मृत्युदंड - Death Punishment

मृत्युदंड

मृत्युदंड वास्तव में किसी भी सजा के लिए दिया जाने वाला सबसे कठोर दंड होता है। ‘मृत्युदंड’ शब्द सुनते ही दिल-दिमाग में उन शासकों की छवि सामने आती है, जिनकी इच्छा और आदेश ही कानून होता था और जिनके लिए अपने विरोधियों एवं प्रतिद्वन्द्वियों से निपटने का यही सबसे कारगर तरीका था। बाद में पूंजीवादी क्रान्ति और औद्योगिक विकास ने दुनिया में आधुनिक संस्थाओं को जन्म दिया, जिसमें न्यायपालिका, आधुनिक न्याय प्रणाली और दण्ड प्रणाली का विकास हुआ। फिर भी यह देखा गया कि भारत जैसे औपनिवेशिक देशों में पूरी न्याय प्रक्रिया की निष्पक्षता संदेह के घेरे में ही रही और मृत्युदण्ड का प्रयोग भी शासक अपने हित में करता रहा। भारतीय दंड संहिता का आधार न्यूनतम संभव पीड़ा देकर अपराध का उन्मूलन करना तथा दूसरा न्यूनतम संभव समय व धन व्यय कर सत्य व इंसाफ को स्थापित करना है। तत्पश्चात सात बिन्दू निश्चित किए गए, जिनमें मृत्युदण्ड भी अधिकतम सजा के रूप में प्रस्तावित था

  1. भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा। (धारा 14)
  2. राजद्रोह को उकसाना व उसमें शामिल होना। (धारा 132)
  3. ऐसी झूठी गवाही व सबूत देना जिससे किसी बेगुनाह को फांसी हो जाए।
  4. हत्या जिसमें मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास संभव हो। (धारा 302)
  5. किसी नाबालिग, मानसिक रूप से असंतुलित व नशे से प्रभावित व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाना। (धारा 303)
  6. डकैती, जिसमें हत्या भी की गई हो। (धारा 396)
  7. आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे व्यक्ति द्वारा हत्या का प्रयास, जिसमें व्यक्ति घायल हुआ हो। (धारा 307)

दंड निर्धारित करते समय यह सोच विकसित हुई कि दण्ड का स्वरूप ऐसा हो जिससे उस तरह के अपराध की पुनरावृत्ति समाज में न हो। अपराधी को इस प्रकार सजा दी जाए कि वह दूसरों के लिए सबक बन जाए। ज्यादातर अपराधियों में अपराध करने की कोई जन्मजात प्रवृत्ति नहीं होती है और किसी भी व्यक्ति को उचित सामाजिक मनोवैज्ञानिक संबल देकर उसके भीतर बदलाव लाया जा सकता है। यहीं से ‘दण्ड’ का सुधारात्मक पक्ष मजबूत हुआ और यह प्रयास होने लगा कि दंड कष्टकारी न होकर ऐसे हों, जो अपराधियों को स्वस्थ सामाजिक जीवन जीने के लिए पुन: तैयार कर सकें। पहली बार 1956 में लोकसभा में एक विधेयक के माध्यम से मृत्युदंड को समाप्त करने का प्रयास सामने लाया गया, जोकि पारित नहीं हो पाया।

1958 में दोबारा राज्यसभा में एक विधेयक लाया गया, जिसे बहुमत ने पास नहीं होने दिया। इसके बाद पुन: राज्यसभा में एक विधेयक इस संदर्भ में लाया गया। पुनः 1962 में वामपंथी सांसद ज्योतिर्मय बसु ने लोकसभा में मृत्युदंड को दंड संहिता से ही समाप्त करने की बात उठाई जिस पर व्यापक चर्चा हुई।

