भारत का बेचारा मजदूर - Poor Laborers of India

भारत का बेचारा मजदूर

कहने को तो प्रत्येक व्यक्ति एक मजदूर है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन यापन के लिए न्यून-अधिक शारीरिक श्रम करना पड़ता है। परन्तु वास्तव में, व्यावहारिक स्तर पर केवल दो वक्त की रोटी के लिए कमर तोड़ मेहनत करने वाले व्यक्ति को ही मजदूर कहा जाता है। भारत में ऐसे मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है। परिवार के भरण-पोषण के लिए दिन-रात खटने वाले भारतीय मजदूर को ‘बेचारा’ ही कहा जा सकता है। मजदूरों के अभाव में किसी भी उद्योग-धन्धे का चलना संभव नहीं है। नयी-नयी मशीनों के आगमन से उद्योगों में मजदूरों की आवश्यकता कम अवश्य हुई है, परन्तु आज भी हमारे कारखाने-मिलें मजदूरों की कमरतोड़ मेहनत से ही चल रहे हैं। मिल-कारखानों के ये मजदूर दिन-रात परिश्रम करने पर भी अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते हैं। सर्वाधिक शारीरिक श्रम करने वाले इन मजदूरों को जीवन में कभी सन्तुष्टि प्राप्त नहीं होती। अपने परिवार के साथ ये मजदूर दड़बेनुमा मकानों में घुटनभरा जीवन व्यतीत करते हैं। इनके दिन-रात के परिश्रम से इन्हें इतनी भी आय नहीं हो पाती कि आसानी से अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें। कठिनाई से जीवन व्यतीत करने वाले इन मजदूरों को सन्तोषप्रद स्वास्थ्य सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हो पातीं। किसी मजदूर के परिवार में यदि एक व्यक्ति भी लम्बी अवधि के लिए रोगग्रस्त हो जाए, तो वह कर्जदारों का मोहताज हो जाता है। बड़े मिल-कारखानों के मजदूरों को यूनीयन के सहयोग से कुछ सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं। अपनी मांगों को मनवाने के लिए इन मजदूरों को हड़ताल का हथियार प्राप्त है। परन्तु लघु-उद्योगों से जुड़े मजदूरों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। अपनी मांगों के समर्थन में ये मजदूर आवाज उठाने से भी डरते हैं। कठिनाई से उपलब्ध दो वक्त की रोटी छिन जाने का डर सदा इन मजदूरों के मन में बैठा रहता है। मन मारकर ये मजदूर दिन-रात अपना खून-पसीना बहाते हैं। भारत में ऐसे मजदूरों की संख्या भी कम नहीं है, जिन्हें नियमित रूप से काम नहीं मिलता। रिक्शा, ठेला आदि खींचने वाले मजदूरों का काम भगवान भरोसे चलता है। इन मजदूरों को कभी काम मिलता है, कभी ये बेकार बैठे रहते हैं। सिर पर सामान ढोने वाले कुलियों की दशा भी दयनीय होती है। पहाड़ी क्षेत्रों के कुलियों को तो काम के लिए ऋतु की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। ग्रीष्म ऋतु में जब सैलानी सैर के लिए पहाड़ों पर आते हैं, तभी इन बेचारों को काम मिल पाता है। ऊँचे-नीचे पहाड़ी रास्तों पर इन मजदूरों को कठिन शारीरिक श्रम करना पड़ता है, फिर भी इनका जीवन अभावग्रस्त रहता है।

भारत के मजदूर वर्ग में बाल-मजदूरों की भी एक बड़ी संख्या है। गरीब परिवारों से सम्बद्ध ये बाल-मजदूर ढाबों, चाय की दुकानों, छोटे रेस्तराओं, लघु उद्योगों और सम्पन्न लोगों के घरों में दिन-रात मेहनत करके अपने परिवार को सहयोग देते हैं। सभी सुख-सुविधाओं और शिक्षा से दूर इन बाल-मजदूरों का जीवन नरक से कम नहीं है। ये बेचारे दिन-रात अपने मालिक की सेवा करते हैं, फिर भी फटे चीथड़े पहनते हैं, रूखा-सूखा-जूठा खाते हैं। लघु उद्योगों से जुड़े बाल-मजदूरों को कुछ कारखानों में इस्तेमाल किए जाने वाले हानिकारक रसायनों के कारण अपने स्वास्थ्य से भी हाथ धोना पड़ता है। कारखानों के स्वार्थी मालिक बेचारे मजदूरों के स्वास्थ्य की जरासी चिन्ता नहीं करते।
भारत में किसी भी वर्ग का मजदूर नारकीय जीवन भोगने के लिए जन्म लेता है। वह दिन-रात कमरतोड़ मेहनत करता है, रोगग्रस्त होने पर भी काम करता है। उसे तन ढकने को पर्याप्त कपड़े नहीं मिलते, भरपेट खाना नहीं मिलता। यहाँ ऐसे भी मजदूर हैं, जिनका कोई निश्चित घर नहीं होता । इमारतों आदि के निर्माण के लिए जहाँ उन्हें काम मिलता है, वहीं टीन-टप्पर डालकर उनका परिवार बसर करता है। भारत के मजदूर सभी को आदर देते हैं, परन्तु स्वयं पग-पग पर अपमानित होते हैं। बेचारे मजदूर !

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