में एक महान कवि हुए हैं, जिन्होंने श्री कृष्ण जी की भक्ति में दीवाने हो कर महाकाव्य ‘सूर-सागर’ की रचना की| आप एक निर्धन पंडित के पुत्र थे तथा 1540 विक्रमी में आपका जन्म हुआ था| ऐसा अनुमान है कि आप आगरा के निकट हुए हैं| हिन्दी साहित्य में आपका श्रेष्ठ स्थान है|
आपका जन्म से असली नाम मदन मोहन था| जन्म से सूरदास अन्धे नहीं थे| जवानी तक आपकी आंखें ठीक रहीं तथा विद्या ग्रहण की| विद्या के साथ-साथ राग सीखा| प्रकृति की तरफ से आप का गला लचकदार बनाया गया था तथा तन से बहुत सुन्दर स्वरूप था| बचपन में ही विद्या आरम्भ कर दी तथा चेतन बुद्धि के कारण आप को सफलता मिली| चाहे घर की आर्थिक हालत कोई पेश नहीं जाने देती थी|
भारत में मुस्लिम राज आने के कारण फारसी पढ़ाई जाने लगी थी| संस्कृत तथा फारसी पढ़ना ही उच्च विद्या समझा जाता था|
मदन मोहन ने भी दोनों भाषाएं पढ़ीं तथा राग के सहारे नई कविताएं तथा गीत बना-बना कर पढ़ने लगा| उसके गले की लचक, रसीली आवाज़, जवानी, आंखों की चमक हर राह जाते तो मोहित करने लगी, उनका आदर होने लगा तथा उन्हें प्यार किया जाने लगा| हे भक्त जनो! जब किसी पुरुष के पास गुण तथा ज्ञान आ जाए, फिर उसको किसी बात की कमी नहीं रहती| गुण भी तो प्रभु की एक देन है, जिस पर प्रभु दयाल हुए उसी को ही ऐसी मेहर वरदान होती है| मदन मोहन कविताएं गाकर सुनाता तो लोग प्रेम से सुनते तथा उसको धन, वस्त्र तथा उत्तम वस्तुएं भी दे देते| इस तरह मदन मोहन की चर्चा तथा यश होने लगा, दिन बीतते गए| मदन मोहन कवि के नाम से पहचाना जाने लगा|