भारत के स्वतंत्रता सेनानियों में लाला लाजपत राय का नाम अग्रणी पंक्तियों में आता है। निर्भीक, स्पष्टवादी लाला जी देश के उन गिने-चुने महापुरुषों में से थे, जिनका धर्म देश-सेवा और जन-सेवा था। वे देश-सेवा के प्रत्येक कार्य में अपने को आगे रखते थे। वे अच्छे वक्ता और अच्छे लेखक दोनों थे। लोग उनके उत्साहवर्द्धक भाषण, जिसमें उर्दू भाषा का पुट होता था, सुनने के लिए सदैव इच्छुक रहते थे।
लाला जी को जन्म 28 जनवरी, 1865 को पंजाब में फीरोजपुर जिले के दुडिके ग्राम में हुआ था। आरंभिक शिक्षा गांव में तथा लुधियाना के मिशन स्कूल में समाप्त करके इन्होंने सन् 1880 में गवर्नमेण्ट कॉलेज, लाहौर में प्रवेश लिया था। वहां से मुख्यारी और एफ. ए. की परीक्षा पास करके हिसार में छह वर्षों तक वकालत करने के बाद वे 1892 में पुनः लाहौर चले गए। लाला जी आर्य समाज के प्रखर समर्थक तथा अनुयायी थे। वे कई वर्षों तक दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कॉलेज में प्रोफेसर तथा मंत्री रहे।
सन् 1888 में इलाहाबाद में सम्पन्न हुए कांग्रेस के सम्मेलन में शामिल हुए थे जहां इनका भाषण सुनकर सभी लोग इनके समर्थक बन गए थे। सन् 1902 और 1910 में इन्होंने दो बार कांग्रेस का प्रतिनिधि बनकर इंग्लैण्ड की यात्रा की थी।
अंग्रेजी सरकार नहीं चाहती थी कि भारत में कोई उसका विरोध करे। वह निरंकुश शासक बने रहकर हिन्दुस्तानियों का खून निरंतर चूसते रहना चाहती थी। लाला जी अंग्रेजों की रीति-नीतियों के कारण उनके कट्टर शत्रु थे। सन् 1920 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन के वे सभापति बने। कांग्रेस द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन में उन्होंने खुलकर भाग लिया जिसके कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा।
लाला जी 12 सितम्बर, 1926 को स्वतंत्र कांग्रेस पार्टी के महामंत्री बनाए गए। इसी दौरान सरकार द्वारा नियुक्त साइमन कमीशन में एक भी भारतीय न होने के कारण कांग्रेस ने उस कमीशन का बहिष्कार करने के लिए आन्दोलन चलाया। यह कमीशन जहां-जहां गया वहां उसका स्वागत काले झंडे दिखाकर किया गया। ‘साइमन कमीशन वापस जाओ के नारों से जनता ने उसके खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द की। 30 अक्टूबर सन् 1928 को साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा था। यहां उसकी वही दुर्गति हुई, जो अन्य शहरों में हो चुकी थी। विरोध करने के लिए जुलूस निकाले गए। पूरे शहर में पुलिस ने धारा 144 लगा रखी थी फिर भी, जुलूस निकाला गया और लाला लाजपत राय सिंह की तरह उस जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। अंगेजी इशारों पर नाचने वाली पुलिस के काले-गोरे अफसर लाला जी को निडर होकर जुलूस के आगे-आगे आता देखकर कुढ़ गए और लाठी चार्ज का आदेश दे दिया। पुलिस तथा अहिंसक जनता के बीच में आए लाला जी के शरीर तथा छाती पर जुल्मी पुलिस ने लाठियों से कई प्रहार किए।
लाला जी पर किए गए लाठियों के प्रहार इतने घातक सिद्ध हुए कि वे इन चोटों की वजह से फिर उठ न सके। सारा शरीर चोटों के करण नीला पड़ गया था। अंग-अंग में असह्य पीड़ा थी। छाती पर इतनी लाठियां पड़ी थीं कि उन्हें सांस लेने में भी कष्ट होता था। अंग्रेजी सरकार द्वारा किए गए इस निर्दय व्यवहार से दुःखी लाला जी ने कहा था कि “मेरे ऊपर पड़ी लाठी की एक-एक चोट अंगेजी राज के कफन की एक-एक कील साबित होगी।” लाला जी के ये उद्गार आज भी भुलाए नहीं भूलते कि अंग्रेज किस प्रकार और किस सीमा तक हम भारतीयों पर अत्याचार कर रहे थे।
लाला जी गम्भीर चोटों की वजह से दिन-पर-दिन शिथिल होते जा रहे थे। कोई इलाज लाभकारी सिद्ध नहीं हो रहा था। अन्त में वह काला दिन भी आ गया, जिसे टालने के लिए चिकित्सक निरंतर प्रयास करते रहे। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी ने सदा सर्वदा के लिए अपनी आंखें बन्द कर लीं।