यह बहुधा कहा गया है कि जीवन के युद्ध में जिसको कि मनुष्य परिस्थितियों के विरुद्ध लड़ता है। नारी की भूमिका द्वितीय पंक्ति की रहती है। यह बात निश्चय ही बड़ी महत्वपूर्ण है, किन्तु आज हम पुरुष और नारी में कोई भेद नहीं करते हैं जहाँ तक कि उनके दर्जे की समानता का सम्बन्ध है। नारी को भी मोर्चे अर्थात् प्रथम पंक्ति पर होने का उतना ही अधिकार है जितना कि पुरुष को। जहाँ तक दोनों की क्षमता का प्रश्न है, यह सिद्ध हो चुका है कि नारी की क्षमताओं का कुल योग पुरुष की क्षमताओं के कुल योग से कम नहीं होता, किन्तु हम देखते हैं कि हमारे समाज में नारी की स्थिति वह नहीं है जो होनी चाहिए। समाज में नारी को पुरुष के साथ गौण स्थान प्राप्त है। जन्म से ही लड़का और लड़की के मध्य हमारे अधिकतर परिवारों में भेद किया जाता है। परिवार में प्राप्त पौष्टिक आहार का बड़ा भाग लड़के को चला जाता है। उसको शिक्षा एवं उन्नति के अन्य अवसरों के मामलों में अधिक ध्यान दिया जाता है। जैसे-जैसे बच्ची बड़ी होती जाती है प्रतिबन्धों की जंजीरें उस पर बराबर कड़ी और कड़ी होती जाती हैं। समय बीतते-बीतते उसमें हीनता की ग्रन्थि विकसित होने लगती है और यह ग्रन्थि मृत्यु तक उसका साथ देती है। विवाह के बाजार में उसको केवल एक वस्तु की तरह समझा जाता है। दहेज के सौदे व्यापार के सौदों की भाँति तय किए जाते हैं; जो अपर्याप्त दहेज लाती हैं उनको भाँति-भाँति के कष्ट सहने पड़ते हैं और कभीकभी मृत्यु भी। नारी जोकि हम सबकी माँ है, उसको इस दीन स्थिति में ढकेल दिया गया है। परिवार में बच्ची का जन्म एक निराशा का अवसर होता है, जबकि लड़के का जन्म आनन्द और उत्सव मनाने का। सामाजिक जीवन का रथ एक पहिए से नहीं चल सकता, किन्तु फिर भी न जाने क्यों दूसरे पहिए के महत्व की पहचान कम क्यों है ? बहुत से घरों में महिलाएं एक दास से अच्छा जीवन व्यतीत नहीं करतीं। उनको ‘लकड़ी चीरने वाले और पानी खींचने वाले’ से बेहतर स्थान प्राप्त नहीं है।
क्या वह समाज जिसमें महिलाओं को ऐसा समझा जाता है, उन्नति कर सकता है ? महिलाएं जनसंख्या का लगभग आधा भाग होती हैं। यदि यह आधा भाग अविकसित रह जाए, उसकी बढ़ोत्तरी बीच में ही रुक जाए और जिसको जीवन को सम्पूर्ण बनाने वाले अवसरों के उपभोग की कमी हो तो ऐसे समाज से यह आशा करना अव्यावहारिक है कि वह अपनी पूर्ण क्षमताओं का विकास कर सकेगा। अविकसित व्यक्तित्वों से कोई देश महान् नहीं बनता और यही कारण है कि उन्नति की दौड़ में भारत पीछे रह गया है। भारत में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हम महान् महिलाओं के नामों से परिचित हैं; गार्गी, लोपामुद्रा, रजिया, रामाबाई, झाँसी की रानी, सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी उन सुविख्यात महिलाओं की पंक्ति में से कुछ के नाम हैं जिन्होंने विभिन्न युगों में इतिहास के पन्नों को सजाया है, लेकिन ये वे महिलाएं थीं, जोकि उस समय के माहौल से भी अधिक महान् थीं, जिन्होंने उन प्रतिकूल परिस्थितियों को ही चीरकर रख दिया था जो उनके रास्ते में उपस्थित हुईं। यदि कहीं हमने महिलाओं के विकास के रास्ते में कृत्रिम बाधाएं न खड़ी की होती, तो हमारा समाज अधिक पुष्ट, शक्तिशाली, अधिक जीवन्त और अधिक विकासोन्मुख होता, किन्तु हमने मौका खो दिया। उपलब्धियों और विकास की ऊँचाइयों की दौड़ में महिलाओं की शोचनीय स्थिति निश्चित रूप से एक रोड़ा बन गई।
