डॉ. भीमराव अंबेडकर - Dr. Bhimrao Ambedkar

डॉ. भीमराव अंबेडकर

भारत में दलितों एवं पिछड़े वर्गों की लड़ाई लड़कर अपनी योग्यता एवं सक्रिय कार्यशक्ति के आधार पर भारत रत्न’ की उपाधि से सम्मानित डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महाराष्ट्र की महू-छावनी में एक दलित परिवार में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौदहवीं सन्तान थे। सोलह वर्ष की अल्पायु में मैट्रिक परीक्षा पास करते ही उनका विवाह रमाबाई नामक किशोरी से कर दिया था। उनके पिता रामजी मौलाजी एक सैनिक स्कूल में प्रधानाध्यापक थे। उनके पिता चाहते थे कि उनका पुत्र शिक्षित होकर समाज में फैली हुई छुआछूत जात-पात तथा संकीर्णता जैसी कुरीतियों को दूर कर सके। डॉ. भीमराव बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि बालक थे। वे विद्या-अध्ययन में बहुत रुचि रखते थे। उन्होंने सन् 1919 ई. में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की, तथा सन् 1913 ई. में बड़ौदा के महाराजा से छात्रवृत्ति पाकर वे उच्च शिक्षा पाने के लिए अमेरिका चले गए। वे सन् 1913 से 1917 तक चार वर्ष अमेरिका और इंग्लैण्ड में रह कर वहां से एम.ए., पी-एच.डी. और एल.एल.बी. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर भारत लौट आए। भारत आने पर महाराजा बड़ौदा ने इन्हें सचिव पद पर नियुक्त किया किन्तु वहां इन्हें छूतछात के भेदभाव का सामना | करना पड़ा। वे इस अपमान को सहन नहीं कर पाए तो यह पद छोड़कर बम्बई में अष्ट यापन कार्य में लग गए। इसके बाद वकालत प्रारम्भ कर दी। इसी बीच इन्होंने छूतछात के विरुद्ध लड़ने की प्रतिज्ञा कर ली और तभी से इस कार्य में जुट गए। तभी उन्होंने एक ‘मूक’ शीर्षक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्रिका में दलितों की दशा और उद्धार के बारे में उन्होंने जो लेख लिखे, उनका भारतीय दलित वर्गों तथा अन्य शिक्षित समाज पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा।

सन् 1947 ई. में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बने प्रथम केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में इन्हें विधिमंत्री के रूप में सम्मिलित किया गया। इसी वर्ष देश के संविधान निर्माण के लिए जो समिति बनाई गई, डॉ. अम्बेडकर उसके अध्यक्ष निर्वाचित हुए। इनके प्रयासों से ही भारतीय संविधान में जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर सभी तरह के भेदभाव समाप्त कर दिए गए। बाद में जाने किन कारणों से डॉ. अम्बेडकर का मन अपने मूल धर्म से विचलित होता गया और उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में बौद्ध धर्म में दीक्षा ग्रहण कर ली थी। इसके बाद वे बौद्ध धर्म के प्रचार में लग गए। बाद में उन्होंने ‘भगवान बुद्ध और उनका धर्म’ नामक एक ग्रन्थ की भी रचना की।

उनका निधन 6 दिसम्बर सन् 1956 ई. को नई दिल्ली में हुआ। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें मरणोपरान्त भारत रत्न की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया।

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