आधुनिक हिन्दी के खड़ी बोली काव्य की छायावादी शैली के प्रवर्तक के रूप में बाबू जयशंकर प्रसाद का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। जयशंकर प्रसाद जी को लोग केवल ‘प्रसाद’ के नाम से ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं। इनका जन्म माघ शुक्ला दसमी संवत् 1946 को वैश्य कुल में हुआ था। इनके पिता के नाम देवी प्रसाद था जो सुंघनी साहु के नाम से वाराणसी नगर में विख्यात थे। इनके कुल में सुर्ती, तम्बाकू, सुंघनी आदि का व्यवसाय होता था।
प्रसाद जी की आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। कुछ समय उपरान्त ये बनारस के क्वींस कॉलेज में पढ़ने गए थे। इसी बीच पिता की मृत्यु हो जाने के कारण इनकी पढ़ाई छूट गई और ये अपने कुल के व्यवसाय में लग गए। प्रसाद जी बचपन में पढ़ने-लिखने में रुचि लेते थे और अपने निज के अभ्यास से अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत, उर्दू में काफी योग्यता प्राप्त कर ली थी। उन्होंने काश्मीर शैवदर्शन का काफी गंभीरता से अध्ययन किया था और उनकी काव्य-साधना में इसका प्रभाव भी देखा जा सकता है। शुरू-शुरू में आप ब्रजभाषा में कविता करते थे, बाद में आपने खड़ी बोली में लिखना शुरू किया, जिसमें आपको बहुत अधिक सफलता मिली।
जयशंकर प्रसाद की ख्याति उनकी उन रचनाओं से हुई जो व्यंजना-प्रधान थीं और जिन्हें छायावाद के नाम से जाना गया है। जयशंकर प्रसाद इस शैली के जनक माने जाते हैं। इस ढंग की उनकी पहली रचना ‘आंसू’ है। यह कविता विप्रलय श्रृंगार की भावनाओं और वेदनाओं की अभिव्यक्ति है। प्रसाद जी ने इसी शैली पर गीत काव्य की अनेक रचनाओं की सृष्टि की है। उनकी अंतिम रचना महाकाव्य के रूप में – कामायनी- है। जिसका विषय एक वैदिक आख्यान है। इस काव्य को उन्होंने निजी रंग से रंजित किया है। हिन्दी साहित्य में प्रसाद जी नाटककार के रूप में ही सबसे ज्यादा विख्यात हुए। भारतेन्दु के पश्चात् हिन्दी में बहुत कम नाटक लिखे गए हैं, प्रसाद जी ने इस क्षेत्र को
अपनाया और उसे पूरी तरह समृद्ध भी किया। उनके नाटक प्राचीन भारत की ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित हैं। प्रसाद द्वारा लिखे गए नाटकों के नाम इस प्रकार हैं- “जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’, ‘अजातशत्रु राज्यश्री’, ‘स्कन्दगुप्त’, करुणालय’, ‘विशाखा’, ‘कामना’, ‘ध्रुव स्वामिनी’ और ‘एक घंट’। इन दस नाटकों की उन्होंने रचना की और ‘इन्द्रनायिका’ नाटक का कुछ अंश लिखकर छोड़ गए। इनमें एक घंट’ सामाजिक ‘कामना’ लाक्षणिक और शेष सब ऐतिहासिक हैं। इसमें कोई मतभेद नहीं हो सकता कि सभी नाटक साहित्यिक दृष्टि से महत्त्व के और ऊंचे हैं। इसमें मतभेद अवश्य है कि वे मंच पर सफलतापूर्वक खेले जा सकते हैं या नहीं। अच्छे नाटककार होने के साथ-साथ प्रसाद जी अच्छे कथाकार भी थे। कहानियों में वे सूक्ष्म भावनाओं को भी चत्रित करने में सफल हुए हैं। उन्होंने सत्तर से ज्यादा कहानियां लिखीं और वे बाद में पांच खण्डों में प्रकाशित की गई। उपन्यास उन्होंने केवल दो लिखे हैं, जिनके नाम ‘कंकाल’ और ‘तितली’ हैं। नाटकों में प्रसाद जी ने भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष का निरूपण किया है, किन्तु उपन्यासों से उन्होंने आधुनिक अवनति का काला चित्र अंकित किया है।
प्रसाद जी के निबंध भी उच्च स्तरीय हैं, जिनमें कला, कविता छायावाद आदि के संबंध में उन्होंने अपने विचार प्रकट किए हैं। जीवन के अंतिम पांच साल वे बीमार रहा करते थे। उन्हें मंदाग्नि तथा अजीर्ण रोग हो गया था। अन्त में, उन पर क्षय रोग का आक्रमण हुआ और उसी से वे संवत् 1994 में कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी को मात्र 48 वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गए।