पाण्डु और धृतराष्ट्र दोनों भाई थे | पाण्डु उम्र में छोटे थे, पर छोटे होने पर भी वे हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठे | इसका कारण यह था कि धृतराष्ट्र दोनों आंखों से अंधे थे | राजकार्य करने में असमर्थ थे | किंतु पाण्डु अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सके | वे अपने पांच पुत्रों को छोड़कर स्वर्गवासी हो गए | उनके पुत्रों में युधिष्ठिर सबसे बड़े थे | उनकी मृत्यु के पश्चात धृतराष्ट्र ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली | उनके सौ पुत्र थे | उनके पुत्रों में दुर्योधन सबसे बड़ा था |
धृतराष्ट्र के साथ उसका साला शकुनि रहता था | वह बड़ा ही कूटनीतिज्ञ था | वह धृतराष्ट्र के अंधे होने का लाभ उठाने लगा | वह दुर्योधन को अपने हाथों का खिलौना बनाकर, ह्स्तिनापुर के राजकुल में शतरंज की चालें चलने लगा | वह राजकाज में दखल तो देने ही लगा, अधर्म और अन्याय का चक्र भी चलाने लगा |
धृतराष्ट्र मंत्रियों, शकुनि और दुर्योधन की सहायता से शासन का कार्य चलाया करते थे | उनके सामने सबसे बड़ी कठिनाई तो उस समय आई, जब उसके मन में युवराज के पद को भरने का विचार उत्पन्न हुआ | वे किसे युवराज बनाएं, यह प्रश्न उनके सामने विकट रूप में खड़ा हुआ |
राजकुमारों में दो ही व्यक्ति ऐसे थे, जिनमें से किसी एक को युवराज बनाया जा सकता था | उन दोनों व्यक्तियों में एक का नाम युधिष्ठिर और दूसरे का नाम दुर्योधन था | नियमानुसार युधिष्ठिर को ही युवराज बनाया जाना चाहिए था | वे सबसे अधिक योग्य तो थे ही, उम्र में भी सबसे बड़े थे | दुर्योधन धृतराष्ट्र का अपना पुत्र था | उसके मन में उसके प्रति आसक्ति भी थी, किंतु वे नियमों की अवहेलना करते हुए डरते भी थे | उधर, जनता में युधिष्ठिर का प्रभाव था | धृतराष्ट्र मन ही मन सोचते थे, यदि उन्होंने मोहवश दुर्योधन को युवराज बनाया, तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा | जनता में उसकी निंदा होगी |
अंत में धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को ही युवराज बनाने का विचार किया | दुर्योधन और शकुनि ने उनके इस विचार का तीव्र विरोध किया | दुर्योधन ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा, “वह पांडवों की गुलामी नहीं करेगा | यदि युधिष्ठिर को युवराज बनाया गया, तो वह या तो आत्महत्या कर लेगा या वह हस्तिनापुर छोड़कर अन्यत्र चला जाएगा |” यद्यपि दुर्योधन गांधारी के समझाने से उस समय मौन रह गया, किंतु जब युधिष्ठिर को युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया गया, तो उसके हृदय में द्वेष की आग जल उठी | शकुनि बड़ी ही सावधानी के साथ उस आग में फूंक मारने लगा |
युधिष्ठिर के युवराज बनने पर दुर्योधन और शकुनि-दोनों ने भली प्रकार समझ लिया कि जब तक पांडव जीवित रहेंगे, हस्तिनापुर राज्य का एकछत्र स्वामी दुर्योधन नहीं बन सकता | यदि पुरे हस्तिनापुर राज्य को अपने हाथों में लेना है, तो चाहे जैसे भी हो, पांडवों को अपने रास्ते से हटाना होगा |
