महात्मा गांधी के पश्चात् सामान्य जनता की सुध लेने और उनके दुःख-दर्द बांटने के लिए यदि किसी महापुरुष ने सफल आन्दोलन चलाया तो सबसे पहले आचार्य विनोबा भावे का नाम आता है।
वस्तुतः विनोबाजी ही गांधीजी के सही उत्तराधिकारी थे। वे गांधीजी के सपनों का भारत बनाना चाहते थे जिसमें ग्रामोदय, सर्वोदय हो। गांधीजी चाहते थे कि भारत में रामराज्य आए-ऐसा रामराज्य जिसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में किया है
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छत हीना।।
बैर न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।।
आचार्य विनोबा भावे ने यही संकल्प लिया था कि वे पूरे भारत का भ्रमण करेंगे, नगर-नगर, ग्राम-ग्राम जाएंगे तथा दान में भू-दान लेंगे। ताकि, जमीन का वितरण उन लोगों में किया जा सके जिनके पास जमीन का अभाव है और बड़ी मुश्किल से अपना जीवनयापन कर पाते हैं। अपने संकल्प की पूर्ति के लिए महाराष्ट्र में जन्मा यह दुबला-पतला सन्त लोकमंगल की कामना से सारे भारत में घूमा। गरीबों को सिर ढकने के लिए आवास की व्यवस्था कराई। गांधीजी द्वारा शुरू किया गया चरखा यज्ञ फिर शुरू हुआ तथा चरखे में कुछ ऐसे आवश्यक सुधार किए गए ताकि ग्रामीण और जरूरतमन्द भाई-बहन चरखे के द्वारा अपनी आजीविका कमा सकें।
यही कारण है कि भूदान आन्दोलन के अलावा, सर्वोदय, श्रम, अन्त्योदय कार्यक्रमों के द्वारा भारत की शोषित, पीड़ित जनता में स्वाभिमान का भाव जगाकर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का जो ऐतिहाससिक काम विनोबाजी ने आरंभ किया था वह उससे पहले एक कल्पनामात्र था। विनोबाजी की पदयात्राएं सामाजिक एवं सांस्कृतिक होने के साथ-साथ, उस फासले को भी कम करने वाली थीं जो सरकारी आर्थिक योजनाओं के लाभों को ग्रामीण जनता तक नहीं पहुंचा पा रही थीं।
विनोबाजी अपने संकल्प के धनी थे। वे इस बात के लिए सतत क्रियाशील रहे कि समाज में संघर्ष को टाला जाए। जो साधन-सम्पन हैं वे साधनहीनों को अपनी सम्पत्ति का समुचित हिस्सा स्वेच्छा से ऐसे लोगों में बांट दें जो उसे मानवीय आधार पर प्राप्त करने के हकदार हैं।
विनोबाजी ने समग्र देश में भूदान, अन्त्योदय, सर्वोदय आदि आन्दोलनों को कामयाब बनाने के लिए करीब 40 हजार मील की पदयात्राएं की थीं। उनकी ये यात्राएं विश्व की सबसे लम्बी पदयात्राएं मानी जाती हैं। उनकी पदयात्राओं तथा सेवा-कार्य को देखकर सन् 1955 में उन्हें मेगसेस पुरस्कार से अलंकृत किया गया था।
अंग्रेजी शासन में विद्यमान जमींदारी प्रथा ने देश में भूमिहीनों तथा श्रमिकों की संख्या में वृद्धि कर दी थी जिसकी वजह से ग्रामीण व्यवस्था में असमानता आ गई थी। भू-स्वामी कम थे तथा भूमिहीनों की संख्या अधिक थी। इस असमानता को मिटाने के लिए विनोबाजी ने भूदान का रास्ता अपनाया।
पवनार आश्रम का यह भूदान आन्दोलन का अग्रदूत गऊमाता का भी अनन्य भक्त था। वे चाहते थे कि भारत से गोवध का कलंक जितनी जल्दी मिट जाए उतना ही अच्छा है। महाराष्ट्र में 1895 में जन्मा यह महापुरुष अपनी अटूट लोकसेवा करते हुए सन् 1982 में परलोकवासी हुआ। विनोबाजी अपनी अटूट दरिद्रनारायण सेवा, राष्ट्रभक्ति तथा भूदान आन्दोलन के जनक के रूप में सदा स्मरणीय रहेंगे।