सामान्य जीवन जीने के लिए तथा जीवन में स्वाभाविक गति से प्रगति एवं विकास करने के लिए शान्ति का बना रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। देश में संस्कृति, साहित्य तथा अन्य उपयोगी कलाएँ तभी विकास पा सकती हैं जब चारों ओर शान्त वातावरण हो। देश में व्यापार की उन्नति व आर्थिक विकास भी शान्त वातावरण में ही संभव हो पाता है। सहस्त्र वर्षों के अथक प्रयत्न व साधन से ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला आदि का किया गया विकास युद्ध के एक ही झटके से मटिया-मेट हो जाता है। युद्ध के इस विकराल रूप को देखकर तथा इसके परिणामों से परिचित होने के कारण मनुष्य सदैव से इसका विरोध करता रहा है। युद्ध न होने देने के लिए मानव ने सदैव से प्रयत्न किए हैं। महाभारत का युद्ध होने से पहले श्रीकृष्ण भगवान् स्वयं शान्ति-दूत बनकर कौरव सभा में गए थे। आधुनिक युग में भी प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ‘लीग-आफ-नेशन्स’ जैसी संस्था का गठन किया गया। परन्तु मानव की युद्ध-पिपासा भला शान्त हुई क्या? अर्थात् फिर दूसरा विश्व युद्ध हुआ। इसके बाद शान्ति की स्थापना के लिए संयक्त राष्ट्र संघ (U.N.O.) जैसी संस्था का गठन हुआ। परन्तु फिर भी युद्ध कभी रोके नहीं जा सके।
एक सत्य यह भी है कि कई बार शान्ति चाहते हुए भी राष्ट्रों को अपनी सार्वभौमिकता, स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए युद्ध लड़ने पड़ते हैं। जैसे द्वापर युग में पाण्डवों को, त्रेता युग में श्रीराम को तथा आज के युग में भारत को लड़ने पड़े हैं। परन्तु यह तो निश्चित ही है कि किसी भी स्थिति में युद्ध अच्छी बात नहीं। इसके दुष्परिणाम पराजित व विजेता दोनों को भुगतने पड़ते हैं। अतः मानव का प्रयत्न सदैव बना रहना चाहिए कि युद्ध न हों तथा शान्ति बनी रहे।
शब्दार्थः संघर्षात्मक = होड़ वाली; प्रतिक्रियाओं = बदले की भावना से युक्त क्रिया; सहस्त्र = हजारों; विकराल = भयंकर; युद्ध-पिपासा = युद्ध लड़ने की प्यास; सार्वभौमिकता = सभी राज्यों के प्रति सरोकार; स्वाभिमान = अपनी प्रतिष्ठा/गौरव पर अभिमान।