परिचय से मिलता है साहस

मित्रता

खेत के किनारे एक पेड़ था| खूब हरा-भरा| मोटी-मोटी शाखाएं| शाखाओं पर बहुत सारी टहनियां! टहनियों पर झूमते असंख्य पत्ते जब हवा के मंद झोंकों से आपस में टकरा-टकरा कर हिलते, तो हल्का-सा मधुर शोर वातावरण में भर जाता| लगता, मां की अंगुली पकड़े बच्चे हों जो एक-दूसरे की हथेली पर थपकी दे तालियां बजा-बजाकर अपने उल्लास को प्रकट कर रहे हों| उसी पेड़ के नीचे कुछ ढेले पड़े थे-मिट्टी के ढेले, यानी धरती के टुकड़े| ढेले पत्तों की ओर एकटक ताकते रहते|

“तुम हमारी तरफ क्या देखते रहते हो?” एक दिन एक पत्ते ने ढेले से पूछा|

“कुछ भी तो नहीं| बस यूं ही!” ढेले ने कहा|

“यूं ही तो नहीं, कुछ तो बात है, बराबर देखते ही रहते हो!” पत्ते ने कहा|

“तुम्हें देखता हूं, तुम्हारे सुखी जीवन को देखता हूं| तुम आपस में कितने हिलमिल कर रहते हो|” ढेले ने कहा|

“तुम्हें हमारा हंसना अच्छा लगता है?” पत्ते ने पूछा|

“खूब अच्छा लगता है| सोचता हूं, तुम हमेशा ऐसे ही हंसते रहो|” ढेले ने कहा|

“पर तुम उदास-से क्यों लगते हो?” पत्ते ने पूछा|

“हमारी सूरत ही ऐसी है| हम धरती के बेटे हैं न|” ढेले ने कहा|

“तुम कितने अच्छे हो| कितने लोग ऐसे हैं| जो दूसरे को देखकर खुश होते हैं| आज तो लोग अपनों को भी खुश नहीं देख पाते|” पत्ता थोड़ा-सा रुका और फिर बोला, “आओ, हम-तुम मित्र बन जाएं|”

ढेले ने पत्ते का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया| दोनों प्रसन्न हो गए| अब दोनों मित्र बन गए थे|

समय बीतता गया|

जेठ के पीछे-पीछे आषाढ़ आ गया था| आंधी और पानी के दिन थे| एक दिन सहसा जोरदर आंधी आई| चारों ओर अंधड़ ही अंधड़! पेड़ के पत्तों में हलचल मच गई| वे कांपने लगे| देखते-देखते तक पत्ता डाली से टूटकर अलग हो गया| वह कांप उठा| आंधी के थपेड़े उसे झकझोर रहे थे| ढेला सब कुछ देख रहा था| वह चिल्लाया, “मित्र! मेरे पास आ जाओ|”

पत्ता हड़बड़ाता हुआ ढेले के पास आ गिरा| ढेले ने बाहें फैला दीं और उसे अपने सीने से चिपका लिया| पत्ते को अपनापन मिला| उसने अपने को ढेले की शरण में पाकर सुरक्षित अनुभव किया|

“आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है|” पत्ते ने ढेले से कहा|

“आज मेरी मित्रता सार्थक हो रही है|” ढेले ने पत्ते को अपने हृदय से कसकर चिपकाते हुए कहा|

सहसा आकाश में बादल छा गए| आंधी के बाद पानी| आकश में घनघोर गर्जन होने लगा| लगता था, बादल क्रोध में भरे हैं|

“अब क्या होगा?” पत्ते ने डरते हुए कहा|

“मेरे रहते कोई भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकता|” ढेले ने पत्ते को सांत्वना देते हुए कहा|

पत्ता सहमी आंखों से आकाश में छाए काले बादलों को देख रहा था| ढेले के अपनत्व में दृढ़ता थी|

एकाएक बिजली कड़क उठी| उसके प्रकाश में पत्ते ने देखा कि सारा वन कांप रहा है| डरा हुआ पत्ता ढेले से चिपटा जा रहा था|

थोड़े-से छींटे और गरज के बाद मूसलाधार वर्षा होने लगी| ढेला बूंदों का प्रहार अपने ऊपर सहने लगा और तब तक पत्ते को अपने अंक में समेटे रहा जब तक गल कर वह बह नहीं गया|

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