सत्ता और बलवंड जी की जीवनी - Satta and Balwand Introduction

सत्ता और बलवंड जी की जीवनी

सत्ता और बलवंड दोनों सगे भाई थे| वह भाट जाति से थे और पांचवें पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी के समय उनकी हजूरी में कीर्तन किया करते थे| रागों में निपुण होने के कारण वह अच्छे रबाबी बन गए| उनकी चारों तरफ कीर्ति थी और गुरु घर में उनको अच्छा मान-सम्मान प्राप्त था| उनका कीर्तन सुनकर सारी संगत का समां बंध जाता था| सत्ता की लड़की जवान हुई तो उसका विवाह करने का निर्णय किया गया| गुरु घर के रबाबी होने के कारण उन्होंने सलाह की कि लड़की का विवाह बड़ी धूमधाम के साथ किया जाएगा लेकिन सत्ता और बलवंड के पास इतना धन नहीं था कि जो अच्छा दहेज दे सकें और आए मेहमानों एवं बारातियों को अच्छा से अच्छा भोजन खिला सकें| सत्ता ने अपने भाई बलवंड से सलाह करके मन में सोचा कि वह सतिगुरु जी के आगे प्रार्थना करेंगे कि सतिगुरु जी एक दिन की सारी भेंट उन्हें देने की कृपा करें, वह भेंट अधिक होगी तथा उनके सारे कार्य संवर जाएंगे|

यह सोचकर दोनों भाई सतिगुरु जी के पास गए और विनती की, ‘महाराज! हमारी लड़की का विवाह है लेकिन विवाह का खर्च पूरा करने के लिए हमारे पास कुछ नहीं, इसलिए आप जी कृपा करके आज की सारी भेंट हमें देकर मेहर करें|’

रबाबियों की यह बात सुनकर सतिगुरु जी मुस्करा दिए और वचन किया, ‘राय कन्या की शादी की चिन्ता न करो| गुरु घर में कीर्तनीए होने के कारण आपको कोई कमी नहीं आएगी| आवश्यकता अनुसार आपको धन मिल जाएगा|

लेकिन सत्ता और बलवंड सतिगुरु जी के वचनों का भावार्थ न समझ सके, उनके मन में लालच आ गया था| सतिगुरु जी उनके मन की बदली हुई दशा को जान गए थे| इसलिए गुरु जी अहंकार की अग्नि से उन दोनों को बचाना चाहते थे| लेकिन रबाबी अहंकार से न बच सके और उन्होंने अपनी जिद्द न छोड़ी| अन्त में सतिगुरु जी ने वचन किया, ‘ठीक है, जो भेंट कल संगत चढ़ाएगी आप ले जाना और उससे अपनी पुत्री की शादी कर लेना|’

प्रात:काल सत्ता और बलवंड ने कीर्तन करना शुरू किया लेकिन उनकी वृति कीर्तन की तरफ से उखड़कर भेंट की ओर लग गई| कीर्तन के समय जो भी सिक्ख या गुरु घर का श्रद्धालु आकार नमस्कार करता तो दोनों भाइयों की निगाह उसके चढ़ावे की तरफ लग जाती| इस तरह कीर्तन में रस न रहा, ताल की एकसुरता टूट गई और लै कांपने लगी| गुरुबाणी में भी कई भूलें होने लगीं तथा बेरसी छा गई|

उनके कीर्तन की बेरसी और संगत के कम आने के कारण ऐसा सबब बना कि एक सौ रूपए से अधिक चढ़ावा भेंट न हुआ| भेंट कम देखकर दोनों भाइयों के सिर में पानी फिर गया|

वह कुछ गुस्से और हैरानी के साथ बोले, ‘महाराज! संगत की ओर से भेंटे बहुत कम चढ़ाई गई हैं, इसलिए हमारी और सहायता कीजिए, इतने से शादी नहीं हो सकती|

यह सुनकर पांचवें पातशाह मुस्कराए और वचन किया, ‘भाई आप ने चढ़ावे का फैसला किया था| इसलिए चढ़ावा ले जाओ| कन्या की किस्मत में जो कुछ होगा, वह उसको मिल जाएगा| लड़की की चिन्ता न करो पर अपना वचन निभाओ|’

उस समय दोनों भाइयों की बुद्धि भ्रष्ट हो गई तथा उनको किसी बात की समझ ही नहीं आई| मन में अहंकार था कि वह कीर्तनीए हैं, यदि कीर्तन न करेंगे तो गुरु का दरबार कैसे लगेगा? सतिगुरु महाराज जी की शक्ति का अनुभव भी भूल गया और अहंकार करके बैठने का फैसला कर लिया|

अगली सुबह ‘आसा की वार’ का कीर्तन होना था लेकिन दोनों ही रबाबी हाजिर न हुए और घर में पलंग पर लेटे रहे| दरबार में संगत इंतजार करने लगी| सतिगुरु जी भी अपने नियम अनुसार दरबार में उपस्थित हुए और सिंघासन पर विराजमान हो गए| गुरु जी ने रबाबियों को दरबार में अनुपस्थित देखकर एक सिक्ख को कहा कि वह उन दोनों को बुला कर लाए| श्रद्धालु सिक्ख दौड़ कर गया| उसने दोनों भाइयों सत्ता और बलवंड को जाकर कहा, ‘श्रीमान जी! सच्चे पातशाह आपको याद कर रहे हैं, आप चलकर कीर्तन करो|’