अत: पांडवों को हटाने के लिए शकुनि और दुर्योधन ने कपट से भरी हुई एक योजना तैयार की | दुर्योधन उस योजना के अनुसार वारणावत में पुरंजन के द्वारा लाह का घर बनवाने लगा | पुरंजन उसका मंत्री था | वह भवन-निर्माण की विद्या में बड़ा चतुर था | पुरंजन धन मांगता जाता था, दुर्योधन उसकी मांग को पूरी करता जाता था | योजना यह थी कि जब भवन बनकर तैयार हो जाएगी, तो दुर्योधन धृतराष्ट्र से कहेगा कि वे पांडवों को मेला देखने के लिए वारणावत भेजें | जब पांडव वारणावत जाएंगे तो पुरंजन उन्हें लाह के भवन में ठहराकर उसमें आग लगा देगा | फिर तो पांडव अपनी मां कुंती सहित उसी भवन में जलकर भस्म हो जाएंगे |
लाह के भवन का निर्माण और उसमें ठहराकर पांडवों को जलाकर मार डालने की योजना बहुत गुप्त रखी गई थी | दुर्योधन और शकुनि यही समझते थे कि उन दोनों और पुरंजन को छोड़ चौथा अन्य कोई व्यक्ति उस योजना को नहीं जानता, पर सच बात तो यह है कि उस योजना को एक चौथा व्यक्ति भी जानता था | वे व्यक्ति थे विदुर | विदुर भगवान के बहुत बड़े भक्त तो थे ही, पांडवों के बड़े हितैषी भी थे | उन्हें जब दुर्योधन और शकुनि की योजना का पता चला तो वे बड़े चिंतित हो उठे | वे पांडवों की मृत्यु के मुख में जाने से बचाने के लिए प्रयत्न करने लगे |
विदुर समीप के वन के मध्य भाग से लेकर लाह के घर के बड़े कमरे तक सुरंग बनाने लगे | जिस प्रकार दुर्योधन ने पांडवों को मार डालने की अपनी योजना गुप्त रखी थी, उसी प्रकार विदुर ने भी अपनी योजना गुप्त रखी थी |
फलत: लाह के घर के साथ ही साथ विदुर की सुरंग भी तैयार हो गई | धृतराष्ट्र की आज्ञानुसार पांडव अपनी मां कुंती के साथ जब वारणावत जाने लगे, तो विदुर ने युधिष्ठिर पर दुर्योधन की योजना के साथ ही अपनी योजना भी प्रकट कर दी | विदुर ने युधिष्ठिर को सावधान भी कर दिया था कि जब तक वे सुरंग के द्वारा लाह के घर से बाहर न निकल जाएं, तब तक वे किसी पर भी इस भेद को प्रकट नहीं करेंगे |
परिणामत: पांडव जब अपनी मां कुंती के साथ वारणावत पहुंचे, तो पुरंजन ने उनका स्वागत करके उन्हें लाख के भवन में ठहरा दिया | संयोग की बात, सूर्यास्त होने के बाद न जाने कहां से एक वृद्धा अपने पांच पुत्रों के साथ वहां आ गई और लाख के भवन के बरामदे में ठहर गई | उस दिन रात में पुरंजन भी भवन के बाहरी कमरे में सो गया था | अर्द्धरात्रि का समय था | युधिष्ठिर अपने भाईयों और अपनी माता को जगाकर लाख के बड़े कमरे में ले गए | उन्होंने विदुर के दिए हुए नक्शे के अनुसार उस जगह के पत्थर को हटाया, जहां से सुरंग बनी थी | युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और अपनी मां को सुरंग में उतार दिया | उन्होंने उन पर सबकुछ प्रकट भी कर दिया | वे स्वयं लाख के घर में आग लगाकर सुरंग में उतर गए |
इस प्रकार पांडव अपनी मां कुंती सहित सुरंग के द्वारा लाख के भवन से निकल गए और वन में जा पहुंचे | पुरंजन और अपने पांचों पुत्रों सहित वृद्धा लाख के भवन के साथ ही साथ जलकर भस्म हो गए | प्रभात होने पर वारणावत के निवासियों ने यही समझा कि पांडव अपनी मां कुंती के साथ भवन में आग लगने से जलकर भस्म हो गए हैं | प्रमाण के रूप में वृद्धा और उनके पुत्रों के विकृत शव विद्यमान थे |
पर क्या पांडव अपनी मां कुंती सहित जलकर भस्म हो गए ? नहीं, वे तो सही सलामत सुरंग के द्वारा वन में पहुंच गए थे | किसी ने सच कहा है –
जाको राखे साइयां, मारि सकै न कोय |