भाग्य और पुरुषार्थ - Destiny and Choice

भाग्य और पुरुषार्थ

अदृश्य की ‘लिपि’ भाग्य है और लक्ष्य पूरा करने के लिए अपनी समस्त शक्तियों द्वारा परिश्रम करना ‘पुरूषार्थ’ है। भाग्य शरीर है, पुरुषार्थ शरीर में अन्तर्निहित शक्ति तत्व है, जो भाग्य को प्रत्यक्ष करता है। योग वशिष्ट में कहा गया है, ‘पूर्वकृत पुरुषार्थ के अतिरिक्त भाग्य और कुछ नहीं है।’ (प्राक्स्व धर्मेतराकारं दैवं नाम विधते ।)

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम’, इस सिद्धान्त को मानने वाले भाग्य को बलवान मानकर पुरुषार्थ को निरर्थक मानते हैं। वे कार्य में असफलता मिलने पर भाग्य को ही दोष देते हैं। उनका सिद्धान्त वाक्य है, ‘भाग्यहीन खेती करे, बैल मरे या सूखा पड़े।’

भर्तृहरि कहते हैं, ‘करील वृक्ष में यदि पत्ते नहीं हैं, तो बसन्त का क्या दोष ? उल्लू यदि दिन में नहीं देख पाता तो सूर्य का क्या दोष ? स्वाति नक्षत्र में वर्षा का जल यदि पपीहे के मुख में नहीं पड़ता, तो मेघ का क्या दोष ? विधाता ने जो भाग्य में लिख दिया है, उसे कौन मिटा सकता है ?

भगवान शंकर की पत्नी पार्वती अन्नापूर्ण हैं, जो तीनों लोकों को अन्नदान कर सबका पालन करती हैं, फिर भी शंकर हाथ में कपाल लिए भिक्षा माँगते फिरते हैं, यह भाग्य की ही तो विडम्बना है।

भाग्यवादी ‘भाग्यं फलति सर्वत्र, न हि विधा न च पौरूषम’ का उद्घोषण करते हुए प्रमाण में समुद्र मंथन का दृष्टांत देते हैं, जिसमें विष्णु को लक्ष्मी और शंकर को पान करने के लिए विष प्राप्त हुआ था। उनका यह भी तर्क है कि एक ही क्षेत्र में समान परिश्रम करने पर भी दो व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न फल क्यों प्राप्त होता है ? एक भाग्य की अनुकूलता से लखपति बन जाता है, जबकि दूसरा दु:ख सागर में डूबा रहता है। अत: जीवन की सफलता-असफलता भाग्य पर ही निर्भर करती है।

भाग्यवादी तो मानव की शक्ति को चुनौती देते हुए यह भी कहता है कि स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य को देवता भी नहीं जानते, मानव क्या जानेगा ? (स्त्रियश्चरित्रं पुरूषस्य भाग्यं दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः) इसीलिए करम (भाग्य) की गति टाले नहीं टलती। सत्यवादी हरिश्चन्द्र को श्मशान में दाह-संस्कार करवाने हीन कृत्य करना पड़ा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम को चौदह वर्ष वनवास भोगना पड़ा। पाण्डवों को बारह वर्ष का बनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास का कष्ट सहना पड़ा।

पुरुष का आशय है निरन्तर साहस और लगन से बिना थके कार्य करने में कटिबद्ध रहना। पुरुषार्थ से ही मनुष्य ने पृथ्वी को पृथु की भाँति दुह डाला है, जिससे मानव ने पृथु की भाँति न केवल सत्य ही प्राप्त किया अपितु तेल, कोयला, लोहा, टीन, एल्युमिनियम आदि धातुओं को भी प्राप्त किया है, जो शक्ति के महान स्रोत हैं। सागर की छाती पर चढ़कर चक्कर लगाने वाले जलयान तथा आकाश में उड़ने वाले विमान पुरुषार्थ बल के प्रतीक हैं। चन्द्र लोक, शुक्र लोक और मंगल लोक की खोज पुरुषार्थ का जीता-जागता पुरस्कार है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त सुख, सम्पन्नता, ऐश्वर्य मानवीय पुरुषार्थ का ही तो पुरस्कार है।

भारतीय मनीषी मानते हैं कि कर्म भी भाग्य का एक रूप है। (पूर्व जनम कृतं कर्म तदैवमिति कथ्यते) मानव जो कर्म करता रहता है, वह कर्म का वह रूप है, जिसको क्रियमाण कहा जाता है। यह संचित होता रहता है। ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार मनुष्य के कर्मों का कुछ अंश भाग्य बन जाता है। अत: वेदव्यास जी ने महाभारत में कहा, ‘कर्म समायुक्त दैवं साधु विवर्धते’ (अनुशासन पर्व 6/45) अर्थात पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भलीभाँति बढ़ता है। उनका यह भी कहना है कि जैसे बीज खेत में बोए बिना निष्फल रहता है, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता।’

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