काठ का कटोरा - The Lumbar Bowl

काठ का कटोरा

कुछ साल पहले की बात है, दिल्ली की एक कालोनी में एक छोटा लड़का अपने माता-पिता और दादाजी के साथ रहता था| दादा और पोते में गहरा प्रेम था| दोनों कई घंटे एक साथ बिताते थे| पोते का नाम था, अतुल| वह दादाजी की गोद में बैठकर ढेरों कहानियाँ सुनता था| कहानी कैसी भी हो, वह दादाजी के चेहरे को ध्यान से देखता रहता और उनसे उन कहानियों के बारे में घंटों सवाल-ज़वाब करता| अतुल दादाजी का घनिष्ठ मित्र और जीने का सहारा था|

तीन साल पहले अतुल की दादी की मृत्यु हो गई थी| अतुल की मम्मी अपने पति और पुत्र की तो अच्छी तरह देखभाल करती, परन्तु उस बुजुर्ग व्यक्ति के अकेलेपन की पीड़ा को नहीं समझती थी| अगर कभी उनके हाथों से कोई चीज़ छूटकर गिर जाती, तब अतुल की मम्मी कुछ अधिक ही अधीर हो जाती|

यह उम्र का तकाज़ा ही था कि दादाजी के हाथ काँपने लगे थे| एक दिन वे डाइनिंग टेबल पर बैठकर कॉफ़ी पी रहे थे| अधिक ठंड होने के कारण उनके हाथ ज़ोर-ज़ोर से काँपने लगे|

कॉफ़ी का कप हाथ से छूटकर पहले सफेद धुले हुए डाइनिंग कवर पर गिरा और फिर ज़मीन पर गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गया| यह देखकर अतुल की माँ गुस्से से चिल्लाई-“पिताजी! आप कोई काम कभी ढंग से करते हो? सारा दिन सिर्फ़ तोड़-फोड़, कहाँ से लाऊं इतने सारे बर्तन, तोड़ने के लिए?” दादाजी बिना कुछ कहे, आँखों में आँसू भरे चुपचाप देखते रहे| अतुल ये सब देख रहा था| उसने कुछ नहीं कहा| वह खाना बीच में ही छोड़कर उठ गया|

इस घटना के बाद से दादाजी रसोईघर के अन्दर रखी एक पुरानी टेबल पर, अपना खाना खाने लगे| वे वहीं पर अपने बर्तन भी रखते थे| इस नई व्यवस्था से वे बिल्कुल भी खुश नहीं थे| इस बात की उदासी उनकी आँखों से झलकती थी|

शाम होते ही, अतुल जल्दी से अपना खाना खत्म करके दादाजी के पास रसोईघर में, उस पुरानी टेबल पर पहुँच जाता और उनके गले लगकर ढेरों बातें करता|

जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, दादाजी दिन-प्रतिदिन कमजोर होते गए| उनके हाथ और ज़्यादा काँपने लगे| एक रात जब वे रसोईघर में दलिया खा रहे थे कि अचानक उनके हाथ से काँच का बर्तन छूटकर, नीचे गिरकर, टुकड़े-टुकड़े हो गया| आवाज़ सुनकर अतुल और उनके माता-पिता जल्दी से रसोईघर में पहुंचे| दरवाज़े पर पहुँचकर उन्होंने देखा कि फ़र्श पर दलिया और काँच के टुकड़े बिखरे पड़े हैं|

बूढ़े दादाजी असहाय स्थिति में थे| अतुल की माँ गुस्से से अपने पति पर चिल्लाई- “घर के सारे बर्तन तोड़कर रख दिए हैं, तुम्हारे पिताजी ने| मैं तो लाते-लाते थक गई| अब तो इनका एक ही इलाज़ है कि इन्हें एक काठ का कटोरा लाकर दे दिया जाए|”

एक दिन अतुल अपनी माँ के साथ बाज़ार जा रहा था| उसने रास्ते में एक बढ़ई की दूकान देखी| अगले दिन वह वहाँ से लकड़ी की गोलाई वाले कुछ टुकड़े खरीदकर ले आया और उन्हें जोड़कर कटोरा जैसा एक छोटा बर्तन बनाने लगा| उसके माता-पिता कमरे से बाहर आए| उन्होंने अतुल से पूछा, क्या कर रहे हो?”

उसने जवाब दिया, “मैं आपके लिए काठ का कटोरा बना रहा हूँ, ताकि जब आप भी बूढ़े हों, तब इसमें खाना खा सकें|

अतुल के माता-पिता एक दूसरे की शक्ल देखते रह गए| दोनों अतुल से नज़रें मिलाने का सहास भी नहीं कर पा रहे थे| अब अतुल की माँ को अपनी गलती का एहसास हुआ| उसने दादाजी के पैर पकड़कर क्षमा माँगी| दादाजी ने आँसू-भरी आँखों से बहू को देखा और क्षमा कर दिया| दादाजी के दो आँसू पुत्रवधू के सिर पर आशीर्वाद की तरह गिर पड़े| वह दादाजी को आदर सहित अंदर लाई, उन्हें डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर प्यार से बैठाया, और खाने में उनकी मदद करने लगी|

उस दिन के बाद दादाजी ने रसोईघर की उस पुरानी टेबल पर बैठकर, कभी-भी अकेले खाना नहीं खाया| वह हमेशा अतुल के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते|

अतुल यह देखकर बहुत खुश होता था| उसके माता-पिता भी उसके दादाजी की उतनी ही देखभाल करने लगे, जितनी वह करता था| सारा परिवार खुशी के साथ रहने लगा|

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