हिन्दी साहित्य में छायावाद के अग्रणी कवि पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” का जन्म संवत् 1955 माघ शुक्ल एकादशी को महिषादल (राज) जिला मेदिनीपुर, बंगाल में हुआ था। इनके पिता श्री रामसहाय त्रिपाठी, गढ़ा कोला, जि. उन्नाव के निवासी थे, जो महिषादल के राजा के यहां 100 सिपाहियों के ऊपर जमादार थे। विधुर होने के कारण बालक सूर्यकान्त के लालन-पालन का भार भी उन्हें ही उठाना पड़ा, जो कभी-कभी छोटी-सी बात को लेकर भी सूर्यकान्त को इतना मारते थे कि बालक तिलमिला जाता था।
बचपन में मातृस्नेह का अभाव तथा पारिवारिक सरस वातावरण न मिलने के कारण बाल्यकाल से ही सूर्यकान्त में विद्रोह की भावना जन्म लेने लगी थी। कभी-कभी पिता स्नेह की वर्षा भी करते, परन्तु उनका वह स्नेह तपती रेत में वर्षा की बूंदों की तरह होता और बालक को चिरकालिक स्नेह दे पाने में असफल रहता।
निराला जी का विद्यार्थी जीवन ज्यादा लम्बा नहीं रहा। प्रारंभिक शिक्षा बंगला स्कूल में हुई। आठवीं-नवीं कक्षा तक पहुंचते ही इनकी पढ़ाई छूट गई। उन्होंने अपने-आप बंगला तथा अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया तथा इस प्रकार वे साहित्यानुरागी बन गए। निराला जी की आयु करीब 14-15 वर्ष की होगी जब उनका विवाह मनोहरा देवी के साथ हो गया। उस समय मनोहरा देवी की आयु मात्र 11 वर्ष की थी। मनोहरा देवी के आग्रह से निराला जी ने खड़ी बोली सीखी और उसी में कविता भी करने लगे।
उन्होंने अपनी पहली रचना ‘जूही की कली’ सन् 1916 में ‘सरस्वती’ में छपने के लिए भेजी, किन्तु आचार्य द्विवेदी ने उसे नहीं छापा और उसे निराला को वापस भेज दिया। निराला जी के भावुक मन को इससे चोट तो लगी, पर वे निराश नहीं हुए और अपना लेखन-कार्य जारी रखा।
निराला जी की जूही की कली’ पर रवीन्द्र के स्वच्छन्दतावाद का प्रभाव था, किन्तु हिन्दी में वैसी कविता उस समय लिखने वाला कोई नहीं था। माधुरी में वह छपी और निराला पर आरोप लगाये गए कि उन्होंने काव्य की मर्यादाएं भंग की हैं, किन्तु निराला मानने वाले नहीं थे, उनकी लेखनी में ठहराव नहीं आया और वे अपनी राह पर निर्भीकता से चलते रहे। इसी बीच उनके पिता का सन् 1916 में देहान्त हो गया और विवश होकर परिवार चलाने के लिए उन्होंने महिषादल राज्य की नौकरी स्वीकार कर ली। अभी एक वर्ष ही बीता था कि उनकी पुत्री सरोज का सन् 1917 में जन्म हुआ। सरोज के जन्म के एक वर्ष बाद सन् 1918 में उनकी पत्नी भी चल बसीं। यह भारी आघात था, जिसने निराला जी के मानस को झकझोर दिया। वे अपने चार साल के पुत्र रामकृष्ण और एक वर्ष की पुत्री सरोज को अपनी सास के पास छोड़कर कलकत्ता गए और अपनी चीजें नीलाम कर और नौकरी छोड़कर अपने गांव लौट आए।
निराला जी अक्खड़ स्वभाव के स्वाभिमानी जीव थे, जो किसी प्रकार के दबाव में झुकने वाले नहीं थे। सन् 1999 में उनका ‘परिमल’ प्रकाशित हुआ। इस दौरान प्रसाद और पन्त भी प्रकाश में आ चुके थे। प्रसाद और पन्त का उतना विरोध नहीं हुआ, जितना हिन्दी जगत में ‘निराला’ का विरोध हुआ। सन् 1935 में उनकी इकलौती पुत्री क्षय रोग से चल बसी । पुत्री की असामयिक मृत्यु का कविमन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इसी बीच उनकी कविता ‘सरोज स्मृति प्रकाशित हुई। वे सन् 1928 से सन् 1942 तक लखनऊ में रहकर ही साहित्य की साधना करते रहे। विरोधों की परवाह न करते हुए वे अपने लेखन-कार्य में अग्रसर हुए और उनकी कई रचनाएं इस बीच लखनऊ से प्रकाशित हुईं।
सन् 1942 में वे इलाहाबाद आकर दारागंज में रहने लगे तथा अन्त समय तक एक ही मकान में रहे, जहां 15 अक्टूबर, 1961 को 9 बजकर 23 मिनट पर उनका स्वर्गारोहण हुआ।