तभी युधिष्ठिर बोल उठे, “मां, यह द्रुपद की पुत्री द्रौपदी है | अर्जुन ने मत्स्य-वेध करके इस प्राप्त किया है | यह तुम्हारी बहू है, पांडव वंश की राजलक्ष्मी है |”
कुंती ने द्रौपदी को आशीर्वाद देते हुए कहा, “मैंने तो भिक्षान्न समझ कहा था कि पांचों भाई आपस में बांटकर खा लो | यह तो लक्ष्मी है, शक्ति है |
युधिष्ठिर बोल उठे, “तुमने चाहे जो भी समझकर कहा हो, पर अब तो तुम्हारे मुख से जो निकल गया है, वही होगा | मां का स्थान ईश्वर के समान होता है |” कुंती विस्मय-भरे स्वर में बोली, “अरे तुम क्या कह रहे हो युधिष्ठिर ? एक नारी पांच मनुष्यों की पत्नी कैसे हो सकती है |”
उसी समय वहां वेदव्यास पहुंचे | उन्होंने कहा, “कुंती, तुम चिंता मत करो | द्रौपदी ने स्वयं भगवान शंकर को प्रसन्न करके, उनसे पांच पतियों का वरदान मांगा था | उसकी इच्छा पूर्ण हुई | वह स्त्री पत्नी-धर्म का पालन तो अर्जुन के साथ ही करेगी, पर मन से शेष चारों भाइयों को भी अपना पति समझेगी |” वेदव्यास जी ने अपने कथन को समाप्त ही किया था कि, द्रुपद भी वहां आ पहुंचे | उन्हें किसी तरह पता चल गया था कि मत्स्य को भेदने वाला ब्राह्मण कुमार ब्राह्मण नहीं, अर्जुन है | वे उसी समय से पांडवों और कुंती की खोज कर रहे थे | आखिर वे कुम्हार के द्वार पर उस जगह जा पहुंचे, जहां वेदव्यास जी, पाण्डव, कुंती और द्रौपदी सभी जन एकत्रित थे | वेदव्यास जी के मुख से द्रुपद सबकुछ सुनकर हर्ष के सागर में डूब गए | फिर तो शंख बजने लगे, शहनाइयां बजने लगीं | पांडवों का द्रौपदी के साथ विवाह हो गया | उस विवाह को यदि ऐतिहासिक विवाह कहा जाए, तो आश्चर्य नहीं मानना चाहिए, क्योंकि विवाह के पश्चात जो घटनाएं घटीं वे ऐतिहासिक ही नहीं, परम ऐतिहासिक थीं |