अब भी बहुत देर नहीं हुई है। आइए हम नारी को वह स्थान प्रदान करें जिसकी वह अधिकारिणी है, उसे प्रतिष्ठा और समानता का दर्जा, आदर और पहचान प्रदान करें। आजादी के बाद से हमने निश्चय ही इस दिशा में सोचना और कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है, अनेक विधिक उपायों द्वारा हमने उनको शोचनीय स्थिति के दलदल से निकालने का प्रयास किया है। दहेज निवारण अधिनियम 1961 जिसको कि 1986 में संशोधित किया गया, मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 जोकि 1976 में संशोधित किया गया, फेक्टरीज संशोधन अधिनियम 1976, समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976, शारदा एक्ट आदि कुछ उपाय हैं जिनको कि हाल में महिलाओं की दशा सुधारने के लिए अपनाया गया है। केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड महिलाओं के लिए कार्यक्रम क्रियान्वित करता है। महिलाओं की स्थिति पर गठित समिति के सुझावों का क्रियान्वयन चल रहा है। 1976 में महिलाओं के लिए नेशनल प्लान ऑफ एक्शन को भी लागू किया। इसके अतिरिक्त एक वीमेन्स ब्यूरो भी है, जोकि महिलाओं के लिए किए जाने वाले कल्याणकारी कार्यों का समन्वय करता है। महिलाओं के लिए विशेष ध्यान सुनिश्चित करने हेतु 1985 में मानव संसाधन मंत्रालय के अधीन महिला एवं शिशु विकास का विशेष विभाग खोला गया। हाल ही में महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की भी स्थापना की गई है। पंचायत राज अधिनियम ने, जोकि संविधान में 73वें संशोधन के फलस्वरूप अस्तित्व में आया, महिलाओं के लिए, अनुसूचित जाति/जनजाति की महिलाओं को सम्मिलित करते हुए पंचायत राज की विभिन्न स्तरीय संस्थाओं में 30 प्रतिशत का आरक्षण प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त एक यह भी प्रस्ताव है कि राष्ट्रीय संसद एवं राज्यों के विधान मण्डलों में महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित कर दिए जाएं। भारत ने वर्ष 2001 को महिला सशक्तीकरण वर्ष के रूप में मनाया। नारी को सशक्त करने हेतु भारत सरकार द्वारा चलाया जा रहा कार्यक्रम कालान्तर में परिणाम प्रदर्शित करेगा। प्रधानमंत्री का नारी को सशक्त करने का नया कार्यक्रम जिसके द्वारा यह प्रयास किया जा रहा है कि बालिका का जन्म निराशा के अवसर से हर्ष एवं प्रसन्नता के अवसर के रूप में परिवर्तित कर दिया जाय, केवल एक छोटा-सा कदम है। गर्भ में ही बच्चे के लिंग का निर्धारण और गर्भ में यदि बालिका है, तो गर्भ समापन की इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए भी कानून बनाया गया है। कुछ राज्यों ने सरकारी नौकरियों में महिलाओं को आरक्षण देना शुरू कर दिया है, यह एक अच्छी बात है।राजस्थान सरकार ने अभी (2007) बाल विवाह निषेध अधिनियम के प्रावधानों को और अधिक कडा कर दिया है। उपरोक्त दोनों ही कदम महिला सशक्तीकरण की दिशा में अच्छे प्रयास हैं। वास्तविक प्राण तब आएंगे जब नारी शिक्षा शत-प्रतिशत सुनिश्चित कर ली जायेगी। जब तक दोनों लिंगों के प्रति हमारे दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं होता है
और महिलाओं के प्रति भेदभाव समाप्त नहीं होता, नारी मुक्ति का कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता।