हार की जीत - Victory of Defeat

हार की जीत – Victory of Defeat

बाबा भारती गाँव के बाहर एक छोटे से मन्दिर में रहते थे| मन्दिर और रोजमर्रा के कार्यों के बाद जो समय बचता, उसे अपने सुन्दर और प्यारे घोड़े सुल्तान के साथ बिताते| अपने हाथों से उसे दाना खिलाते, शाम को उस पर चढ़कर घूमने जाते| उन्होंने अपनी ज़मीन-जायदाद, रुपए-पैसे सब त्याग दिए थे| बस, उन्हें दो चीज़ों सेस लगाव था – एक भगवान की पूजा, और दूसरा सुल्तान सुल्तान तो मानो उनकी जान ही था| सुल्तान की चाल बहुत सुन्दर थी| लोग-दूर-दूर से उसे देखने आते थे|

उसी इलाके में खडगसिंह नाम का एक डाकू रहता था| लोग उसके नाम से थर-थर काँपते थे| जब सुल्तान की सुन्दरता और उसकी चाल के बारे में खडगसिंह ने सुना, तो वह उसे देखने के लिए अधीर हो उठा| एक दिन वह बाबा भारती के पास गया और उन्हें प्रणाम कर बोला “बाबा जी! मैंने सुल्तान की बहुत प्रशंसा सुनी है| कहते हैं वह बहुत ही सुन्दर है और उसकी चाल तो सबका मन ही मोह लेती है|” बाबा भारती अपने घोड़े की प्रशंसा सुनकर फूले न समाए और प्रसन्नतापूर्वक बोले, “हाँ खडगसिंह तुमने बिलकुल सच सुना है| सुल्तान जैसा घोड़ा शायद ही कहीं और मिलेगा|”

“बाबा जी! क्या मैं आपके घोड़े को देख सकता हूँ|” खडगसिंह ने नम्रतापूर्वक पूछा|

“क्यों नहीं?” बाबा जी ने प्रसन्न होकर कहा|

बाबा भारती खडगसिंह को अपने अस्तबल में ले गए और बहुत गर्व से उन्होंने सुल्तान दिखाया| खडगसिंह उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गया| इतना सुन्दर, इतने डीलडौल वाला घोड़ा उसने पहले कहीं न देखा था| वह सोचने लगा, बाबा भारती ठहरे एक साधु, भला उन्हें घोड़ा किसलिए चाहिए? वह बाबा से बोला, “बाबा जी! इसकी चाल की भी इतनी प्रशंसा सुनी है, वह भी तो दिखाइए|”

खडगसिंह की बातें सुनकर बाबा की प्रसन्नता और गर्व का कोई ठिकाना ही नहीं रहा| जब खडगसिंह ने सुल्तान की चाल देखी, तो वह सोचने लगा कि ऐसा घोड़ा तो मुझ जैसे डाकू के पास होना चाहिए| उसका मन सुल्तान को अपना बनाने के लिए अधीर हो उठा| जाते-जाते उसने कहा – “बाबा जी! यह घोड़ा मैं आपके पास नहीं रहने दूँगा|”

बाबा भारती की तो रातों की नींद और दिन का चैन ही उड़ गया| उन्हें दिन-रात इसी बात का भय लगा रहता कि कहीं खडगसिंह सुल्तान को न ले जाए| कई मास बीत गए परन्तु वह न आया| धीरे-धीरे बाबा भारती का भय जाता रहा और वे केवल एक स्वप्न समझकर उस घटना को भूल गए|

एक दिन संध्या के समय बाबा भारती सुल्तान पर सवार होकर घूमने जा रहे थे कि अचानक एक ओर से आवाज़ आई –

“बाबा मेरी सहायता करो, मैं बहुत कठिनाई में हूँ|”

बाबा ने मुड़कर देखा तो एक अपाहिज वृक्ष की छाया में बैठा, पीड़ा से तड़प रहा था| अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा! मैं बहुत दुखी हूँ| मुझे यहाँ से तीन मील दूर एक वैद्य के पास जाना है| मुझे अपने घोड़े पर बैठा लीजिए, भगवान आपका भला करेंगे|”

बाबा भारती तो साधु थे, उन्हें दया आ गई| उस अपाहिज को घोड़े पर बैठा दिया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे| अचानक एक झटके के साथ लगाम उनके हाथ से छुट गई और घोड़ा तेज़ी से दौड़ पड़ा| बाबा जी हैरान रह गए|

उनके आश्चर्य की सीमा न रही, जब उन्होंने देखा कि वह अपाहिज और कोई नहीं खडगसिंह है जो घोड़े के तेज़ गति से दौड़ाए जा रहा है| बाबा भारती पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “खडगसिंह एक पल के लिए रुको! खडगसिंह ने घोड़ा रोक दिया, परन्तु बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में बोला, “बाबाजी! यह घोड़ा आपको कभी नहीं दूँगा|” बाबा भारती ने कहा, “ठीक है, तुम यह घोड़ा मुझे मत देना, परन्तु मेरी एक बात सुन लो|” खडगसिंह ने कहा, “बाबाजी घोड़ा तो बिल्कुल नहीं दूँगा, अब जल्दी बोलिए, आपको और क्या कहना है?” बाबा भारती निराश होकर बोले, “मेरी तो बस यही एक प्रार्थना है कि तुम घटना के बारे में किसी को कुछ न कहना| अब यह घोड़ा तुम्हारा है, तुम जा सकते हो|”

खडगसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया| बाबाजी ने ऐसा क्यों कहा? उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था| हारकर उसने बाबाजी से पूछा, “बाबाजी! आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? मैं किसी को इस घटना के बारे में क्यों नहीं बताऊँ?” बाबाजी ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना के बारे में पता चल गया तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास नहीं करेंगे|” इतना कहकर वह वापिस अपने मंदिर की ओर चल दिए|

खडगसिंह के कानों में बाबाजी के शब्द गूँजते रहे कि लोगों का दीन-दुखियों पर से विश्वास उठ जाएगा| जिस घोड़े के बिना बाबा भारती रह नहीं सकते थे, आज उसके बारे में न सोचकर वे दीन-दुखियों के बारे में सोच रहे थे| उन्हें यही चिन्ता थी कि लोगों का गरीबों पर विश्वास न टूटे| यह बाबा तो वास्तव में देवता है| खडगसिंह का मन बाबा के प्रति श्रद्धा से भर गया| रात्रि के अंधकार में खडगसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा| वह धीरे-धीरे सुल्तान की लगाम पकड़कर अस्तबल की ओर गया| सुल्तान को उसके स्थान पर बाँध दिया, और चुपचाप बाहर आ गया| उसकी आँखें नाम थीं|

भोरे होते ही बाबा भारती अपनी कुटिया से बाहर निकले, स्नान क्या और अस्तबल की ओर चल पड़े, जैसे प्रतिदिन जाते थे| परन्तु यह सोचकर तुरन्त वापस लौट पड़े, “सुल्तान तो है ही नहीं, वहाँ क्यों जाना?” जैसे ही उनके कदम वापस मुड़े अस्तबल से घोड़े की हिनहिनाने की आवाज़ सुनाई दी| बाबा अन्दर गए, और सुल्तान को देखकर हैरान रह गए| प्रसन्नता से घोड़े के गले लिपटकर रोने लगे, जैसे कोई पिता बहुत दिनों से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो| बार-बार उसे प्यार करते, पुचकारते और फिर संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह नहीं मोड़ेगा|

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *