“तुम हमारी तरफ क्या देखते रहते हो?” एक दिन एक पत्ते ने ढेले से पूछा|
“कुछ भी तो नहीं| बस यूं ही!” ढेले ने कहा|
“यूं ही तो नहीं, कुछ तो बात है, बराबर देखते ही रहते हो!” पत्ते ने कहा|
“तुम्हें देखता हूं, तुम्हारे सुखी जीवन को देखता हूं| तुम आपस में कितने हिलमिल कर रहते हो|” ढेले ने कहा|
“तुम्हें हमारा हंसना अच्छा लगता है?” पत्ते ने पूछा|
“खूब अच्छा लगता है| सोचता हूं, तुम हमेशा ऐसे ही हंसते रहो|” ढेले ने कहा|
“पर तुम उदास-से क्यों लगते हो?” पत्ते ने पूछा|
“हमारी सूरत ही ऐसी है| हम धरती के बेटे हैं न|” ढेले ने कहा|
“तुम कितने अच्छे हो| कितने लोग ऐसे हैं| जो दूसरे को देखकर खुश होते हैं| आज तो लोग अपनों को भी खुश नहीं देख पाते|” पत्ता थोड़ा-सा रुका और फिर बोला, “आओ, हम-तुम मित्र बन जाएं|”
ढेले ने पत्ते का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया| दोनों प्रसन्न हो गए| अब दोनों मित्र बन गए थे|
समय बीतता गया|
जेठ के पीछे-पीछे आषाढ़ आ गया था| आंधी और पानी के दिन थे| एक दिन सहसा जोरदर आंधी आई| चारों ओर अंधड़ ही अंधड़! पेड़ के पत्तों में हलचल मच गई| वे कांपने लगे| देखते-देखते तक पत्ता डाली से टूटकर अलग हो गया| वह कांप उठा| आंधी के थपेड़े उसे झकझोर रहे थे| ढेला सब कुछ देख रहा था| वह चिल्लाया, “मित्र! मेरे पास आ जाओ|”
पत्ता हड़बड़ाता हुआ ढेले के पास आ गिरा| ढेले ने बाहें फैला दीं और उसे अपने सीने से चिपका लिया| पत्ते को अपनापन मिला| उसने अपने को ढेले की शरण में पाकर सुरक्षित अनुभव किया|
“आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है|” पत्ते ने ढेले से कहा|
“आज मेरी मित्रता सार्थक हो रही है|” ढेले ने पत्ते को अपने हृदय से कसकर चिपकाते हुए कहा|
सहसा आकाश में बादल छा गए| आंधी के बाद पानी| आकश में घनघोर गर्जन होने लगा| लगता था, बादल क्रोध में भरे हैं|
“अब क्या होगा?” पत्ते ने डरते हुए कहा|
“मेरे रहते कोई भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकता|” ढेले ने पत्ते को सांत्वना देते हुए कहा|
पत्ता सहमी आंखों से आकाश में छाए काले बादलों को देख रहा था| ढेले के अपनत्व में दृढ़ता थी|
एकाएक बिजली कड़क उठी| उसके प्रकाश में पत्ते ने देखा कि सारा वन कांप रहा है| डरा हुआ पत्ता ढेले से चिपटा जा रहा था|
थोड़े-से छींटे और गरज के बाद मूसलाधार वर्षा होने लगी| ढेला बूंदों का प्रहार अपने ऊपर सहने लगा और तब तक पत्ते को अपने अंक में समेटे रहा जब तक गल कर वह बह नहीं गया|