“बेटी ! तू हंसी क्यों ?” पितामह ने उपदेश बीच में ही रोककर पूछा |
द्रौपदी ने संकुचित होकर कहा, “मुझसे भूल हुई | पितामह मुझे क्षमा करें |”
पितामह को इससे संतोष होना नहीं था | वे बोले, “बेटी ! कोई भी शीलवती कुलवधू गुरुजनों के सन्मुख अकारण नहीं हंसती | तू गुणवती है, सुशीला है | तेरी हंसी अकारण हो नहीं सकती | संकोच छोड़कर तू अपने हंसने का कारण बता |”
हाथ जोड़कर द्रौपदी बोलीं, “दादाजी ! यह बहुत ही अभद्रता की बात है, किंतु आप आज्ञा देते हैं तो कहनी पड़ेगी | आपकी आज्ञा मैं टाल नहीं सकती | आप धर्मोपदेश कर रहे थे तो मेरे मन में यह बात आई कि आज तो आप धर्म की ऐसी उत्तम व्याख्या कर रहे हैं, किंतु कौरवों की सभा में जब दु:शासन मुझे नंगा करने लगा था, तब आपका यह धर्मज्ञान कहां चला गया था | मुझे लगा कि यह धर्म का ज्ञान आपके पीछे सीखा है | मन में यह बात आते ही मुझे हंसी आ गई, आप मुझे क्षमा करें |”
पितामह ने शांतिपूर्वक समझाया, “बेटी ! इसमें क्षमा करने की कोई बात नहीं है | मुझे धर्मज्ञान तो उस समय भी था, परंतु दुर्योधन का अन्यायपूर्वक अन्न खाने से मेरी बुद्धि मलिन हो गई थी | इसी से उस द्यूतसभा में धर्म का ठीक निर्णय करने में मैं असमर्थ हो गया था | परंतु अब अर्जुन के बाणों के लगने से मेरे शरीर का सारा दूषित रक्त निकल गया है | दूषित अन्न से बने रक्त के शरीर से बाहर निकल जाने के कारण अब मेरी बुद्धि शुद्ध हो गई है, इससे इस समय मैं धर्म का तत्व ठीक समझता हूं और उसका विवेचन कर रहा हूं |”