यह सुनकर सत्ते के तनबदन में आग लग गई और पागलों की तरह गुस्से से बोला, ‘हमने कोई कीर्तन नहीं करने जाना| यदि हमने चढ़ावे के लिए कहा तो मसंदों द्वारा चढ़ावा रोक दिया गया| हमारे साथभेदभाव किया गया है| इसलिए आज से हम गुरु घर में कीर्तन नहीं करेंगे|

किसी और सोढी या बेदी के आगे कीर्तन करके उसको गुरु बना सकते हैं| गुरु बनाना या न बनाना हमारे वश में है|  यह उत्तर सुनकर सिक्ख वापिस लौट आया और उसने सारी बात सतिगुरु महाराज जी के आगे व्यक्त कर दी|

दया एवं विनय के सागर सच्चे पातशाह नाराज न हुए अपितु भाई गुरदास जी को यह कह कर भेजा कि वह रागियों को सत्कार सहित दरबार में ले आएं| उनकी कन्या का विवाह उसी तरह धूमधाम से हो जाएगा, जैसा वह चाहते हैं|

भाई गुरदास जी सत्ता और बलवंड के घर पहुंचे| उन्होंने बड़ी नम्रता से दोनों को समझाने का प्रयास किया लेकिन रबाबियों का गुस्सा शांत न हुआ| भाई बलवंड ने बड़े गुस्से और मूर्खता के साथ यह जवाब दिया, ‘जाओ आप कीर्तन कर लो| गुरु यदि इतनी शक्ति रखते हैं तो वह आप ही कीर्तन करें| हम आगे से गुरु दरबार में कीर्तन नहीं करेंगे|’ भाई गुरदास जी ने फिर भी इसका गुस्सा न किया अपितु सत्ता और बलवंड को समझा कर उनके मन को शांत करने का अथक प्रयास किया लेकिन वे टस से मस न हुए| दोनों भाई हठ करके बैठे रहे मगर गुरु दरबार में उपस्थित न हुए|

पांचवें पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज स्वयं सिंघासन से उठकर रबाबियों के घर पहुंचे| संगत भी गुरु जी के साथ जाना चाहती थी लेकिन सतिगुरु जी ने भाई गुरदास जी के अलावा किसी अन्य को साथ न लिया| दीन दुनिया के वाली सत्ता और बलवंड के घर पधारे तो सबब से दरवाजा खुला हुआ था| गुरु साहिब आंगन में चले गए| आगे दोनों भाई चारपाई पर बैठे थे| उन्होंने इतना जिद्दीपन अपनाया कि न उठकर श्री सतिगुरु अर्जुन देव जी को नमस्कार की और न ही उनका स्वागत किया| अपितु आंखें झुकाकर बैठे रहे| सतिगुरु जी ने नम्रता से वचन किया| अपितु आंखें झुकाकर बैठे रहे| सतिगुरु जी ने नम्रता से वचन किया, ‘चलो, भाई! गुरु घर में कीर्तन करो और सतिगुरु नानक देव जी की खुशियां प्राप्त करो| गुरु घर के साथ नाराज तोना ठीक नहीं, गुरुबाणी संगत को सुनानी है| आपकी कन्या की शादी के लिए आपको पर्याप्त धन मिल जाएगा|’

राय बलवंड बड़ा गुस्सैल स्वभाव वाला साबित हुआ| उसने आगे से बड़े अहंकार के साथ कहा, ‘हमने नहीं कीर्तन करने जाना| हमने आपको गुरु बनाने का प्रयास किया लेकिन आपने हमारे साथ छल करके भेंटें न चढ़ने दीं, जिससे दिल चाहे कीर्तन करवा लें| हम किसी अन्य सोढी के पास चले जाएंगे| श्री गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु रामदास जी तक हम ही गुरु बनाते आए हैं, यदि हम कीर्तन न करते तो आपको किसने गुरु मानना था?’

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने जब ऐसे कटु वचन सुने तो बड़े सतिगुरुों की निंदा सुनी, तब वह सहन न कर सके और क्रोध में आकर वचन किया – ‘सत्ता और बलवंड आप कुष्ठी हो गए हो, यह कुष्ठ आपको तंग करेगा|’ यह वचन करके गुरु जी अपने दरबार में आ गए|

दरबार में आकर गुरु जी ने अपनी आत्मिक शक्ति का एक महान चमत्कार दिखाया| वह चमत्कार इस प्रकार था कि उन्होंने दरबार में हुक्म कर दिया कि आज से गुरु घर के सिक्ख आप कीर्तन किया करेंगे| साज बजाएंगे और ऐसे अहंकारी गायकों की कभी आवश्यकता नहीं रहेगी| यह वचन करके सतिगुरु जी ने दो सिक्खों को इशारा किया कि वह साज पकड़कर कीर्तन करें| सिक्खों ने साज लेकर राग गाया| ऐसा चमत्कार हुआ कि गंधर्व रागियों की तरह कीर्तन का रस बंध गया तथा सचमुच ही रबाबियों की आवश्यकता न रही|

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