मां बूढ़ी थी| मुंह में एक भी दांत नहीं था| वह कुछ भी चबा नही पाती थी| इसलिए वह रोज सिवइयां बनाती और ज्यों ही उसे प्लेट में ठंडा करने रखती, पेड़ पर से कूद कर बंदरिया आ पहुंचती| मां लट्ठ उठाती, बंदरिया आंखें सुर्ख करके दांत पीसती| बुढ़िया डर जाती| बंदरिया सारी सिवइयां खा जाती|
बेचारी बुढ़िया रोज भूखी रहती| कभी सूखा आटा फांक कर पानी पी लेती, कभी सिर्फ पानी पी कर गुजारा कर लेती| नतीजा यह निकला कि वह दिन-ब-दिन दुबली होती गई| आंखें गड्ढे में धंस गई| चेहरा उतर गया| सूख कर वह सलाई-सी हो गई|
जैसे-तैसे एक साल बीता और बेटा लौट आया| उसने बुढ़िया की खस्ता हालत देखी तो हैरान रह गया| बोला, ‘मां, तुम इतनी दुबली कैसे हो गई? कौन-सा रोग लगा है तुम्हें?’ बुढ़िया ने विस्तार से सारा किस्सा सुनाया| बेटे ने कहा, ‘उस बंदरिया को मैं कल देख लूंगा|’
दूसरे रोज मां ने रसोई बनाई| घी चुपड़ कर नरम-नरम फुलके एक प्लेट में रखे और दूसरी प्लेट में गरम-गरम सिवइयां| बैठने के लिए थी पत्थर की चौकी, जो आग में तप कर सुनहरी हो गई थी| अब लड़के ने खुद चल कर आवाज दी :
आओ बंदरिया खाओ सिवइयां गरम-गरम
आओ बंदरिया आसन बिछा है नरम नरम
बंदरिया तो तुरंत पेड़ पर से कूद कर नीचे आई और जैसे ही चौकी पर बैठी कि बुरी तरह जल गई| वह चीखती-चिल्लाती हुई वहां से ऐसी भागी कि कभी पलट कर उस घर की ओर नहीं देखा|