परिचय से मिलता है साहस

नकल बिन अकल

एक पुरोहित था| उसके पड़ोस में एक नाई रहता था| नाई को एक विचित्र आदत थी| जो पुरोहित करे, वह भी करता था| पुरोहित स्नान करे, पूजा-पाठ करे, संध्या करे और माला फेरे, तो वह भी वैसा ही करे| पुरोहित तिलक लगाए, तो वह भी तिलक लगाए| वास्तव में वह पुरोहित की नकल कर उसे चिढ़ाने के लिए ऐसा करता था|

पुरोहित ने सोचा, इस नकलची नाई को सबक सिखाना चाहिए| यों ही सोचते-सोचते दीवाली आई| त्यौहार के इन दिनों में भी पुरोहित जो कुछ जिस तरह करता, नाई भी वही सब उसी तरह करने लगा| पुरोहित को लगा, यही मौका है कोई तरकीब आजमाने का| वह अपनी घर वाली को अकेले में बुला कर उसके कां में फुसफुसाया, ‘नाई रोजाना मेरी खिंचाई करता है| इसलिए उसकी अकाल दुरुस्त करने के लिए मैंने एक उपाय सोचा है| शाम के वक्त में तुमसे कहूंगा कि आज रात में हम अपनी-अपनी नाक काट लेंगे और कल नई नाक के साथ दीवाली मनाएंगे| तुम कहना वाह! कमाल! बहुत मजा आएगा|’

ब्यालू करने के बाद रात में पुरोहित ने बिस्तर पर लेटे-लेटे ही घरवाली से कहा, ‘सुनती हो कचौड़ी की मां, कल दीवाली है और हम सबको नई नाक के साथ दीवाली मनानी है| आज रात बारह बजे तुम सबकी नाक काट दी जाएगी और कल सवेरे सबको बिल्कुल नई और बढ़िया नाक मिल जाएगी| तुम सब तैयार हो न? नई नाक के साथ दीवाली मनाने का मजा कुछ और ही होता है|’ पुरोहित दिखावा तो ऐसा कर रहा था, मानो वह घरवाली से कानाफूसी कर रहा हो, लेकिन वह इतनी ऊंची आवाज में बोल रहा था कि पड़ोस में नाई भी सुन सके|

नाई तो पैदाइशी नकलची था ही| इसलिए उसने मन ही मन सोचा चिंता की कोई बात नहीं| मैंने सब कुछ सुन लिया है| यदि पुरोहित नई नाक से दीवाली मना सकता है तो हम क्यों न मनाएं? पुरोहित को तो किसी से उस्तरा मांग कर लाना पड़ेगा, लेकिन मेरे पास तो पुश्तैनी उस्तरा है| पुरोहित के मुकाबले मैं काफी सफाई से नाक काट सकूंगा| इसलिए पुरोहित के परिवार में जो नई नाकें आएंगी, उससे हमारे घर में कहीं ज्यादा बढ़िया और सुदंर नाकें आएंगी|

सब सो गए| आधी रात होने पर पुरोहित जागा और खटिया पर लेटे-लेटे ही उसने झूठ-मूठ घरवाली से कहा, ‘सुनो, तुम यहां आ जाओ| मुझे तुम्हारी नाक काटनी है|’ घरवाली भी लेटे-लेटे ही बोली, ‘लो, मैं आ गई| अब देर किस बात की| झटपट नाक काट दो|’ फिर मानो कट चुकी है, ऐसे तुरंत ही वह जोर-जोर से रोने-चीखने लगी| पुरोहित ने लेटे-लेटे ही कहा, ‘रोओ मत| मैं अभी मरहम लगा देता हूं| सवेरे बढ़िया नाई नाक आ जाएगी|’

घरवाली झूठ-मूठ बिसूरती हुई-सी सो गई| बाद में पुरोहित ने अपने बच्चों की नाक काटने का ऐसा ही दिखावा किया| थोड़ी देर बाद सब बच्चे ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं करते हुए सो गए|

अब नाई नाक काटने के लिए तैयार हुआ| उसने सोचा, पुरोहित ने सबकी नाक काट ली| अब मुझे भी काट लेनी चाहिए| फिर उसने अपनी पेटी में से पुश्तैनी उस्तरा निकाला और दबे पांव अपनी घरवाली की खाट के पास जा कर बड़ी सफाई से उसकी नाक उड़ा दी| नाईन चौंक कर उठ बैठी और मारे दर्द के रोने-चीखने लगी| नाई ने कहा, ‘रोओ मत| मैं अभी पट्टी बांध देता हूं| सवेरे सुंदर-सुंदर नई नाक आ जाएगी| पुरोहित ने अभी-अभी सबकी नाक काटी है| वे सब नई नाक के साथ दीवाली मनाने वाले हैं| भला हम कैसे पीछे रह सकते हैं|’

नाईन की नाक से लहू बराबर बह रहा था, लेकिन अब और इलाज ही क्या था? बाद में नाई ने बड़ी सिफत से अपनी भी नाक काट ली| उसे भी दर्द तो काफी हुआ, लेकिन नई नाक के साथ दीवाली मनाने के उत्साह में अपनी नाक पर मरहम पट्टी बांध कर वह भी सो गया|

सुबह उठ कर पुरोहित ने ऊंची आवाज में अपनी घरवाली से पूछा, ‘कहो तो कचौड़ी की मां, सबको नई नाक कैसी आई है?’ उत्तर में घरवाली के साथ बच्चे भी बोल उठे, ‘उत्तम, श्रेष्ठतम!’ पुरोहित ने फिर पूछा, ‘किसी को कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’ सब बोले, ‘तकलीफ कैसी? हम तो घोड़े बेच कर सो गए थे|’

सूरज सिर पर आने लगा| लेकिन नाई और नाईन के नई नाक नहीं आई| उसने यह कह कर अपने मन को समझाया कि हमने देर में नाक काटी थी, इसलिए कुछ देर बाद आएगी, और पड़ोसी के मुकाबले बेहतर आने वाली है, इसलिए कुछ देर तो लगेगी ही| दोपहर हुई, लेकिन नाक नहीं आई सो नहीं आई|

इसी बीच राजा का सिपाही नाई को बुलाने आया| बोला, ‘अरे, अभी तक महल नहीं पहुंचे? महाराज सवेरे से तुम्हारी बाट जोह रहे हैं|’ नाई ने कहा, ‘महाराज से कहना कि उनके नाई ने नई नाक से दीवाली मनाने के लिए अपनी साठ साल पुरानी नाक काट डाली है और नई नाक के इंतजार में वह लेटा है| नई नाक आने पर ही वह आएगा|’ यह सुन कर पुरोहित, उसकी घरवाली और बच्चे ठहाका लगा कर हंसने लगे| नाई समझ गया| नकल बिन अकल का नतीजा यही होता है| उस रोज से वह पड़ोसी की नकल करना भूल गया|

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