स्वार्थी दैत्याकार - The Selfish giant

स्वार्थी दैत्याकार – The Selfish giant

एक थी हरी-भरी वादी। फूलों व फलों से लदी पेड़ों वाली वादी। चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी। रंग-बिरंगे पक्षियों का तो घर था वह वादी। वादी से सदा पक्षियों की आवाजे गूंजती रहती थीं। उसी वादी में एक समय एक बहुत बड़ा मकान होता था, जिसे ‘परीलोक’ के नाम से जाना जाता था। उस मकान में एक दैत्याकार व्यक्ति रहता था। सब उसे दैत्याकार ही कहते थे। मकान के साथ ही उसका बहुत बड़ा बाग था। वह जितने बड़े आकार का था, दिल उसका उतना ही छोटा था। किसी को अपने मकान या बाग में नहीं घुसने देता था।

उसने अपने बाग में तरह-तरह के फलों के पेड़ लगा रखे थे। फूलों की क्यारियां थीं। वैसे तो उस हरी वादी में और भी बाग थे जिनमें पेड़-पौधे लगे थे, परंतु दैत्याकर के बाग की बात ही कुछ और थी। गुलाबों की तो उसके बाग में इतनी किस्में थीं कि नाम लेने लगो तो समाप्त ही न हों। रंग भी बड़े प्यारे थे उनके।

एक बार दैत्याकार सात दिनों के लिए बाहर गया।

जब वह लौटा तो उसने पाया कि उसके बाग पर तो बच्चों का कब्जा हो गया है। चारों ओर बच्चे खेल रहे थे और दौड़ लगा रहे थे।

दैत्याकार का पारा चढ़ गया। उसने बच्चों को खदेड़ने के लिए उनका पीछा किया। बच्चे डर कर भागे। गिरते-पड़ते बच निकले। पर एक बच्चा हड़बड़ी में फल के पेड़ पर चढ़ गया। दैत्याकार ने उसे पकड़ लिया और उसकी खूब धुनाई की।

बच्चा रोता हुआ भागा।

उसी दिन उसने अपने बाग के चारों ओर एक ऊंची दीवार चिनवाई। भीतर जाने के लिए केवल एक लोहे का गेट लगवाया।

अब कोई दैत्याकार के बाग में बिना आज्ञा प्रवेश नहीं कर सकता था।

मौसम बीते। बसंत ऋतु आई। वादी हरियाली से पट गई। दूसरों के बागों में पेड फलों से लद गए। क्यारियों में फूलों की बहारें महक उठीं। चारों ओर रंग ही रंग बिखर गए।

पर इस बार दैत्याकार के बाग में पतझड़ ही छाया रहा।

न तो क्यारियों में फूल खिले और न ही पेड़ों पर फल लगे। दैत्याकार बौखला गया। उसे समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ? पेड़-पौधे, जमीन-खाद, पानी, जुताई-गुड़ाई के अतिरिक्त भी कुछ चाहते हैं। वह है, प्यार। यह बात स्वार्थी दैत्याकार की खोपड़ी में नहीं घुसी थी। यह बच्चों का निस्वार्थ प्रेम व लगाव ही था, जो पौधों पर फूल खिलाता था और पेड़ों पर फल लाता था। जब से दैत्याकार ने अपने बाग से बच्चों को अपमानित व प्रताड़ित करके निकाला था, पेड़-पौधे फलना व फूलना भी भूल गए थे। उनका दिल ही टूट गया था।

स्वार्थी दैत्याकार ने पेड़-पौधों को खूब पानी दिया, खूब खाद डाला और खूब गुड़ाई की पर फल कुछ न निकला। उल्टे वे सूखने व मुरझाने लगे।

दैत्याकार बड़बड़ाया -“मौसम आते जाते रहते हैं। फलने-फूलने का क्रम चलता रहता है। फिर मेरे बाग में बसंत ऋतु क्यों नहीं आती?”

उसके पास प्रश्न थे परंतु उत्तर नहीं।

एक सुबह जब वह उठा तो उसने बाग में कुछ बच्चों की किलकारियां सुनीं। वह दौड़ कर बाहर आया। उसने जो देखा, वह अविश्वसीय था।

उसके पेड़ फलों से लद गए थे। क्यारियों में पौधे फूलों से ढंक गए थे। रंग-बिरंगे महकते फूल। उसने दीवार में बने छेद से छोटे-छोटे बच्चों को बाग में घुसते देखा।

दैत्याकार बोला – ‘ओह! तो यह रहस्य है। इन पेड़ों व पौधों को बच्चों का साथ नहीं मिला तो उनके वियोग में ये जोगी बन गए थे। फलना-फूलना त्याग दिया था इन्होंने।’

वह धीरे-धीरे चल कर बाग में आया।

उसके मुख पर मुस्कान की रेखा खिंची थी। जैसे ही बच्चों ने उसे देखा, वे सहम गए और डर कर भागने लगे। उन्हें डर था कि दैत्याकार पकड़कर उन्हें बुरी तरह पीटेगा, परंतु दैत्याकार ने उन्हें भागने से रोका।

उसने घोषणा की – “न न बच्चो! भागो मत। भागो मत मेरे बाग से। यह बाग वास्तव में तुम्हारा है। यहां खूब खेलो। जितनी देर मर्जी खेलो। खूब धमाचौकड़ी मचाओ?”

बच्चों को अपने कानों पर विश्वास न हुआ।

दैत्याकार बोलता गया – “प्यारे बच्चो, मेरी गलतियां माफ करो। मैं तुम्हारे साथ बहुत क्रूरता से पेश आता रहा।” उसकी आंखों में आंसू थे। उसने आगे कहा – “देखो बच्चो, मैं हाथ जोड़कर क्षमा मांग रहा हूं। मुझे क्षमा कर दो।”

इसका बच्चों पर अच्छा प्रभाव पड़ा।

वे उसके निकट आए। दैत्याकार अब स्वार्थी नहीं रह गया था। उसने हर बच्चे को उठाकर गले लगाया, पुचकारा व चूमा। बच्चों को और क्या चाहिए? वे उसके साथ खेलने लगे। दैत्याकार ने उन्हें खाने के लिए फल व मेवे भी दिए।

धीरे-धीरे वह बच्चों में दैत्याकार अंकल के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

दैत्याकार अंकल कहता, “प्यारे बच्चो, अब से यह बाग केवल मेरा ही नहीं होगा। यह संसार के सारे बच्चों को समर्पित है। कोई भी यहां आकर खेल सकता है। तुम जाओ, अपने मित्रों को साथ ले आओ, खूब फल तोड़कर खाओ, पेड़ों पर कूदो-फांदो या रस्सी लगाकर झूला झूलो।” फिर वह नकली गुस्सा लाकर धमकी देता – “बच्चो, अगर तुम मेरे बाग में न आए, तब मैं तुम्हारी पिटाई करूंगा।”

सारे बच्चे हंसते-हंसते लोट-पोट होने लगे।

दैत्याकार अंकल ने गैंती उठाई और बाग के चारों ओर खड़ी दीवार को तोड़ना आरंभ कर दिया।

दैत्याकार अंकल अब नहीं है। परंतु उसका बाग अब भी मौजूद है। कोई भी किसी भी ऋतु में वहां जा सकता है। देख सकता है कि बाग कैसे फलों से लदा है और कैसे-कैसे फूल खिले हैं, हर ऋतु में।

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