इधर, जब अर्जुन की मूर्च्छा टूटी, तब वे घोड़े के लिए अत्यंत व्यग्र हो उठे | तब प्रभु ने ब्राह्मण वेष बनाया और अर्जुन को अपना चेला | वे राजा के पास पहुंचे | राजा मयूरध्वज इन लोगों के तेज से चकित हो गए | वे इन्हें प्रणाम करने ही वाले थे कि इन लोगों ने स्वस्ति कहकर उन्हें पहले ही आशीर्वाद दे दिया | राजा ने इनके पधारने का कारण पूछा | श्रीकृष्ण ने कहा, “मेरे पुत्र को सिंह ने पकड़ लिया है | मैंने उससे बार-बार प्रार्थना की कि जिसमें वह मेरे एकमात्र पुत्र को किसी प्रकार छोड़ दे | यहां तक कि मैं स्वयं अपने को उसके बदले में देने को तैयार हो गया, पर उसने एक न मानी | बहुत अनुनय-विनय करने पर उसने यह स्वीकार किया है कि राजा मयूरध्वज पूर्ण प्रसन्नता के साथ अपने दक्षिणांग को अपनी स्त्री पुत्र के द्वारा चिरवाकर दे सकें तो मैं तुम्हारे पुत्र को छोड़ सकता हूं |” राजा ने ब्राह्मण रूप श्रीकृष्ण का प्रस्ताव मान लिया | उनकी रानी ने अर्द्धांगिनी होने के नाते अपना शरीर देना चाहा, पर ब्राह्मण ने दक्षिणांग की आवश्यकता बतलाई | पुत्र ने अपने पिता की प्रतिमूर्ति बतलाकर अपना अंग देना चाहा, पर ब्राह्मण ने वह भी अस्वीकार कर दिया |
अंत में दो खंभों के बीच ‘गोविंद, माधव, मुकुंद’ आदि नाम लेते महाराज बैठ गए | आरा लेकर रानी और ताम्रध्वज चीरने लगे | जब महाराज मयूरध्वज का सिर चीरा जाने लगा, तब उनकी बांईं आंख से आंसू की बूंदें निकल गईं | इस पर ब्राह्मण ने कहा -दुख से दी हुई वस्तु मैं नहीं लेता | मयूरध्वज ने कहा, ‘आंसू निकलने का यह भाव नहीं है कि शरीर काटने से मुझे दुख हो रहा है | बाएं अंग को इस बात का क्लेश है – हम एक ही साथ जन्मे और बढ़े, पर हमारा दुर्भाग्य जो हम दक्षिणांग के साथ ब्राह्मण के काम न आ सके | इसी से बांईं आंख से आंसू आ गए |”
अब प्रभु ने अपने आपको प्रकट कर दिया | शंख-गदा धारण किए, पीतांबर पहने, सधन नीलवर्ण, दिव्य ज्योत्स्नामय श्याम सुंदर ने ज्यों ही अपने अमृतमय कपर कलम से राजा के शरीर को स्पर्श किया, वह पहले की अपेक्षा अधिक सुंदर, युवा तथा पुष्ट हो गया | वे सब प्रभु के चरणों में गिरकर स्तुति करने लगे | प्रभु ने उन्हें वर मांगने को कहा | राजा ने प्रभु के चरणों में निश्चल प्रेम की तथा भविष्य में ऐसी कठोर परीक्षा किसी की न ली जाए – यह प्रार्थना की | अंत में तीन दिन तक उनका आतिथ्य ग्रहण कर घोड़ा लेकर श्रीकृष्ण तथा अर्जुन वहां से आगे बढ़े |