“नारद जी श्यामसुंदर के पास से आए हैं |” यह सुनते ही श्री राधा के साथ सारी ब्रजांगनाएं बासी मुंह ही दौड़ पड़ीं | कुशल पूछने पर नारद जी ने श्रीकृष्ण की बीमारी की बात सुनाई | गोपियों के तो “वैद्य भी हैं, दवा भी है, पर अनुपान नहीं मिलता |”
“ऐसा क्या अनुपान है ?”
“क्या श्रीकृष्ण को अपने चरणों की धूलि दे सकोगी ? यही है वह अनुपान, जिसके साथ दवा देने से उनकी बीमारी दूर होगी |”
“यह कौन-सी बड़ी कठिन बात है, मुनि महाराज ? लो, हम पैर बढ़ाए देती हैं,
“अरी यह क्या करती हो ?” नारद जी घबराए, “क्या तुम यह नहीं जानतीं कि श्रीकृष्ण भगवान हैं ? भला उन्हें खाने को अपने पैरों की धूल ? क्या तुम्हें नरक का भय नहीं है ?”
“नारद जी ! हमारे सुख-संपत्ति, भोग-मोक्ष-सबकुछ हमारे प्रियतम श्रीकृष्ण ही हैं | अनंत नरकों में जाकर भी हम श्रीकृष्ण को स्वस्थ कर सकें – उनको तनिक-सा भी सुख पहुंचा सकें तो हम ऐसे मनचाहे नरक का नित्य भाजन करें | हमारे अघासुर (अघ+असुर), नरकासुर (नरक+असुर) तो उन्होंने कभी के मार रखे हैं |”
नारद जी विह्वल हो गए | उन्होंने श्रीराधा रानी तथा उनकी कायव्युह रूप गोपियों की परम पावन चरणरज की पोटली बांधी, अपने को भी उससे अभिषिक्त किया, लेकिन नाचते हुए द्वारका पधारे | भगवान ने दवा ली | पटरानियां यह सब सुनकर लज्जा के गढ़-सी गईं | उनका प्रेम का अहंकार समाप्त हो गया | वे समझ गईं कि हम उन गोपियों के सामने सर्वथा नगण्य हैं | उन्होंने उन्हें मन-ही-मन निर्मल तथा श्रद्धापूर्वक मन से नमस्कार किया |