कृपी महर्षि शरद्वान की पुत्री थी | इनकी माता जानपदी नाम की एक देवकन्या थी | कृपी का जीवन सदा दुर्भाग्य और आपत्तियों से संघर्ष करते हुएही बीता | बचपन में तो माता-पिता उसे निर्जन वन में रोता-बिलखता छोड़कर चले गए थे, तब महाराज शांतुन के सैनिक ने लाकर उसे अपने यहां पाला था | बड़ी होने पर उसका विवाह द्रोणाचार्य के साथ हो गया | द्रोणाचार्य धनुर्विद्या में पारंगत थे और बाद में इसी के बल पर वे कौरव और पाण्डवों के गुरु निश्चित हुए, लेकिन इससे पहले उनको जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था | निर्धनता तो उनके यहां सदा बनी रहती थी | कृपी के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम अश्वत्थामा था | वह बड़ा ही शूरवीर था | पिता ने उसको धनुर्विद्या की शिक्षा दी थी | लेकिन अश्वत्थामा की बाल्यावस्था बड़े ही कष्टों के बीच में कटी | द्रोणाचार्य इतने निर्धन थे कि उनके पास बालक को दूध पिलाने के लिए एक गाय तक नहीं थी | एक दिन जब अश्वत्थामा दूध के लिए बहुत रोने लगा तो कृपी ने दुखी होकर दूध के स्थान पर उसे चावल के पानी से बहलाना चाहा, लेकिन बालक ऋषि कुमारों के चिढ़ाने पर रोने लगा | तब द्रोणाचार्य और कृपी को वह निर्धनता की वेदना असह्य हो उठी थी |
बाद में कृपाचार्य के प्रयत्नों से द्रोणाचार्य कौरव-पाण्डवों के गुरु बने, तब कहीं जाकर निर्धनता का काल समाप्त हुआ और कृपी पूर्ण संतोष के साथ रहने लगी | कुछ समय पश्चात ही महाभारत युद्ध छिड़ गया, जिसमें द्रोणाचार्य दूसरे सेनापति बनकर युद्ध करने गए और उसमें धृष्टद्युम्न के हाथों मारे गए | कृपी विधवा हो गई | वैधव्य की दारुण व्यथा उसे भोगनी पड़ी | फिर पुत्र अश्वत्थामा भी आततायी स्वभाव का था, इसलिए उसकी ओर से कृपी को अधिक संतोष नहीं था | जिस समय अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पांचों लालों का वध कर दिया था, उस समय युधिष्ठिर और स्वयं द्रौपदी करुणा करके उसको जीवन-दान नहीं देते तो बेचारी कृपी को पुत्र-सुख से भी विहीन हो जाना पड़ता, लेकिन फिर भी कृपी जैसी तपस्विनी नारी को अश्वत्थामा जैसा क्रूर पुत्र पाकर किसी प्रकार के गर्व का अनुभव नहीं होता था | वह सात्विक वृत्ति से पूर्ण नारी थी और धैर्य और शांति में अधिक विश्वास करती थी |