सरकार द्वारा गठित विधि आयोगों में भी यह विचारणीय मुद्दा बना रहा कि मृत्युदंड को रहने दिया जाए या समाप्त कर दिया जाए। संसद व विधि आयोगों की सारे प्रयासों के परास्त हो जाने के बावजूद मृत्युदंड को समाप्त करने की लड़ाई यहीं नहीं समाप्त हुई और इसे न्यायपालिका के मंच से उठाया गया। ठोस तरीके से पहली बार 1980 में बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के सामने मृत्युदंड की असंवैधानिकता को निम्न आधारों पर चुनौती दी गयी

  1. मृत्युदंड संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है। क्योंकि इस अनुच्छेद के तहत किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार है।
  2. मृत्युदंड से किसी सामाजिक लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता है। अब तक के अध्ययन यही बताते हैं कि इस पाश्विक सजा से समाज में कोई सुधार नहीं लाया जा सका है।
  3. मृत्युदंड, दंड पाए हुए व्यक्ति के निकट संबंधियों को तीव्र मानसिक आघात पहुँचता है, जो उनके सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अधिकार पर चोट है।
  4. फाँसी के फंदे पर लटका कर मृत्युदंड दिए जाने का तरीका बर्बर व अमानवीय है। इसके स्थान पर कोई दूसरा कम कष्टकर व अधिक मानवीय तरीका होना चाहिए।

इसके अलावा इसे इस आधार पर भी चुनौती दी गयी कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) एवं अनुच्छेद 19 का उल्लंघन करता है। अब प्रश्न यह उठता है कि वह अति गंभीर परिस्थितियाँ कौन-सी होगी, जिनमें मृत्युदंड अवश्यम्भावी हो जाये। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ दृष्टांत निम्नलिखित हैं

  1. एक घरेलू नौकर द्वारा अपने मालिक के घर के तीन सदस्यों की हत्या कर सामान लूटना एक अति गंभीर अपराध है। (अमृतलाल बनाम महाराष्ट्र राज्य 1991)
  2. इंदिरा गांधी हत्याकांड में मेहर सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन (1988) को भी अति गंभीर अपराध मानते हुए यह कहा गया कि यह मात्र एक व्यक्ति की हत्या नहीं है। वरन् यह एक संसदीय लोकतंत्र में चुने हुए प्रधानमंत्री की हत्या है।
  3. दहेज के लोभ में किए गए वधु हत्या के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि साधारणत: इसमें आजीवन कारावास की सजा ही उपयुक्त है, किंतु यदि परिस्थितियाँ ज्यादा क्रूर हत्या की ओर इंगित करती है तो मृत्युदंड की सजा देना अनुपयुक्त नहीं
    होगा (लिक्षमा देवी बनाम राजस्थान राज्य 1988)
  4. एक देवी भक्त द्वारा अपने चार वर्ष के पुत्र की बलि चढ़ा देने को न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर ने अति गंभीर एवं निर्मम अपराध मानते हुए इसे मृत्युदंड के लिए बिल्कुल उपयुक्त बताया (पारस राम बनाम पंजाब राज्य 1973)। एक बस को लूटने के इरादे से बस पर पेट्रोल छिड़क कर उसमें आग लगा दी, जिससे 23 यात्री जल कर मर गए और लुटेरे जल रहे यात्रियों को बस से निकलने में बाधा उत्पन्न करते रहे। इससे सर्वोच्च न्यायालय ने तृतीय एडीशनल जज गुंटुर बनाम जी. वी. राव के मामले में अति गंभीर व दुर्लभ अपराध मानते हुए मृत्युदंड निर्धारित किया। (1996)

बलराज बनाम उ.प्र. राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दुर्लभ व अतिगंभीर अपराध की श्रेणी को निम्न प्रकार से सूत्रबद्ध किया।

  1. न्यायालय को हर केस में हत्या के कारण और परिस्थितियों की संतुलित समीक्षा करनी चाहिए।
  2. हत्या किए गए व्यक्तियों की संख्या कभी भी दुर्लभ व निर्मम की श्रेणी का आधार नहीं होती है, वरन् हत्या की परिस्थिति एवं हत्यारे की मानसिक स्थिति ही इसका आधार होनी चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *