राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप चाहे लोकतंत्रात्मक हो अथवा तानाशाही, पूँजीवादी हो अथवा समाजवादी अथवा मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला, सरकार की नीतियों को कार्य रूप देने का कार्य नौकरशाही द्वारा ही किया जाता है। नौकरशाही व्यक्तियों (सरकारी कर्मचारियों) का ऐसा व्यवस्थित संगठन है जिसके द्वारा सम्प्रभु के आदेशों और इच्छाओं को क्रियान्वित किया जाता है. लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली के अन्तर्गत विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों और व्यवस्थाओं के संदर्भ में कार्यपालिका द्वारा लिए गए निर्णयों और नीतियों का कार्यान्वयन विधि द्वारा गठित नागरिक सेवाओं के सदस्यों, जिन्हें नौकरशाह कहते हैं, द्वारा किया जाता है. राजनीतिक नेतृत्व में आए दिन बदलाव, कल्याणकारी राज्य की स्थापना की दिशा में किए जा रहे प्रयत्न आदि के परिणामस्वरूप सरकार के कार्यों में अप्रत्याशित रूप से बहुत अधिक वृद्धि हो गई है. भारत जैसे विकासशील तथा पिछड़े देशों, जहाँ की लगभग आधी जनसंख्या लिखना-पढ़ना भी नहीं जानती, में राजनीतिक नेतृत्व एवं विधायिका का स्वरूप प्रशासन की बारीकियों एवं जटिलताओं से अनभिज्ञ रहता है. इन समस्त कारणों से विश्व के सभी देशों में नौकरशाही सरकार का सर्वाधिक शक्तिशाली अंग बन गई है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने ब्रिटिश शासन की जिन अनेक व्यवस्थाओं और संस्थाओं को ज्यों का त्यों अंगीकार कर लिया था उनमें से कदाचित नौकरशाही ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं जीवन्त अंग थी. भारत में नौकरशाही की प्रकृति और कार्य पद्धति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया. परिणामस्वरूप ब्रिटिशकालीन नौकरशाही का विकृत व विस्तृत स्वरूप ही हमें देखने को मिला है. भारत में नौकरशाही की आलोचना प्रायः इस आधार पर की जाती है कि इसमें लोकतंत्र और लोककल्याणकारी राज्य के प्रति कोई सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं है. उनमें उन सिद्धान्तों के प्रति न तो आस्था है, न विश्वास है और न कार्य करने की इच्छा है. विधायिका और राजनीतिक कार्यपालिका व्यावहारिक रूप से नौकरशाही के चुंगल में फंसकर रह गई है. समाजवादी समाज की स्थापना के उद्देश्य को लेकर स्थापित किए गए सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबन्ध-तंत्र पर काबिज होकर भारत के नौकरशाह राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही प्रकार की वास्तविक शक्तियों का केन्द्र बिन्दु बन गए हैं।
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में नौकरशाही नीतियों के निर्धारण एवं क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. विगत 50 वर्षों में भारत में लोकतंत्र का जो स्वरूप विकसित हुआ है उसमें बहुमत के आधार पर कोई भी व्यक्ति विधायिका की सदस्यता पा जाता है।
और यदि उसे जोड़-तोड़ की राजनीति आती है तो वह मंत्रीपद भी प्राप्त कर लेता है. ऐसे लोगों से यह अपेक्षा करना रेगिस्तान में पानी ढूँढ़ना होगा कि वे लोकवित्त, मौद्रिकनीति, विदेश व्यापार, बैंकिंग, पूँजी बाजार, औद्योगिक नीति और सामान्य प्रशासन, विधि व्यवस्था, बजट निर्माण और विधायिका में उसका प्रस्तुतीकरण जैसे अत्यधिक तकनीकी एवं विशिष्ट विषयों के जानकार होंगे. ऐसी स्थिति में उनके पास नौकरशाहों पर निर्भर रहने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं रहता।
प्रायः यह कहा जाता है कि भारतीय राजनीतिक नेतृत्व में न तो योग्यता है और न राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव. सत्ता की प्राप्ति और स्वहित के लिए उसका प्रयोग ही इस नेतृत्व की विशेषता बन गई है. लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि जनहित के रक्षक समझे जाते हैं, परन्तु जब इन्हीं जनप्रतिनिधियों ने अपने तथा अपने समर्थकों के निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु नौकरशाही से उचित-अनुचित कार्य करवाने का क्रम प्रारम्भ कर दिया तो नौकरशाही धीरेधीरे परोक्ष रूप से इन पर हावी तथा भ्रष्ट होती गई. आज राजनीतिज्ञों तथा नौकरशाहों को भ्रष्टाचार का केन्द्र बिन्दु तथा अभिन्न अंग माना जाता है. सर्वाधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि भारत के राजनीतिज्ञ तथा नौकरशाह खुले तौर पर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाते हैं, परन्तु कानून की जटिलताओं और खामियों के सहारे वे साफ बच जाते हैं. भारत के महालेखा नियंत्रक तथा केन्द्रीय जाँच ब्यूरो प्रतिवर्ष कितने ही नौकरशाहों के विरुद्ध पद एवं सार्वजनिक धन के दुरुपयोग के मामले प्रकाश में लाते हैं, परन्तु उनमें से ऐसे मामले अँगुलियों पर गिनने लायक होते हैं जिनमें दोषी अधिकारी-कर्मचारियों को दण्डित किया गया हो. ऐसी परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठने लगता है कि नौकरशाही के संगठन और स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन करके उसे भारत की राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक दशाओं के अनुरूप ढाला जाए।
नौकरशाही में सुधार के लिए कुछ प्राथमिकताएं निर्धारित की जानी चाहिए. प्रगति में बाधक पुरानी मान्यताओं और आदतों को नकार दिया जाना चाहिए. आज ऐसी नौकरशाही की आवश्यकता है जो स्वयं को जनता का सेवक समझे, जो सीधे तौर पर जनता के प्रति जवाबदेह हो तथा विधायकों और मंत्रियों के प्रभाव से मुक्त होकर विधि सम्मत ढंग से कार्य करे. नौकरशाही अपेक्षा के अनुसार उद्देश्यों में सफल हो सके इसके लिए यह आवश्यक है। कि वह अपनी ईमानदारी और कार्यकुशलता बनाए रखे. सिविल सेवा से सम्बन्धित कानूनों में निहित प्रावधान हो जो नौकरशाही को भ्रष्टाचार से दूर रख सके. केवल ईमानदार जन सेवक ही विश्वास उत्पन्न करता है और उस जनता का सम्मान प्राप्त करता है जो उसका स्वामी है. अब वे दिन नहीं रहे जब बड़े अधिकारी जनता की उपेक्षा कर सकते थे. आज का जन सेवक अपने ही लोगों से उदय होता है, उनका कल्याण ही वह आदर्श है जिसका उन्हें अनुसरण करना है. उन्हें सच्चे अर्थ का संवेदनशील प्रशासन देना है।