भारत के हिन्दी कथाकार और उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द गांधीवादी विचारधारा के अग्रणी साहित्यकारकों में माने जाते हैं। आमतौर पर लोग इन्हें मुंशी प्रेमचन्द कहा करते थे। प्रेमचन्द जी का जन्म वाराणसी जिले के पाण्डेयपुर नामक कस्बे के समीप लमही नामक ग्राम में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। इनके पिता श्री अजायबराय कायस्थ घराने के सदाचारी व्यक्ति थे जो उन दिनों डाक घर में मुंशी थे और बीस रुपये मासिक वेतन पाते थे। इनकी माता आनन्दी देवी धर्मभीरु सीधी-सरल महिला थीं। बचपन में इन्होंने अपने प्रिय पुत्र का नाम धनपतराय रखा जो बाद में हिन्दी जगत में मुंशी प्रेमचन्द के नाम से अमर हो गए।
प्रेमचन्द को अक्षर ज्ञान के लिए ग्राम की पाठशाला में भेजा गया जहां इन्होंने अपनी शिक्षा उर्दू से शुरू की। उन दिनों उत्तर प्रदेश (संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध) में उर्दू का प्रचलन था। मुंशीजी ने सन् 1898 ई. में किंग्जवे कॉलेज से मैट्रिक (इन्टेंस) परीक्षा पास की। इसके बाद सरकारी नौकरी में आकर सी.टी. तथा इन्टर (एफ.ए.) परीक्षा उत्तीर्ण की। सरकारी नौकरी में उन्नति करके ये सब डिप्टी इन्स्पेक्टर ऑफ स्कूल्स मदरसा बन गए थे। सन् 1921 में इनके ऊपर तत्कालीन स्वतंत्रता सेनानियों का प्रभाव पड़ा और सरकारी नौकरी छोड़कर बस्ती जिले में मास्टरी करने लगे। यहां पर रहते हुए इन्होंने गोरखपुर से बी.ए. पास किया। खराब स्वास्थ्य तथा काम की अधिकता के कारण ये स्कूल की मास्टरी भी ज्यादा दिन कर पाने में असमर्थ रहे। अतः सन् 1921 में इन्होंने दुलारेलाल भार्गव के अनुरोध पर लखनऊ में माधुरी का सम्पादन करना शुरू किया। यहां पर ज्यादा समय तक ये टिक नहीं सके और काशी आकर ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ पत्र निकालना शुरू कर दिया। इन पत्रों में इन्हें लाभ के बजाय हानि ही अधिक हुई। घर की आर्थिक दशा ठीक न होने के कारण प्रेमचन्द जी फिल्मी कथा लेखन-कार्य करने के लिए बम्बई चले गए किन्तु बम्बई में इनका स्वास्थ्य काफी खराब रहने लगा और इन्हें काशी लौट आना पड़ा जहां इनका निधन 8 अक्टूबर, 1936 को हो गया। इस प्रकार मात्र 56 वर्ष की आयु होने तक हिन्दी जगत के इस श्रेष्ठ कलाकार ने अनेक कहानियों तथा दर्जनों उपन्यासों से हिन्दी साहित्य के भण्डार को भर दिया।
प्रेमचन्द जी ने अपने अल्पकालिक जीवन में 200 कहानियां लिखीं जिनका संग्रह मानसरोवर के नाम से आठ भागों में प्रकाशित हो चुका है। इन्होंने कर्मभूमि, कायाकल्प, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, निर्मला, गोदान, रंगभूमि, प्रेमा, सेवा सदन, गबन, मंगलसूत्र (अपूर्ण) जैसे श्रेष्ठ उपन्यास लिखे। इनका लिखा नाटक चन्द्रहार काफी प्रसिद्ध है किन्तु उपन्यास लिखने में इन्हें भारी सफलता मिली। कर्बला, संग्राम, प्रेम की वेदी, रूहानी शादी, रूठी रानी इनकी अन्य औपन्यासिक कृतियां हैं जिनका हिन्दी जगत में काफी सम्मान है। प्रेमचन्द जी ने निबंध, जीवनचरित तथा बाल साहित्य भी लिखा है जिसे काफी लोकप्रियता मिली है।
प्रेमचन्द के बाद हिन्दी उपन्यास ने सामाजिकता और राजनीतिकता का ताना-बाना छोड़ दिया था। प्रेमचन्द जी के पात्रों में वर्ग का प्रतिनिधित्व अधिक रहता था। उनमें व्यक्ति की अपेक्षा समाज की झलक ज्यादा दिखाई देती है। गबन भी एक सामाजिक उपन्यास है। गबन में नारी को आभूषणप्रियता तथा निर्मला में वृद्ध विवाह का दुष्परिणाम दिखाया गया है। सामाजिकता के साथ-साथ वे राजनीतिक
परिवेश को भी चित्रित करने से नहीं चूके। ‘रंगभूमि’ राजनीतिक आन्दोलन से प्रेरित होकर लिखा गया उपन्यास है। गबन में उन्होंने प्रसंगवश पुलिस के हथकण्डों का अच्छा चित्रण किया है। प्रेमचन्द जी न तो सामाजिक अत्याचार सहन कर सकते थे और न राजनीतिक कटु व्यवहार। ब्राह्मणों तथा उच्चकुलाभिमानी लोगों का भण्डाफोड़ करने में उन्हें विशेष रुचि थी किन्तु वे किसी उग्र क्रांति के पक्षधर नहीं थे।
प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट् कहे जाते हैं किन्तु उनकी कहानियां भी हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। बड़े भाईसाहब, कफन, शतरंज के खिलाड़ी आदि में मानवीय भावनाओं का सहज चित्रण देखने को मिलता है।