वेदांत दर्शन के ज्ञाता और उच्च कोटि के संत स्वामी रामतीर्थ का जन्म 22 अक्टूबर, 1873 को अविभाजित पंजाब के गुजरानवाला शहर के समीप स्थित गांव मुरारीवाला में हुआ था। स्वामी रामतीर्थ के बचपन का नाम तीर्थराम था। इनके पिता का नाम हीरानंद गोसाईं था। बालक तीर्थराम की प्रारंभिक शिक्षा मुरारीवाला में ही हुई।
केवल 10 वर्ष की आयु में शादी होने के बाद तीर्थराम आगे पढ़ने के लिए गुजरानवाला डिस्ट्रिक्ट हाई स्कूल में दाखिल हुए। वे सीधे-सादे ग्रामीण बालक थे, जो शहरी जीवन से परिचित नहीं थे। उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता था तथा स्वभाव भी संकोची था, इसलिए वे अन्य सहपाठियों के साथ ज्यादा घुलमिल नहीं पाते थे। अंग्रेजी उस समय प्राइमरी स्कूल में उन्होंने पढ़ी नहीं थी, किन्तु मेहनत करके उन्होंने थोड़े समय में ही अंग्रेजी सीख ली।
तीर्थराम के पिता बच्चे को शहर में अकेला नहीं रखना चाहते थे, इसलिए वे किसी अच्छे संरक्षक को ढूंढ रहे थे। सौभाग्य से गुजरानवाले में भगत धनाराम मिल गए, जिनके संरक्षण में बालक को निश्चिंत होकर छोड़ा जा सकता था। धनाराम जी एक प्रकार से तीर्थराम के आध्यात्मिक गुरु भी साबित हुए।
साढ़े चौदह वर्ष की आयु में तीर्थराम ने इन्ट्रैन्स परीक्षा बहुत अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। इन्होंने सन् 1890 में एफ. ए. परीक्षा कठिन परिश्रम तथा लगन से उत्तीर्ण की।
विषम परिस्थितियों से जूझते हुए बी.ए. की परीक्षा में तीर्थराम न केवल प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए थे, वरन् उन्हें स्वर्ण पदक तथा छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई थी। कालान्तर में उन्होंने एम.ए भी पास किया। इस प्रकार अथक परिश्रम करके निर्धन किन्तु लगनशील तीर्थराम अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो गए।
तीर्थराम स्कूल शिक्षक से उन्नति करके कॉलेज के प्रोफेसर बन गए। वे सदा निर्धन छात्रों की मदद करते तथा भगवान कृष्ण का नाम लेते थे। कृष्ण-प्रेम में वे इतने तन्मय रहने लगे कि कॉलेज में प्रोफेसर का पद भी सन् 1900 ई. में छोड़ दिया। तीर्थराम अपने अनुयाइयों के साथ टिहरी (गढ़वाल) आ गए और एकान्त स्थान में रहकर साधना करने लगे। एक दिन तीर्थराम ने अपनी सारी धनराशि गंगाजी में फेंक दी। किन्तु दो-चार दिन बाद किसी अज्ञात प्रेरणा से कलकत्ता का एक सेठ आया और उसने स्वामीजी के आश्रम के लिए समुचित धनराशि दान में दे दी।
तीर्थराम धीरे-धीरे सांसारिक बंधनों से छूटना चाहते थे, अतः एक दिन वे सहसा आश्रम से बाहर चले गए। उनकी पत्नी ने देखा कि आश्रम में कोई नहीं है, अतः वे चिन्तित हो उठीं। तीर्थराम अब रामतीर्थ हो गए थे। गंगा में स्नान करके उन्होंने संन्यासी के वेश को अंगीकार कर लिया। उन्होंने ‘विश्व धर्म संसद’ के अधिवेशन में जापान जाने का निर्णय लिया। टिहरी के राजा ने उनके लिए जापान जाने की व्यवस्था कर दी थी।
जापान में स्वामीजी को काफी सम्मान मिला। प्रत्येक समझदार व्यक्ति उनके भाषण सुनने के लिए लालायित रहता था। वे काफी समय तक जापान में रहे, इसके बाद वे अमेरिका चले गए। अमेरिका में कैलीफोर्निया उनका मुख्यालय रहा तथा वहां हर्बर्ट हिलर ने उनके आवास आदि का प्रबंध किया था। मि. हिलर और उनकी पत्नी दोनों स्वामीजी का खूब सम्मान करते थे। स्वामीजी करीब डेढ़ वर्ष उनके साथ रहे।
अमेरिका में वेदान्त पर दिए गए उनके भाषणों का संकलन “इन दि वुड्स ऑफ गॉड रियलाइजेशन” के नाम से छपा था। अमेरिका के कुछ समाचारों ने उनके बारे में लिखा था कि एक ‘जीवित ईसा मसीह’ अमेरिका आया है। अमेरिका के अनेक नगरों में वे गए। लोगों ने उनके विचार सुने, उनका स्वागत किया और बहुत से उनके शिष्य भी बन गए। स्वामीजी सभी से बड़े प्रेम से मिलते थे और अपने विचारों से उन्हें प्रभावित करते थे। वे मिन भी गए थे और वहां से 8 दिसम्बर, 1904 को अपनी ढाई वर्ष की यात्रा पूरी करके बम्बई पहुंचे थे।
स्वामी रामतीर्थ मात्र 33 वर्ष के थे जब उन्होंने अपना शरीर छोड़ा। आदि शंकराचार्य भी केवल 32 वर्ष के थे, जब वे शिवधाम गए थे। इस छोटी उम्र में स्वामी रामतीर्थ ने विदेशों तथा देश में वेदान्त दर्शन का जितना प्रचार किया, उसका महत्त्व अकथनीय है। निश्चय ही वे भारत के उच्च कोटि के साधक सन्त थे।