'भारत कोकिला' सरोजिनी नायडू - Sarojini Naidu

‘भारत कोकिला’ सरोजिनी नायडू

विश्व की सुप्रसिद्ध कवयित्री तथा भारत के राष्ट्रीय-क्षितिज की कर्मठ नायिका श्रीमती सरोजिनी नायडू अपनी विलक्षण प्रतिभा, काव्य-कुशलता, वक्तृत्व-शक्ति, राजनीति-ज्ञान तथा अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण केवल भारत में ही नहीं वरन् समस्त एशिया के नारी-जगत् में विशिष्ट स्थान रखती थीं। निस्सन्देह, वे भारतीय महिला-जागृति की मूर्तिमान प्रतीक थीं और उनका बहुगुणसमन्वित रूप अत्यन्त विस्मयकारी था। वे एक सफल कवयित्री थीं, जो मधुर कल्पना-लोक की कोमल भावनाओं और करुण अनुभूतियों को हृदय में संजोये एक दिन राजनीति के कांटों-भरे क्षेत्र में उतर पड़ी थीं।

श्रीमती नायडू का जन्म 13 फरवरी, सन् 1879 को एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हैदराबाद (दक्षिण) में हुआ था। इनके पिता का नाम अघोरनाथ चट्टोपाध्याय तथा माता का नाम श्रीमती वरना सुन्दरी देवी था। सरोजिनी नायडू जब नौ वर्ष की थीं तो एक दिन अंग्रेजी न बोल सकने के कारण अत्यन्त लज्जित हुई थीं और तभी से अंग्रेजी बोलने तथा सीखने में उन्होंने अपनी ऐसी योग्यता प्रदर्शित की कि जो कोई भी सुनता चकित हो जाता था। उन्होंने अपनी सबसे पहली कविता 11 वर्ष की आयु में लिखी थी। प्रतिभा और कवित्व-शक्ति से प्रभावित होकर हैदराबाद के निजाम ने उन्हें विशेष अध्ययन के लिए विदेश जाने को प्रोत्साहित किया और 300 पौंड अर्थात् 42,000 रुपये प्रति वर्ष की छात्रवृति देने की घोषणा की। इंग्लैण्ड पहुंचने पर वे लंदन के किंग्स कॉलेज और कैम्ब्रिज के गिर्टन कॉलेज में अध्ययन करती रहीं। वहां वे केवल पढ़ने में ही व्यस्त नहीं रहीं, प्रत्युत अपनी कवित्व-शक्ति का भी उपयोग किया। वे वहां प्रसिद्ध विद्वान् एडमंड गोस, विलियम आर्चर और हैनीमैन जैसे प्रकाशकों से मिलीं और उनके प्रोत्साहन से अनेक उत्कृष्ट कवितायें लिखीं।

भारत लौटने पर सन् 1898 में इनका विवाह हैदराबाद के प्रधान मैडिकल अफसर डाक्टर गोविन्द राजुलु नायडू से सम्पन्न हो गया। डॉक्टर नायडू ब्राह्मण जाति के नहीं थे, किन्तु यह बाधा सरोजिनी जैसी दृढ़प्रतिज्ञ नारी को रोक नहीं सकी। किन्तु विवाह के पश्चात् केवल गृहस्थी के कार्यों से ही वे सन्तुष्ट नहीं हो सकी। देश की करुण पुकार ने उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। उस समय श्री गोखले के नेतृत्व में कांग्रेस भावी स्वतंत्रता का पथ-प्रदर्शन कर रही थी। वे उसी की अनुगामिनी बनीं और तब से अन्त तक राजनीतिक तूफानों और झंझावतों से अनवरत संघर्ष करती रहीं। सन् 1915 में उन्होंने बम्बई कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया और सन् 1916 में लखनऊ कांग्रेस में सम्मिलित हुईं। तत्पश्चात् उन्होंने समस्त भारत का भ्रमण किया और मुख्य-मुख्य नगरों में भाषण दिये।

सन् 1924 में श्रीमती नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष होकर दक्षिण अफ्रीका गईं। सन् 1926 में वे कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्ष निर्वाचित की गई और सन् 1928 में उन्होंने अमेरिका और कनाडा जाकर भारतीयों के दृष्टिकोण का अमेरिकियों में प्रचार किया। 15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त हो जाने पर देश ने उनके सिर पर वृद्धावस्था में भी युक्तप्रान्त जैसे बड़े प्रान्त का शासनभार सौंपा। अपनी गवर्नरी के कार्यकाल में उन्होंने जिस योग्यता और तत्परता का परिचय दिया, वह चिरस्मरणीय रहेगा। उन्होंने भारतीय नारी के उत्थान में प्रशंसनीय कार्य किया। वे पर्दा-प्रथा, बालविवाह आदि कुप्रथाओं से बहुत अधिक चिढ़ती थीं। वे स्त्री-पुरुषों के समान अधिकारों की कायल थीं। उन्होंने मि, मांटेग्यु के ऐतिहासिक भारतीय दौरे के समय ‘अखिल भारतीय महिला डेपुटेशन का नेतृत्व किया और नारी के बालिग मताधिकार की मांग की। । इस प्रकार राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यक क्षेत्रों में अपनी अप्रतिम प्रतिभा और तेजस्विता का सिक्का जमा कर 70 वर्ष के यशस्वी जीवन के पश्चात् 2 मार्च, 1949 में श्रीमती नायडू का देहावसान हुआ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *