धर्म और विज्ञान का संतुलन - Difference Between Religion and Science

धर्म और विज्ञान का संतुलन

प्राचीन काल से ही धर्म और विज्ञान के बीच विरोधाभास देखा गया है। विभिन्न तर्कों के आधार पर भारत और विश्वभर के ऋषि-मुनियों, विद्वानों, दार्शनिकों ने इस संदर्भ में अलग-अलग व्याख्याएँ दी हैं। संभवत: इन्हीं परस्पर विपरीत विचारधाराओं का प्रभाव रहा कि नास्तिकता, आस्तिकता, अज्ञेयवाद, सगुणब्रह्म, निर्गुणब्रह्म आदि शब्दों का विकास हुआ। धर्म और विज्ञान परस्पर विपरीत विचारधाराएँ हैं और एक सीमा तक मनुष्य के चारित्रिक उत्थान हेतु परमावश्यक हैं। लेकिन कुत्सा-प्रचारकों के संकीर्ण रवैये ने दोनों ही शब्दावलियों को बेहद संकुचित रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत किया और लोगों को इनके मूल अर्थ को समझने से वंचित कर दिया। जहाँ धर्म का अर्थ आपके कर्तव्य का बोध कराता है, वहीं कुत्सा-प्रचारक इसे किसी संप्रदाय विशेष से संबद्ध बताकर लोगों की भावनाओं को भड़काने का काम करते हैं। जहाँ धर्म ने मानव-हृदय का परिष्कार किया है, वहीं विज्ञान ने मानव बुद्धि को तर्कशक्ति प्रदान की है। इस विषय में किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि मनुष्य को जितनी भौतिक सुख-शांति की आवश्यकता होती है, उससे कहीं ज्यादा मानसिक सुख-शांति की जरूरत होती है। भौतिक संपन्नता मनुष्य के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाती हैं और कृत्रिम ही सही, परंतु आत्मविश्वास की भावना भी पैदा करती हैं, लेकिन भौतिक संसाधन मनुष्य के जीवन में किसी प्रकार की गुणवत्ता पैदा नहीं करते और न ही उसे जीने का बेहतर रास्ता दिखाते हैं। धर्म और विज्ञान दोनों ही मानव कल्याण के लिए परमावश्यक हैं, और इनकी आवश्यकता जीवनभर बनी रहेगी।

धार्मिक भावना से मनुष्य में सात्विक प्रवृत्तियों का विकास होता है क्योंकि वह मानव हृदय की एक उच्च, उदात्त, पुनीत एवं पवित्र भावना है। धर्म के मार्ग पर चलते हुए मनुष्य के भीतर त्याग, तपस्या और बलिदान की भावना प्रबल होती है, जिससे मनुष्य की मानसिक प्रवृत्तियाँ मनुष्य को शुभ-कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं। धार्मिक मनुष्य भौतिक-सुखों की अवहेलना करता है। अपने जीवन में सैकड़ों प्रकार के कष्ट सहकर भी वह अपने मार्ग से विचलित नहीं होता, क्योंकि हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार मनुष्य का इहलोक परलोक की आधारशिला रखता है।

धर्म, जो हमारे कर्तव्यों का हमें बोध कराता है, से प्रेरणा ग्रहण करके अनेक साधारणजनों ने अपने नैतिक, आध्यात्मिक विकास के जरिए, अपने पुरुषार्थ को सुदृढ़ बनाकर और अदम्य साहस का परिचय देते हुए, समाज के अग्रणी पुरुषों में अपना नाम दर्ज कराया और अनेक कठिन परिस्थितियों में समाज को रास्ता दिखाया। ऐसे महापुरुषों का चरित्रबल और जनता के प्रति सहानुभूति देखकर, समाज ने ऐसे लोगों को श्रद्धा से नमन किया। इन्हीं महापुरुषों के संकेत पर अनेक देवालयों की स्थापना हुई। इन्हीं महापुरुषों के प्रयासों से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का परचम संपूर्ण विश्व में लहराया है।

लेकिन उत्थान के साथ पतन भी एक ध्रुव-सत्य है। धीरे-धीरे धर्म के वास्तविक सिद्धांतों में विकार उत्पन्न होने शुरू हो गए। समय के साथ-साथ साधुओं, धर्मोपदेशकों, पंडे-पुजारियों में त्याग, तपस्या और बलिदान की जगह लोभ, क्रोध और भोग-विलास ने ले लिया। विकल्प ने मनुष्य को अंध-विश्वास के अंधकार से निकालकर तर्क और बुद्धि की शरण में भेज दिया। लोगों ने आँखों देखी बात और धर्म की कसौटी पर कसी हुई बात पर विश्वास करने की प्रवृत्ति का विकास किया। इसी आधार पर ही विज्ञान की मूल आधारशिला टिकी हुई है, वह तब तक धर्म की बात को सही नहीं मानता, जब तक की उसके पीछे किसी प्रकार की तर्कशक्ति न हो। इन सभी बातों के परिणामस्वरूप धर्म और विज्ञान की दो परस्पर विरोधी मान्यताएँ देखने को मिलीं। धर्म की आड़ लेकर अपनी गोटियाँ लाल करने वाले धूर्ती को वैज्ञानिक तर्कशक्ति ने धूल चटा दी, धर्म के बाह्य आडंबरों की पोल खुल गई और जनता हर चीज को तर्क की कसौटी पर परखकर उसे व्यवहार में लाने लगी। विज्ञान ने प्रकृति अराजक और दुर्दम्य शक्तियों को अपने वश में कर लिया और उसे अपने ही सांचे में ढाला। लेकिन क्या ये आविष्कार, नित्य नई प्रस्थापनाएँ, मनुष्य की जिज्ञासाओं को शांत कर पाई। कुछ देश इस दिशा में आगे निकल गए, तो गरीब देश मात्र मूक-बधिर होकर उनको देखते रहे। जिज्ञासाएँ समय के साथ-साथ प्रबल होती चली गईं, जिनकी पूर्ति न होने पर विज्ञान ने मानवविरोधी रूप अपना लिया। जो विज्ञान मानव-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत है, आज उसी के लिए संपूर्ण मानवता संत्रस्त है। मनुष्य के चहुंमुखी विकास के लिए यह अनिवार्य है कि धर्म और विज्ञान में सामंजस्य स्थापित किया जाए। जिस प्रकार अकेला विज्ञान संसार को शांति प्रदान नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार से अकेला धर्म भी संसार को समृद्ध नहीं बना सकता है। लोकमंगल की दृष्टि से धर्म का विज्ञान पर और विज्ञान का धर्म पर नियंत्रण होना अत्यंत आवश्यक है। धर्म और विज्ञान जीवन के दो परस्पर विरोधी परंतु आवश्यक पहलू हैं और ये एक-दूसरे के पूरक भी हैं।

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