योगी अरविंद - Yogi Arvind

योगी अरविंद – Sri Aurobindo

आधुनिक भारत के संतों में योगी अरविंद का नाम अव्वल नंबर में शुमार किया जाता है। योगी अरविंद का व्यक्तित्व व कृतित्व बहुआयामी था। अंग्रेजी शिक्षा की छत्रछाया में पले-बढ़े व शिक्षित हुए योगी अरविंद अपनी युवावस्था में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी संघर्ष में भी रत रहे।

योगिराज अरविन्द का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ता में हुआ था। इनके पिता श्री कृष्णघन व्यवसाय से डॉक्टर तथा पश्चिमी विचारधारा के व्यक्ति थे, किन्तु धीरेधीरे वे राष्ट्रीय विचारों को अपनाने की ओर अग्रसर हो रहे थे और बालक अरविन्द पर भी इन परिवर्तित विचारों का असर पड़ने लगा था। श्री अरविन्द की आरंभिक शिक्षा दार्जिलिंग में हुई थी। डॉ. कृष्णघन ने मात्र सात वर्ष की आयु में ही पुत्र को अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने विलायत भेज दिया था। लंदन तथा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन करने के पश्चात् 18 वर्ष की आयु में ये आई. सी. एस. की परीक्षा में बैठे और प्रथम श्रेणी से उसमें पास हुए। घुड़सवारी की परीक्षा में अनुपस्थित रहने के कारण ये सरकारी सेवा में फंसने से वंचित रह गए। अरविन्द का इस प्रकार से अंगेजी सेवा में न आना अन्ततः भारत के लिए काफी लाभप्रद साबित हुआ।

अरविन्द शैशवावस्था से ही विदेश में रहे थे, जिसकी वजह से इन्हें कई योरोपीय भाषाएं सीखने का मौका मिला था। ये अंग्रेजी के अतिरिक्त ग्रीक, लैटिन, फ्रैंच भाषाएं भी जानते थे। भारत वापस आकर इन्होंने बंगला तथा संस्कृत का भी अध्ययन किया था। लंदन में आपकी मुलाकात बड़ौदा नरेश से हुई थी। वे चाहते थे कि भारत आकर अरविन्द बड़ौदा कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर कार्य करें। भारत आकर अरविन्द ने महाराजा का अनुरोध स्वीकार कर लिया था। बड़ौदा कॉलेज के प्रिन्सिपल क्लार्क महोदय ने जोन ऑफ आर्क से अरविन्द की तुलना करते हुए कहा था कि यदि जोन ऑफ आर्क को स्वर्गिक संदेश सुनाई पड़ते हैं, तो अरविन्द को भी स्वर्गिक स्वप्न दिखाई पड़ते हैं।

इस दौरान बंगाल के विभाजन को लेकर उनका मन काफी विक्षुब्ध हो उठा था। बंगाल के लोग अंग्रेजों की इस बेहूदा करतूत से हरकत में आ गए थे। स्वदेशी आन्दोलन तेज होने लगा था और अंग्रेजी कपड़ों की होलियां जलने लगीं थीं।

अंग्रेजों ने ‘बंग भंग’ तथा स्वदेशी आन्दोलन को कुचलने के लिए कई कदम उठाए। अनेक आन्दोलकारियों को बन्दी बनाया गया तथा कई बेकसूरों को फांसी के फन्दे में झुला दिया गया। अरविन्द नौकरी छोड़कर तिलक एवं विपिन चन्द्र पाल के साथ मिलकर काम करने लगे। इन्होंने ‘युगान्तर’ तथा ‘बन्देमातरम्’ अखबार भी निकाला तथा इनका सम्पादन बहुत योग्यता तथा तत्परता से करने लगे। इन पत्रों का आम जनता पर अच्छा असर पड़ा और लोग इनकी विचारधारा से प्रभावित होने लगे।

अंग्रेजी सरकार ने 1907 के बमकाण्ड में इन्हें फंसा लिया, किन्तु ये निर्दोष पाए गए। 1908 में पुनः अलीपुर बम काण्ड में आपको शरीक माना गया, जिसकी वजह से एक वर्ष का कारावास हुआ। इस दौरान योग-साधना करने का आपको समय मिला तथा योग के साधना पक्ष और सिद्धान्त पक्ष दोनों का आपने विधिवत् अध्ययन किया। 6 मई, 1909 को जेल से छूटने के बाद अंग्रेजी में ‘कर्मयोगी’ और ‘धर्म’ नामक दो साप्ताहिक पत्र निकालना शुरू किया। यह योजना किन्हीं कारणों से आपको बन्द करनी पड़ी। अंग्रेजी सरकार आपसे चिढ़ी तो थी ही दूसरे जेल में सड़ते रहकर आप अपने विचारों का प्रचार करने में असमर्थ थे। अतः अंग्रेजी सरकार की आंखों से बचकर आप चन्द्रनगर चले गए और उसके बाद पाण्डिचेरी पहुंच कर योग-साधना में लग गए। अब आप राजनीति से ऊब कर अपना पूरा समय योग-साधना और आध्यात्मिक कार्यों में लगाने लगे।

पाण्डिचेरी का अरविन्द आश्रम अन्तरराष्ट्रीय योग-साधाना केन्द्र बन चुका है। इस संस्था का प्रबन्ध आपके जीवनकाल में आपकी शिष्या, जो फ्रान्सीसी थी, किया करती थी। आपकी सहधर्मिणी श्रीमती मृणालिनी देवी सदा आपके कार्यों में हाथ बंटाती रहीं। सन् 1918 के दिसम्बर की 17 तारीख को इनका निधन हो गया, जिसका अरविन्द जी पर काफी असर पड़ा। लाला लाजपत राय 5 जनवरी, 1925 को आपसे मिलने पाण्डिचेरी गए थे।

और आपके कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। 29 मई, 1928 को कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी आपसे मिले थे और आपके आध्यात्मिक जीवन से बहुत प्रभावित हुए थे।
मानव-जीवन क्षणभंगुर है। जो आया है, उसे एक न एक दिन जाना ही पड़ता है। 5 दिसम्बर, 1950 को आपने संसार से नाता तोड़कर महासमाधि ले ली।

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