माद्री मद्र देश की राजकन्या थी | कुंती का जन्म शूरसेन प्रदेश में हुआ था | दोनों के जन्मस्थान में बहुत बड़ा अंतर था, किंतु दोनों ने अपने हृदय की विशालता और उदारता से उस अंतर को पाट दिया था | दोनों का पृथक-पृथक शरीर था, पृथक-पृथक नाम भी था, किंतु दोनों को शरीर एक प्राण थीं | दोनों में कभी भी अधिकार को लेकर विवाद उत्पन्न नहीं हुआ | पाण्डु चाहे जिसके भवन में रहें, दोनों सुखी और संतुष्ट रहती थीं |
पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों को समान रूप से प्यार करते थे | एक बार वेदव्यास जी ने पाण्डु से पूछा, “राजन ! आप अपनी दोनों पत्नियों में किसे सबसे अधिक प्यार करते हैं ?”
पाण्डु ने उत्तर दिया, “व्यास जी, मैं तो जानता ही नहीं कि मेरी दो पत्नियां हैं | मेरी दोनों पत्नियां एक समान हैं | इसलिए मैं क्या बताऊं कि मैं किसे सबसे अधिक प्यार करता हूं |”
कुंती के गर्भ से तीन और माद्री के गर्भ से दो पुत्र पैदा हुए थे | कुंती के पुत्रों का नाम – युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन था | माद्री के पुत्रों का नाम था – नकुल और सहदेव | जिस प्रकार कुंती और माद्री में परस्पर प्रेम था, उसी प्रकार कुंती और माद्री के पुत्रों में भी परस्पर बड़ा प्रेम था | उनके प्रेम को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वे दो मांओं की संतानें हैं | वे निरंतर पांचों उंगलियों की भांति आपस में मिलजुलकर रहते थे |
पाण्डु अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक अभिशाप के कारण पर्वत पर तप करने के लिए चले गए थे | साथ में उनकी दोनों पत्नियां और पुत्र भी थे | संयोग की बात, वहीं पाण्डु का स्वर्गवास हो गया |
पाण्डु के स्वर्गवास होने पर उनकी दोनों पत्नियों ने उनके साथ ही मर जाने का निश्चय किया | उन दिनों भारत की कर्तव्यप्रिय और धर्मशील स्त्री अपने पति की मृत्यु के पश्चात जीवित रहना पसंद नहीं करती थी | वह वैधव्य को जीवन का कलंक मानती थी | अत: पति के साथ ही साथ अपने अस्तित्व की रेखा को भी मिटा देती थी |
माद्री के साथ ही साथ जब कुंती भी पाण्डु के साथ मर जाने के लिए उद्यत हुई, तो माद्री चिंतित हो उठी | वह कुंती से बोली, “बहन, मैं तुम्हारे धर्मपालन में विघ्न नहीं डाल रही हूं, किंतु तुम्हारा ध्यान एक ओर अवश्य खींचना चाहती हूं | मैं तुमसे उम्र में बड़ी हूं | अत: तुम्हारा ध्यान खींचना अपना कर्तव्य भी मानती हूं | स्वर्गवासी महाराज के पांच पुत्र हैं | तीन तुम्हारे गर्भ से पैदा हुए हैं और दो मेरे गर्भ से | अभी पांचों छोटी वय के हैं | यदि महाराज के साथ हम दोनों भी स्वर्ग चली जाएंगी तो, उनका पालन-पोषण कैसे होगा ? माद्री कहते-कहते मौन हो गई | उसका गला रुंध-सा गया | वह कुछ क्षणों तक मौन रहकर पुन: बोली, “तुमने मुझे सदा अपनी बड़ी बहन समझा है | मैं तुमसे अंचल फैलाकर भिक्षा मांग रही हूं | अपने लिए नहीं, स्वर्गवासी महाराज के पुत्रों के लिए | तुम अपने को जीवित रखो पुत्रों का पालन-पोषण करना भी बहुत बड़ा तप होता है | तुम्हारे द्वारा पालित और पोषित होकर पांचों राजकुमार जब बड़े होंगे, तो समाज और देश की सेवा करेंगे | तुम्हारा नाम अमिट हो जाएगा बहन |”
कुंती ने जिस प्रकार सदा माद्री के सामने मस्तक झुकाया था, उसी प्रकार आज भी उसका मस्तक झुक गया | उसकी आंखें भर आईं | उसने आंखों के सागर के मोतियों को बिखेरते हुए कहा, “बहन माद्री, तुम जो चाहती हो, मैं वही करूंगी |”
माद्री साश्रुनयन पुन: बोली, “कुंती मुझे तुम पर भरोसा है | मैं गंगा पर अविश्वास कर सकती हूं, पर तुम पर नहीं कर सकती | फिर भी बहन, मैं एक मां हूं | मैं अपने दो छोटे-छोटे पुत्रों को तुम्हारे ही भरोसे छोड़कर जा रही हूं | तुम इन्हें देखना | ये दोनों कभी भी यह नहीं समझने पाएं कि इनकी मां नहीं है |”
कथन को समाप्त करते-करते माद्री के हृदय के टुकड़े गल-गलकर उसकी आंखों की राह से बहने लगे | कुंती ने कोई उत्तर नहीं दिया | वह माद्री के गिरते हुए आंसुओं को देखकर मूक-सी बन गई | वह माद्री की आंखों के मोतियों को बीन-बीनकर अपने अंचल में रखने लगी | उसने अपने पल्लू से माद्री की आंखों के आंसुओं को पोंछते हुए कहा, “बहन माद्री, मैं प्राण दे दूंगी, पर तुम्हारे विश्वास के तार को टूटने नहीं दूंगी |”
माद्री ने पाण्डु के साथ ही अपने शरीर का त्याग कर दिया | कुंती पांचों पुत्रों को लेकर तप करने लगी, उन्हें पालने और पोसने में अपने को मिटाने लगी |
महाभारत के पृष्ठों से पता चलता है कि कुंती ने पांचों पुत्रों को समान प्यार देने में विधाता को भी पीछे छोड़ दिया था | विधाता ने हाथों और पैरों में पांच उंगलियां बनाई हैं जो परस्पर छोटी और बड़ी हैं, किंतु कुंती के प्रेम के हाथ की उंगलियां कभी भी छोटी-बड़ी नहीं हुईं | धन्य थी कुंती ! उसने माता के कर्तव्य का पालन जिस तरह किया उसके लिए जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम ही होगी | वह अपने कर्तव्य-पालन से ही अमर बन गई है | स्वर्ग की देवियों के आसन पर बैठने के योग्य बन गई है |