महाकवि कालिदास की गणना संस्कृत साहित्य में शीर्षस्थ कवियों में की जाती है। उनकी सात कृतियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हो चुका है। वस्तुतः कालिदास का नाम विश्व साहित्य के प्रमुख कवियों में शुमार हो चुका है। कालिदास को उज्जयिनी के महाराज विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में सम्मिलित किया जाता है। कालिदास के बारे में किंवदंती प्रचलित है कि प्रारंभ में वे महामूर्ख थे। इस क्रम में एक मनोरंजक कथा भी कही जाती है। कहा जाता है कि बाणभट्ट और नागेटभट्ट अवंती के महाराज के दरबारी कवि थे। अवंती नरेश की पुत्री विद्योत्तमा रूप, गुण एवं विद्या में साक्षात् सरस्वती के समान थी। शास्त्रार्थ में वह बड़े-बड़े पंडितों तथा दरबार के श्रेष्ठ विद्वानों को परास्त कर चुकी थी। इसलिए दरबारी पंडित उससे ईष्र्या करने लगे थे। वे डाह के कारण राजकुमारी का विवाह किसी महामूर्ख से कराने का षड्यंत्र रच रहे थे। जब उन्होंने जंगल में किसी ऐसे व्यक्ति को लकड़ी काटते देखा, जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह स्वयं बैठा था, तो उनके हर्ष का ठिकाना न रहा और वे यह आश्वासन देकर उसे अवंती नगर में ले आए कि उसका विवाह राजकन्या से करा दिया जाएगा। उस मूर्ख युवक का नाम कालिदास था।
राजदरबार में ले जाने से पूर्व कालिदास को स्नानादि कराकर खूब सजाया गया। राजकुमारी से कहा गया कि प्रकाण्ड पंडितजी मौन व्रत धारण किए हुए हैं, वे पूछे गए प्रश्नों का उत्तर सांकेतिक भाषा में देंगे।
राजकुमारी ने नवागत पंडितजी को देखा और उनकी ओर एक उंगली इस आशय से दिखाई कि ईश्वर एक है। मूर्ख ने सोचा कि राजकुमारी शायद उसकी एक आँख फोड़ना चाहती है, अतएव उसने इस अभिप्राय से दो उंगलियां उठायीं कि उसकी दोनों आंखें वह फोड़ देगा। विद्योत्तमा पंडित का आशय समझकर मुस्करा उठी। उसे लगा कि शायद पंडितजी का आशय सगुण और निर्गुण ब्रह्म से है। इसके पश्चात् उसने अपना हाथ दिखाया। राजकुमारी के लाल हाथ, लंबी उंगलियों को देखकर पंडितजी को लगा कि यह शायद उसे तमाचा मारना चहती है, अतः बचाव के लिए उन्होंने अपनी मुट्ठी दिखाई। विद्वान् पंडितों ने अर्थ किया कि राजकुमारी हाथ दिखाकर पांच तत्त्व और उनका अस्तित्त्व अलग-अलग होने की बात कर रही हैं जबकि विद्वान् युवक की मान्यता है कि पांच तत्वों का अस्तित्व पृथक्-पृथक् आभासित होने पर वस्तुतः वे मिले हुए हैं तभी तो सृष्टि की। रचना होती है। राजकुमारी ज्यादा कुछ बोलने में असमर्थ रही और अपनी हार उसने स्वीकार कर ली।
राजकुमारी का विवाह तथाकथित विद्वान् युवक से हो गया। विवाह के पश्चात् पहली रात को ही विद्योत्तमा जान गई कि उसके साथ छल हुआ है और उसका पति विद्वान् न होकर महामूर्ख है। अतः विद्योत्तमा इस झटके को सह न सकी और उस व्यक्ति को राजभवन से निकल जाने के लिए कहा। कहा जाता है कि इस निरादर से कालिदास की आंखें खुल गईं और वह विद्याध्ययन करने काशी चले गए। काशी में कालिदास ने जी-तोड़ परिश्रम किया। पढ़-लिखकर और योग्य बनकर कालिदास अपनी भार्या विद्योत्तमा के पास वापस आए। अंततः विद्योत्तमा ने कालिदास की विद्वता को स्वीकार कर लिया।
हमारे देश के महाकवियों ने अपने विषय में कभी कुछ लिखने का प्रयास नहीं किया। वे विद्या को समर्पित होते थे और आत्म-परिचय देना उचित नहीं मानते थे। कालिदास भी इसी प्रकार के महाकवि थे। वे कहां जन्मे, कहां और कब उन्होंने विद्या अर्जन किया, उनके पिता का नाम क्या था? – आदि जानकारी उनकी रचनाओं से नहीं मिलती। शकुन्तला नाटक में उन्होंने अपने को विक्रम की सभा का कवि बताया है।
कालिदास के ग्रंथों को पढ़ने से पता चलता है कि वे भ्रमण प्रिय, विद्वान्, कवि थे। रघुवंश के चौथे सर्ग में रघु की दिग्विजय का मनोहारी वर्णन कोई ऐसा कवि ही कर सकता है, जो उन प्रदेशों में घूमा हो। कालिदास अवश्य उन प्रदेशों में गए होंगे। इसी प्रकार उनके मेघदूत में विरही यक्ष के दूत ‘नए बादल’ जिन-जिन मार्गों से गुजरने का दिशाबोध पाते हैं- वह भी कवि की कल्पना न होकर यर्थाथपरक है। | कालिदास उज्जयिनी में महाराज विक्रमादित्य की सभा के नवरत्न माने गए हैं। विक्रम की सभा के नवरत्नों के नाम थे – धन्वन्तरि, क्षपणक, अमर सिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर, वररुचि। | कालिदास विरचित सात ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं। ऋतुसंहार, कुमारसंभव, रघुवंश और मेघदूत काव्य ग्रंथ हैं तथा मालविकाग्निमित्रम् विक्रमोर्वशीयम् एवं अभिज्ञान शाकुन्तलम् उनके प्रसिद्ध नाटक हैं, जिनका अनुवाद दुनिया की अनेक भाषाओं में हो चुका है।